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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 03 सितम्बर, 2021 10:41 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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हरीश रावत (Harish Rawat) का 'ऑल इज नॉट वेल' कहना बहुअर्थी बयान लगता है - नाम भले ही हरीश रावत ने सिर्फ पंजाब (Punjab Congress) का लिया है, लेकिन ये खुद उनकी भी हालत बयां कर रहा है - और जानबूझ कर जो नाम नहीं लिया है उस पर ये बात पूरी तरह लागू होती है - सब कुछ ठीक तो पूरी कांग्रेस में ही नहीं है.

मुश्किल ये है कि उत्तराखंड में चुनाव है और हरीश रावत कांग्रेस के कैंपेन कमेटी के अध्यक्ष हैं - और अब पंजाब का प्रभार उनको एडिशनल चार्ज जैसा लग रहा होगा.

कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू के झगड़े में किसी भी बात का बतंगड़ बन जा रहा है - और पंज प्यारे ने तो जबान पर आकर अलग ही तूफान खड़ा कर दिया है. हरीश रावत ने पंज प्यारे कहा तो था पंजाब कांग्रेस प्रधान नवजोत सिंह सिद्धू और उनके साथी चार कार्यकारी अध्यक्षों के लिए, लेकिन शिरोमणि अकाली दल की तरफ से आपत्ति दर्ज कराते ही बवाल शुरू हो गया.

चुनावों में राज्यों से जुड़ी अस्मिता का मामला तो खिलाफ जाने पर बड़ा ही नाजुक और पक्ष में रहने पर पावरफुल रहता है, लेकिन ये तो सीधे धर्म से जुड़ गया और बात यहां तक पहुंच गयी कि न सिर्फ हरीश रावत को माफी मांगनी पड़ी है, बल्कि सफाई देते देते परेशान होने के बाद सजा के तौर पर झाड़ू लगाने की बात भी करने लगे हैं.

अकाली नेता दलजीत सिंह चीमा का कहना था कि हरीश रावत को पता होना चाहिये कि सिखों के लिए पंज प्यारे का क्या महत्व है. बोले, 'ये कोई मजाक नहीं है... माफी मांगनी चाहिये - मैं पंजाब सरकार से अपील करता हूं कि हरीश रावत के खिलाफ केस दर्ज करे.'

अब तो हरीश रावत प्रायश्चित करने की बात करने लगे हैं, 'मैंने पंज प्यारे शब्द का इस्तेमाल सम्मानित व्यक्ति के लिए संदर्भ के तौर पर किया, फिर भी अगर मेरे शब्दों से किसी की भावनाएं आहत हुईं हो तो मैं माफी मांगता हूं और शब्द वापस लेता हूं - प्रायश्चित के लिए मैं अपने उत्तराखंड में जाकर गुरुद्वारे में झाड़ू लगाऊंगा.'

बताते हैं कि हरीश रावत अपनी तरफ से सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) से मिल कर पंजाब के प्रभारी के पद से निजात दिलाने तक की गुजारिश कर चुके हैं - ताकि उत्तराखंड में वो कांग्रेस को मजबूत करने पर खुद को फोकस कर सकें. अभी तो हाल ये है कि जैसे ही वो पंजाब से बाहर निकलते हैं, कांग्रेस नेता दिल्ली तो दिल्ली, पूरी पलटन के साथ देहरादून तक पहुंच जाते हैं.

जैसे सोनिया गांधी के मन की बात कह डाली हो!

देखा जाये तो हरीश रावत ने अपनी पीड़ा साझा करते हुए कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी के मन की बात ही कह डाली है. कोई सोनिया गांधी के नजरिये से सोच कर तो देखे, उन पर क्या गुजर रही है.

साल दर साल समझाने बुझाने और न जाने कितने मान मनौव्वल के बाद कांग्रेस की कमान बेटे राहुल गांधी को हैंडओवर कर सोचा था कि थोड़ा रिटारमेंट टाइम सुकून भी महसूस किया जाये. एक तो बढ़ती उम्र और दूसरी गिरती सेहत परेशान कर रखी थी, तभी बेटे ने नयी जिद पकड़ ली - न खुद कांग्रेस अध्यक्ष रहूंगा और न ही गांधी परिवार से किसी को रहने दूंगा.

जब देखा कि ये तो मामला ही हाथ से निकलता जा रहा है, फिर मजबूरन अंतरिम कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर फिर से काम चालू किया. सोनिया गांधी ने काम तो शुरू कर दिया लेकिन राहुल गांधी भुलाने को तैयार ही नहीं कि वो इस्तीफा दे चुके हैं, कुछ दिन छुट्टियां मनाने के बाद फिर से एक्टिव हो गये. जाहिर है खुशी तो हुई ही होगी, लेकिन राहुल गांधी ने नयी स्टाइल इजाद कर ली - काम तो सारा करूंगा लेकिन दस्तखत तो कतई नहीं करने वाला.

harish rawat, sonia gandhi, navjot singh sidhuसिद्धू तो नमूना भर हैं, सोनिया गांधी की असली मुसीबत तो दिल्ली में ही खड़ी हो चुकी है

अभी काम संभाला ही था कि हरियाणा की पुरानी बीमारी चुनाव आते ही उभर आयी. राहुल गांधी तो अशोक तंवर और भूपिंदर सिंह हुड्डा को उलझाये रखे थे, कुर्सी छोड़ दी तो मुसीबत चार्ज लेते ही टपक पड़ी. जिस अशोक तंवर को बेटे जैसा मानती थीं, सीने पर पत्थर रख कर हटाना पड़ा, लेकिन जब वो भी बेटे जैसी जिद पर उतर आये तो घर से ही बाहर करने का फैसला लेना पड़ा.

पंजाब में तो सोनिया गांधी कतई नहीं चाहती थीं कि हरियाणा और मध्य प्रदेश जैसा बवाल मचे. हरियाणा में तो कांग्रेस सत्ता के करीब पहुंच कर चूक गयी थी, मध्य प्रदेश मे तो कमलनाथ की जिद के चलते थाल सजा कर बीजेपी को परोस दिया - और अब वैसी ही नौबत पंजाब में भी आ पड़ी है.

निश्चित तौर पर सोनिया गांधी पंजाब में सत्ता गंवाने का जोखिम नहीं उठाना चाहती होंगी, लेकिन मालूम हुआ भाई-बहन की जिद के चलते नवजोत सिंह सिद्धू को कैप्टन बनाने के फैसले को मंजूरी देनी पड़ी - क्योंकि फैसले बच्चों के मुहर लगा देने के बाद दस्तखत तो करनी ही थी.

लेकिन पंजाब में चार दिन भी नहीं बीते कि वो सब होने लगा जिसकी पहले से आशंका रही होगी. हाल तो ये हो गया कि पंजाब के नये कांग्रेस प्रधान सिद्धू डंके की चोट पर आलाकमान को ही ही हड़काने लगे - फैसले की छूट नहीं मिली तो ईंट से ईंट खड़का देंगे... कोई दर्शानी घोड़ा न समझे.

बीते आम चुनाव से पहले 2018 के आखिर में बीजेपी ने सत्ता तो अपनी वजहों से गंवा डाली थी, लेकिन कांग्रेस की जीत का क्रेडिट महफिल में राहुल गांधी लूट लिये - अचानक तीन तीन राज्यों में मुख्यमंत्री के छह छह दावेदार पैदा हो गये. अचानक मुख्यमंत्रियों की नियुक्ति जैसी बड़ी जिम्मेदारी आ गयी.

राहुल गांधी से बात नहीं बन पा रही थी तो प्रियंका गांधी वाड्रा को दखल देनी पड़ी - और वो भी मामला ऐसे सुलझायीं कि आगे चल कर लगातार उलझता गया. मध्य प्रदेश की समस्या तो बीजेपी ने ही निजाद दिला दी, लेकिन राजस्थान का केस नासूर बनता जा रहा है.

जो अशोक गहलोत राणा की 'पुतली फिरी नहीं तब तक...' जैसा व्यवहार सोनिया गांधी के आगे पीछे किया करते थे, मुख्यमंत्री बन कर आलाकमान का मैसेज तक रिसीव करने को तैयार नहीं हैं. अजय माकन को लेकर बाहर आयी खबरें तो यही किस्सा सुनाती हैं.

छत्तीसगढ़ का हाल ये है कि राहुल गांधी वादाखिलाफी की तोहमत नहीं लेना चाहते, लेकिन कांग्रेस प्रियंका गांधी वाड्रा दीवार बन कर खड़ी हो जा रही हैं - क्योंकि वो एक ओबीसी मुख्यमंत्री को यूपी चुनाव से पहले हटाये जाने के नतीजे सोच कर थर्रा जा रही हैं. राहुल गांधी चाहते हैं कि वो टीएस सिंहदेव से ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री बनाने का वादा पूरा करें - और मौके की नजाकत समझ मुख्यमंत्री भूपेश बघेल राहुल गांधी की कमजोरी पकड़ कर मनमानी करने लगे हैं.

भूपेश बघेल अच्छी तरह जानते हैं कि राहुल गांधी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमले का मौका देने के लालच में कुछ भी कराया जा सकता है, लिहाजा वो बीजेपी के गुजरात मॉडल के मुकाबले देश भर में छत्तीसगढ़ मॉडल की पब्लिसिटी का ऑफर दे देते हैं - और राहुल गांधी शांत हो जाते हैं. किसी नतीजे पर तो नहीं पहुंचते लेकिन फैसला टाल देते हैं.

सबसे मुश्किल तो प्रशांत किशोर को कांग्रेस में लाने का मामलो हो गया लगता है. अव्वल तो प्रशांत किशोर के नाम पर अब तक गांधी परिवार ही राजी नहीं हुआ करता था, अब जबकि कांग्रेस का अस्तित्व बचाये रखने के लिए प्रशांत किशोर के जरिये संजीवनी बूटी की आस लगायी तो घर में ही नया बवाल शुरू हो गया है. वैसे मोदी से पहले तो वो राहुल गांधी से ही मिले थे, लेकिन पहले आइडिया जमा नहीं था. यूपी की राजनीतिक झंझावातों के चलते निराशा ही हाथ लगी थी.

सोनिया गांधी के लिए अब इससे बड़ी अवहेलना क्या होगी कि प्रशांत किशोर को पार्टी में लाने के लिए कांग्रेस नेताओं की राय का मोहताज होना पड़ रहा हो - और विरोध का स्वर तेज करने वाले G-23 के बागी हों.

वैसे सोनिया गांधी ने बागी नेताओं को धीरे धीरे ठिकाने लगाना शुरू भी कर दिया है - अभी अभी पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में एक कमेटी बनायी है जिसमें G-23 के तीन नेताओं को शामिल किया है. ये तो साफ है कि सोनिया गांधी बागियों की कमर तोड़ने के लिए चालें चलनी शुरू कर दी है, हालात ऐसे हैं कि ये सब उतना आसान भी नहीं रह गया है.

पंजाब की समस्या तो बूंद भर ही लगती है क्योंकि दिल्ली में कांग्रेस की समस्या तो सागर जैसी है - और पंजाब का नाम लेकर हरीश रावत ने एक तरीके से सोनिया गांधी के दिल की बात ही तो कही है. है कि नहीं?

कांग्रेस की असली कमजोरी भी तो पंजाब ही है

ऑपरेशन ब्लू स्टार को लेकर इंदिरा गांधी और दिल्ली के सिख दंगों को लेकर पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी का ये कहना कि कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती ही है - सिख समुदाय भुला नहीं पाता और सवाल उठते ही राहुल गांधी भाग खड़े होते हैं.

तभी तो नवजोत सिंह सिद्धू आलाकमान को ईंट से ईंट बजा देने की धमकी दे रहे हैं और G-23 के चिट्ठीबाजों की तरफ से उसी पंजाब से आने वाले मनीष तिवारी शेरो शायरी के जरिये दर्द का इजहार कर भर कर पा रहे हैं.

कई बार तो ऐसा लगता है जैसे हरीश रावत भी सिद्धू से भयाक्रांत हैं, तभी तो कैप्टन मंत्रिमंडल में फेरबदल की बात कर 24 घंटे के भीतर ही पलट जाते हैं. असल में फेरबदल के नाम पर मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह जिन मंत्रियों को हटाना या कम से कम विभाग बदलना चाहते हैं वे सभी चार सिद्धू गुट के माने जाते हैं.

कैप्टन अमरिंदर सिंह के निशाने पर तृप्त राजिंदर सिंह बाजवा, सुखबिंदर सिंह सरकारिया, चरणजीत सिंह चन्नी और सुखजिंदर सिंह रंधावा आ गये हैं. तृप्त राजिंदर सिंह बाजवा, सुखबिंदर सिंह सरकारिया तो कैप्टन अमरिंदर सिंह के खिलाफ शिकायत लेकर हरीश रावत से मिलने देहरादून तक पहुंच गये थे. सुखजिंदर सिंह रंधावा तो कहने लगे हैं कि वो अपने दम पर मंत्रिमंडल में हैं और मंत्री पद को लेकर उनको कोई लालच भी नहीं है.

कैप्टन चाहते हैं कि सुखबिंदर सिंह सरकारिया का विभाग वो अपने करीबी गुरमीत सिंह सोढ़ी को दे दें. ये सोढ़ी ही हैं जो फिलहाल कैप्टन के संकटमोचक बने हुए हैं - सोढ़ी ने ही कैप्टन के पक्ष में विधायकों और कांग्रेस नेताओं को करने के लिए डिनर पार्टी दी थी.

पंजाब में नेतृत्व परिवर्तन की संभावनाओं को तो पहले ही खारिज कर दिया था, लेकिन ये जरूर कहा था कि जरूरत पड़ी तो मुख्यमंत्री हाईकमान से बातचीत के बाद मंत्रिमंडल में विस्तार कर सकते हैं - ये उनके अधिकार क्षेत्र में है. 24 घंटे बाद ही हरीश रावत पलट गये और कहने लगे कि मंत्रिमंडल में बदलाव की जरूरत नहीं है.

नेतृत्व परिवर्तन को लेकर हरीश रावत पहले ही सिद्धू समर्थकों के निशाने पर आ चुके हैं. सिद्धू कैंप के विधायक परगट सिंह तो हरीश रावत से ही पूछने लगे हैं कि बतायें कि कब तय हुआ था कि कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में ही कांग्रेस पंजाब विधानसभा चुनाव लड़ेगी. परगट सिंह का दावा है कि तय ये हुआ था कि कांग्रेस सोनिया गांधी और राहुल गांधी के नेतृत्व में विधानसभा चुनाव लड़ेगी.

परगट सिंह ने तो सिद्धू के बचाव में ये तक समझाने की कोशिश की है कि ईंट से ईंट बजा देने वाली बात हरीश रावत के लिए कही गयी थी, न कि राहुल गांधी या सोनिया गांधी के लिए.

हरीश रावत कैप्टन और सिद्धू दोनों को मिल कर कांग्रेस के हित में काम करने की सलाह दे रहे हैं और साथ में नसीहत भी, 'अगर दोनों एक साथ काम नहीं करते हैं, तो एक को अपने जीवन की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक का सामना करना ही पड़ेगा, जबकि दूसरे के पास अभी भी एक लंबा भविष्य पड़ा हुआ है.'

पंजाब के साथ साथ उत्तराखंड को लेकर हरीश रावत ने ट्विटर पर जो दावा किया है, वो भी तो सोनिया गांधी की टेंशन बढ़ाने वाला ही है - हरीश रावत को आशंका है कि कुछ लोग उत्तराखंड के कांग्रेस नेताओं को एसिड अटैक का निशाना बना सकते हैं.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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