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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 01 फरवरी, 2023 07:04 PM
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'आंखें मूंदे चले जा रहा देश पीछे जिनके, इरादे इनके बड़े ख़राब होते हैं. अमन छीन देश को देते हैं जंग, दहशतगर्दी के आसमां के महताब होते हैं !' - कहीं ये लाइनें पढ़ी और समझ आ गया आज माहौल क्यों खराब है? बारीकी से देखें और सोचें भी तो समझ यही आता है कि आहत भावनाओं को भड़काने का काम राजनीतिक पार्टियां बखूबी करती हैं वरना तो ठंडा पड़ जाना भावनाओं की हमेशा से नियति रही है.

आजकल ईश निंदा या कहें तो देव निंदा उन बातों में भी निकल आती हैं जिन्हें सालों पहले किसी ने कहा था मानो नई लाशें बिछाने के लिए ही गड़े मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं. और बात सालों तक ही नहीं रह गई है, अब तो आस्था के प्रतीक हिंदू धार्मिक ग्रंथ निशाने पर हैं और निशाना हिंदू ही लगा रहे हैं. वजह सिर्फ और सिर्फ तुच्छ राजनीति है. राजनीति ही है कि ऑस्ट्रेलिया में हिंदू मंदिरों में तोड़फोड़ वो कर रहे हैं जिनका अर्विभाव ही हिंदू धर्म की रक्षा के लिए हुआ था ! फिर सहिष्णुता की अपेक्षा हिन्दुओं से हैं, सेकुलरिज्म की दुहाई भी हिन्दुओं के लिए है. और जब विभिन्न हिंदू मतावलंबी ही एकमेव नहीं है तो अन्य क्यों श्री रामचरितमानस के अपमान की भर्त्सना करें ? पिछले दिनों एक घटना कुरान को जलाने की स्वीडन में हुई तोप्रतिक्रिया पूरी दुनिया में हो रही है और कई जगह हिंसा भी हुई. एक और ज्वलंत उदाहरण है अमेरिका की एक यूनिवर्सिटी का जहां आर्ट की प्रोफेसर को इसलिए निलंबित कर दिया चूंकि  उन्होंने क्लास में पैगम्बर मोहम्मद की 14 वीं सदी में बनाई गई एक पेंटिंग दिखाई जिससे मुस्लिम छात्र नाराज हो गए क्योंकि उनकी धार्मिक भावनाएं आहत हो गईं.

Religion, India, Indians, Support, Oppose, Hindu, Muslim, Religion, Nupur Sharmaतमाम लोग हैं जो धर्म के नशे में एक से एक और अजीब गतिविधियों को अंजाम दे रहे हैं

हमारे यहां तो वोटों की राजनीति के वश अपने ही ( जो फख्र से हिंदू कहलाते हैं ) बयान या घटना के लिए जिम्मेदार व्यक्ति को प्रमोशन दे दे रहे हैं और समर्थन भी कर रहे हैं . और ये काम बेचारा आम आदमी तो करेगा नहीं। वो तो, चाहे किसी भी संप्रदाय या धर्म का हो, हतप्रभ है, आहत है. आखिर आस्था पर चोट तो किसी की भी कभी भी की जा सकती है और होती रही भी है. तो कौन करेगा ?

सौ फ़ीसदी ऐसा करने वाले नेता गण ही है या फिर वे हैं जिनका राजनीतिक पार्टियों से वर्तमान में कोई ना कोई हित सधता है या भविष्य में सधने की उम्मीद है.और राजनीतिक पार्टियां क्यों ऐसा करती हैं ? स्पष्ट है वोट साधने की कवायद .जो सत्तासीन हैं, उन्हें येन केन प्रकारेन बने रहना है और जो बाहर हैं उन्हें सत्ता प्राप्त करनी है. जनता के सरोकार के मुद्दों पर सत्ता को घेरने का मादा तो अब विपक्ष में लगता है रहा ही नहीं.

असल सरोकार के मुद्दे हावी ना हो सो दीगर भावनात्मक मुद्दे मसलन धर्म और आस्था का एक कुचक्र सा निर्मित कर दिया गया है जिसमें दोनों ही पक्ष जाने ज़्यादा और अनजाने कम योगदान दे रहे हैं . महंगाई हो या बेरोजगारी हो, विपक्ष उस हद तक तार्किक रह ही नहीं गया है ताकि सत्ता पक्ष को इंगेज कर सके. चूंकि धर्मांधता सर चढ़कर बोल रही है, देश का संवरना एक बार फिर टल ही रहा है मानो बिगड़ी बनाने वाला छुट्टी पे जो चला गया है.

लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में मीडिया को निरूपित किया जाता रहा है जबकि मीडिया पर सवाल पहले भी थे और आज तो बहुत ज्यादा है. वजह है टीआरपी की अंधी दौड़ और इसकी ग्लैमर सरीखी चकाचौंध. न्यूज़ अब ऐज सच न्यूज़ है ही नहीं. दरअसल न्यूज़ प्रसारण के नाम पर घटना का पक्षपातपूर्ण पोस्टमार्टम होता है, इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म के नाम पर फैसले होते हैं जिन पर प्राइम टाइम बहस होती हैं.

एजेंडा के तहत ही किरदार होते हैं फिर वे राजनीतिक नेता या प्रवक्ता हों,पोलिटिकल एनालिस्ट हों या सो कॉल्ड इंटेलेक्चुअल हों या डिफेंस एक्सपर्ट हों या मेडिकल एक्स्पर्ट हों या अर्थशास्त्री हों और कोई तो ऑल इन वन भी होता है. आज कल तो धर्म के ठेकेदारों को भी शामिल कर लिया जाता है. कुल मिलाकर फ़ॉर्मैट ऐसा है कि ये बताते हैं, होने वाली है वारदात कहां!

एक बार अभिनेता मनोज वाजपेयी ने किसी शायर के कलाम को क्वोट किया था - 'भगवान और खुदा आपस में बात कर रहे थे, मंदिर और मस्जिद के बीच चौराहे पर मुलाकात कर रहे थे कि हाथ जोड़े हुए हों या दुआ में उठे, कोई फर्क नहीं पड़ता है; कोई मंत्र पढ़ता है तो कोई नमाज पढ़ता है. इंसान को क्यों नहीं आती शर्म है, जब वो बंदूक दिखाकर के पूछता है कि क्या तेरा धर्म है ! उस बंदूक से निकली गोली ना ईद देखती है ना होली, सड़क पे बस सजती है बेगुनाह खून की होली !'

अधिकतर पार्टियां असहमति को दबाने के लिए कानून का इस्तेमाल कर रही हैं लेकिन इसका दमदार विरोध कोई नहीं कर रहा- न मीडिया, और न ही न्यायपालिका. और सब कुछ हो रहा है अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा के नाम पर जबकि हक़ीक़त में सभी इसे अलविदा ही कह रहे हैं. यदि कहें या उनके सुर में सुर मिलाए कि आज हालात इमरजेंसी से बदतर हो गए हैं तो अतिशयोक्ति ही होगी. लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर हमले हो रहे हैं.

नेता लोग, चाहे भाजपा हो या कांग्रेसी या कोई और, कानून का उन लोगों के खिलाफ गलत इस्तेमाल कर सकते हैं जो उनके खिलाफ बोलते हों. और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को दबाने का आरोप यदि बीजेपी पर है तो विपक्षी राज्य सरकारें भी वही कर रही है. लगभग हरेक राज्य में लगभग हर पार्टी असहमति या आलोचना को कुचलने के लिए कानून और पुलिस का इस्तेमाल कर रही हैं. इससे भी बुरी बात यह है कि इसका दमदार विरोध कोई नहीं कर रहा है -न मीडिया और न ही न्यायपालिका.

लक्ष्मण रेखा लांघने में कितनी कसर रख छोड़ी है, इस मामले में तो लोकतंत्र के चारों स्तम्भ कठघरे में है आज. राजनीतिक पार्टियों की बात करें तो THEY DON'T PRACTISE WHAT THEY PREACH. अपने पे आये तो नेता का व्यक्तिगत बयान बताकर किनारा कर लो, ज्यादा हंगामा बरपे तो अस्थायी रूप से उसे निलंबित कर दो. कार्यपालिका है तो मंत्रियों और नेताओं की सुविधानुसार चलती है.

न्यायपालिका बेबस नजर आती है तभी तो न्यायमूर्ति क्षुब्ध होकर अवांक्षित टिप्पणियां कर बैठते हैं , उनके निर्णय स्पीकिंग आर्डर से कमतर हो रहे हैं. नजीर स्वीकार करने में भी अपनी अपनी सुविधा है, एक ही पॉइंट ऑफ़ लॉ है लेकिन अप्लाई करने में अंतर समझ के परे है हालांकि विथ जस्टिफिकेशन है. अब जिसकी कूवत हो वो आगे जाए और रिलीफ पा ले वरना बाकी आरोपियों के लिए जेल तो है ही.

और सभी कुछ जनता का है, जनता के द्वारा है, जनता के लिए है लेकिन जनता हतप्रभ है. एक बहस हुई टीवी(टीआरपी के लिए) पर, सवाल जवाब हुए , क्रिया प्रतिक्रिया हुई(अपने अपने एजेंडा के लिए), कुछ लोगों ने देखा और बहुतों ने नहीं भी देखा . फिर आया वो जिसे 'आफ्टर थॉट' कहते हैं जिसके पीछे दुर्भावना है, निहित स्वार्थ है. नतीजन आग लग गयी. और ये 'आफ्टर थॉट' लाता कौन है ?

दरअसल नेता संविधान की दुहाई देते हैं और वही नेता कानूनों का सबसे ज्यादा दुरुपयोग करते हैं . स्पष्ट है वे ईमानदारी की कसौटी पर खरे नहीं उतरते. .विडंबना ही है कि कानून के रक्षक भी उन्हें दुरुपयोग करने देते हैं. सवाल एक और है अचानक भावनायें इस कदर क्यों आहत होने लगी हैं ? उत्तर है लोग कहीं आहत नहीं हो रहे हैं! कट्टरता हर काल में रही हैं और आजकल उसे ही उकसा कर माहौल बनाया जा रहा है राजनीतिक पार्टियों द्वारा और उनके द्वारा समर्थित कतिपय कट्टरपंथी संगठनों द्वारा.

वजह उनके निहित स्वार्थ हैं. तंत्र ही इन स्वार्थी लोगों ने हथिया लिया है, उनका ही है , उनके द्वारा है और उनके लिए ही है. दरअसल यही स्वार्थी तत्व बेबस जनता, जो बेरोजगारी और महंगाई से परेशान है, के फ़्रस्ट्रेशन का रुख ही बदल दे रहे हैं, उन्हें धर्मान्धता के गर्त में धकेल दे रहे हैं. कुत्सित उद्देश्य है वोटों का ध्रुवीकरण. हर 'क्रिया' की 'प्रतिक्रिया' होती है - यही सिद्धांत खूब मल्टिप्लाई हो रहा है.

नूपुर ने जो कहा, सरासर गलत था लेकिन प्रतिक्रिया थी; नूपुर के कथन को प्रचार दिया गया और फिर प्रतिक्रिया आई जिसकी प्रतिक्रिया स्वरूप जो क्रिया हुई किसने सोचा था. जो भी हुआ वह धर्मान्धता थी, असहिष्णुता थी, कट्टरपन था जिसकी वजह नूपुर नहीं हो सकती. यदि नूपुर को जिम्मेदार ठहराना है तो पहले नूपुर के लिए किसी को जिम्मेदार ठहराना पड़ेगा - शायद उन्हें जो साथ में बहस कर रहे थे या फिर न्यूज़ चैनल को या फिर उस फैक्ट चेकर जुबैर को जिसने अपनी अभिव्यक्ति की आजादी वैसे ही एक्सरसाइज की जैसे नूपुर ने की.

लीना की भी अभिव्यक्ति की आजादी ही थी और क्रिएटिविटी की नाम पर कुछ ज्यादा ही थी कि मां काली को डॉक्यूमेंट्री में यूँ निरूपित किया सो किया बल्कि उसे पोस्टर के रूप में पब्लिकली पोस्ट भी कर दिया. जाहिर है लीना के इरादे अच्छे तो नहीं कहे जा सकते क्योंकि अपने पोस्ट के समर्थन में उन्होंने शिव पार्वती के बहुरूपियों को स्मोक करते हुए का वीडियो या फोटो भी पोस्ट कर दिया. अब कौन समझाए उन्हें कि वे बहुरूपिये थे जिनकी आउट ऑफ़ स्क्रीन एक्टिविटी को यूं  पोस्ट कर आपने तो अपनी कुत्सित मानसिकता को ही सिद्ध कर दिया.

और महुआ का तो कहना ही क्या? वे तो यथा नाम तथा गुण को चरितार्थ करते हुए महुआ के नशे में ही रहती हैं, अनर्गल बोलती हैं और बेतुके लॉजिक भी क्रिएट कर लेती हैं. और सारा कुछ हो रहा है फ्रीडम ऑफ़ स्पीच के नाम पर. पहले भी होता था लेकिन डिग्री ऑफ़ टॉलेरेंस हाई था समाज में. तार्किक आलोचनाएं भर होती थीं, खूब होती थी और वह भी सिर्फ बुद्धिजीवियों के मध्य, ज्यादा हुआ तो भर्त्सना कर दी, उसे बहिष्कृत कर दिया। समर्थन या विरोध के नाम पर आम आदमी प्रभावित नहीं होता था. और जब भी ऐसा कुछ होता था, दंगे होते थे, हाथ पॉलीटिकल ही होते थे.

सो कल के माहौल और आज के में कॉमन है पॉलिटिकल हैंड ! कल हैंड कम थे,आज वे मल्टीप्लाई कर गए हैं इसीलिए माहौल ज्यादा खराब है . बात न्याय प्रणाली की करें तो चीजें कूल नहीं रख पा रही हैं अदालतें ! "पंच परमेश्वर" के सिद्धांत से हटकर न्यायाधीशों के लिए उनके पहले मानव होने की वकालत जो की जाने लगी है ! मानव पहले हैं सो उनसे मानवीय भूलें होंगी ही, वे अनुचित टिप्पणियां करेंगे, पक्षपात भी कर सकते हैं, सेलेक्टिव भी हो सकते हैं!

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लेखक

prakash kumar jain prakash kumar jain @prakash.jain.5688

Once a work alcoholic starting career from a cost accountant turned marketeer finally turned novice writer. Gradually, I gained expertise and now ever ready to express myself about daily happenings be it politics or social or legal or even films/web series for which I do imbibe various  conversations and ideas surfing online or viewing all sorts of contents including live sessions as well .

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