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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 30 अगस्त, 2021 08:11 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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पंजाब का मामला (Congress Punjab Crisis) तो लगता है राहुल गांधी (Rahul Gandhi) से ज्यादा हरीश रावत के लिए सिरदर्द बन चुका है. अपनी जमीन उत्तराखंड की राजनीति छोड़ कर हरीश रावत को पंजाब पर ही ज्यादा टाइम देना पड़ रहा है.

वैसे भी कांग्रेस में राज्य प्रभारियों की हैसियत मैसेंजर से अधिक तो है नहीं, अब ये मुश्किल कैसी होती है कोई अजय माकन से पूछे. आलाकमान का दबाव होता था कि वो राजस्थान में जो चीजें तय हो चुकी हैं, लागू करायें - और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत थे कि फोन तक नहीं उठा रहे थे.

हरीश रावत को नीचे से ऊपर तक सबको सुनना भी पड़ता है - और कोई बात हो न हो, बात आगे बढ़े न बढ़े, बात बने न बने मीडिया के सामने आकर समझाना भी होता है.

अब तक जो कुछ भी हरीश रावत से जानने समझने को मिला है, उनकी बातों से, उससे तो यही लगता है कि पंजाब कांग्रेस प्रभारी नवजोत सिंह सिद्धू (Navjot Singh Sidhu) की बातों को वो चौके की जगह सिक्सर से ज्यादा नहीं मान रहे हैं - जबकि सिद्धू की बातों से तो लगता है कि उनको लगातार नहीं सुना गया तो वो विकेट तो ले ही जाएंगे पिच भी पूरी तरह खोद डालेंगे. क्रिकेटर के लिए पॉलिटिक्स भी वैसी ही होती है. क्रिकेट में टेस्ट मैच और वनडे ही खेल पाने वाले सिद्धू राजनीति में 20-20 वाले शौक भी मौका देख कर पूरा कर ले रहे हैं.

हरीश यादव की तरफ से ये भी बताया गया है कि राहुल गांधी जल्द ही पंजाब का दौरा करेंगे, लेकिन लगता तो नहीं कि वो भी छत्तीसगढ़ जैसा होगा. छत्तीसगढ़ दौरे के बारे में तो मुख्यमंत्री भूपेश बघेल कहने लगे हैं कि राहुल गांधी आने वाले दिनों में पूरे देश को गुजरात मॉडल के मुकाबले छत्तीगढ़ मॉडल के बारे में बताएंगे.

लेकिन जिस पंजाब मॉडल की बात नवजोत सिंह सिद्धू कर रहे हैं - और जो पंजाब मॉडल अभी नजर आ रहा है, राहुल गांधी के पास दौरे के बाद बताने के लिए भी शायद ही कुछ बचे. कम से कम अभी तक तो यही लक्षण दिखायी पड़ रहे हैं.

हैरानी तो ये हो रही है कि सिद्धू के 'ईंट से ईंट खड़का' देने वाले बयान पर मनीष तिवारी को छोड़ कर कांग्रेस में किसी तरफ से कोई भी रिएक्शन नहीं आया है, जबकि कुछ कांग्रेस नेताओं ने अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को चिट्ठी लिख दी तो जैसे कोहराम मच गया था - बड़ा सवाल तो ये है कि सिद्धू के बयान पर कांग्रेस में G-23 की चिट्ठी जैसा रिएक्शन क्यों नहीं हुआ?

सिद्धू के बयान पर इतना सन्नाटा क्यों है?

न राजीव सातव इस दुनिया में हैं और न ही अहमद पटेल. दोनों नेताओं की कमी जितना कांग्रेस के बाकी नेता नहीं महसूस कर रहे होंगे, उनसे कहीं ज्यादा सोनिया गांधी और राहुल गांधी को हर रोज होती होगी.

लेकिन राज्य सभा सांसदों को लेकर सोनिया गांधी की तरफ से बुलायी गयी एक मीटिंग में जो कुछ हुआ वो पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सहित कांग्रेस के कई नेता शायद ही कभी भूल पाएंगे. कपिल सिब्बल तो हरगिज नहीं भूल सकेंगे.

rahul Gandhi, Navjot Singh Sidhuअब तो ऐसा लगने लगा है जैसे पंजाब कांग्रे की समस्या राहुल गांधी नहीं बल्कि विधानसभा चुनाव ही सुलझा देंगे

कपिल सिब्बल का कसूर तो बस इतना ही था कि वो कांग्रेस में आत्ममंथन की बात कर रहे थे, लेकिन राजीव सातव तो जैसे टूट ही पड़े थे. ज्यादातर चुप रहने वाले मनमोहन सिंह को बार बार बोलना पड़ा - 'ऐसी बात नहीं है...'

ध्यान देने वाली बात ये रही कि ये सब सोनिया गांधी की मौजूदगी में हो रहा था, वर्चुअल ही सही. अगले दिन भी ट्विटर पर मीटिंग को लेकर पीड़ित नेताओं ने दबी जबान से भड़ास भी निकाली थी. सुनने में आया था कि राजीव सातव ने भी बाद में अफसोस जाहिर किया था.

मुद्दे की बात ये है कि कपिल सिब्बल ने ईंट से ईंट बजा देने की धमकी तो नहीं ही दी थी. कपिल सिब्बल कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को लिखी गयी चिट्ठी के भी को-स्पॉन्सर रहे क्योंकि नेतृत्व तो गुलाम नबी आजाद ने किया था.

चिट्ठी मिल चुकी थी. ये तो नहीं मालूम कि चिट्ठी बांच भी ली गयी थी या लिफाफे से ही खत का मजमून पढ़ लिया गया था, लेकिन कांग्रेस कार्यकारिणी में जो हो हल्ला हुआ वो गजब का था. जाहिर है निशाने पर गुलाम नबी आजाद और कपिल सिब्बल के अलावा बाकी 21 नेता भी रहे.

सबसे मजेदार बात तो ये रही कि चिट्ठी लिखने वालों पर अनुशासनहीनता की कार्रवाई तक की मांग हो गयी, लेकिन किसी ने भी ये जानने, समझने या पूछने की जहमत नहीं उठायी कि चिट्ठी में लिखा क्या है?

अशोक गहलोत से लेकर अंबिका सोनी तक का वश चलता तो चिट्ठी लिखने वालों को काला पानी भेजने जैसी सजा से कम पर मानने को तैयार न होते - लेकिन अब अशोक गहलोत और अंबिका सोनी को सांप क्यों सूंघ गया है जब सिद्धू ललकार रहे हैं?

आलाकमान को संबोधित सिद्धू का बयान उनके सलाहकार के इस्तीफे के बीच ही आया है. क्या सिद्धू को ये भी बुरा लगा है कि उनके सलाहकार पर सवाल खड़े किये गये? अगर वास्तव में ऐसा ही है तो ये भी मान कर चलना होगा कि मालविंदर सिंह माली की हरकतों को सिद्धू की सहमति मिली हुई थी.

माली का ये कहना कि कैप्टन और उनके समर्थक अली बाबा और चालीस चोर हैं, चल भी जाएगा. हो सकता है जम्मू कश्मीर पर माली का बयान भी कांग्रेस नेतृत्व को बहुत बुरा न लगा हो, वो इसलिए क्योंकि जब सिद्धू के पाक आर्मी चीफ जनरल कमर बाजवा से गले मिलने से कोई ऐतराज नहीं है तो माली की बातें भी तो उसी लाइन के इर्द गिर्द रहीं - लेकिन इंदिरा गांधी को लेकर माली ने जो कार्टून शेयर किया था वो कांग्रेस नेतृत्व को कैसा लगा होगा?

माली जानते हैं कि पंजाब कांग्रेस की कमजोर नस है - और इंदिरा गांधी के प्रति पंजाब के मन में जो भाव है वो भी किसी से छिपा नहीं है, लेकिन सिद्धू भी ऐसी चीजों को बढ़ावा दे रहे हैं और कांग्रेस नेतृत्व नजरअंदाज करे तो काफी अजीब लगता है.

वैसे सिद्धू कौन से फैसले लेने के अधिकार की बात कर रहे थे? हरीश रावत ने ये तो बता दिया कि पंजाब कांग्रेस के प्रधान होकर सिद्धू फैसले नहीं लेंगे तो कौन लेगा? हां, ये भी ध्यान दिलाया था कि जो भी फैसले लेने हो वो कांग्रेस के संविधान के अनुसार ले सकते हैं.

अब सवाल ये उठता है कि सिद्धू कौन सा फैसला लेना चाहते हैं, जिसकी छूट न मिलने पर ईंट से ईंट बजा देने का माद्दा रखते हैं?

पंजाब जाकर भी क्या कर पाएंगे राहुल गांधी

नवजोत सिंह सिद्धू जिन फैसलों की बात कर रहे हैं, कहीं वो अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री की कुर्सी से उतारने का फैसला तो नहीं है?

G-23 नेताओं की चिट्ठी से तुलना करें तो सिद्धू की मांग में जमीन आसमान का फर्क लगता है. जी-23 नेता तो बस एक स्थायी कांग्रेस अध्यक्ष की मांग कर रहे हैं. उन नेताओं को राहुल गांधी से भी कोई आपत्ति नहीं हैं. बस इतना चाहते हैं कि अगर राहुल गांधी को ही अध्यक्ष बनना है तो बन जायें, जल्द से जल्द बन जायें लेकिन काम करते हुए नजर भी जरूर आयें.

G-23 नेताओं ने तो चुपके से एक चिट्ठी भेजी थी, नवजोत सिंह सिद्धू तो भरी सभा में दहाड़ रहे हैं और उनका वीडियो वायरल हो चुका है - वीडियो में तो सिद्धू ऐसे गरज रहे हैं जैसे वो राहुल गांधी और सोनिया गांधी नहीं बल्कि कैप्टन अमरिंदर सिंह को धमका रहे हों.

अभी विधानसभा चुनाव के लिए टिकटों का बंटवारा तो हो नहीं रहा है कि कैप्टन अमरिंदर सिंह के दबाव में फैसले न ले पाने को लेकर सिद्धू छटपटा कर रह जा रहे हैं?

अब सुनने में आ रहा है कि सिद्धू और कैप्टन के बीच विवाद को सुलझाने के लिए राहुल गांधी पंजाब का दौरा करने वाले हैं. बहुत अच्छी बात है. बहुत सारे सवाल भी हैं. सवाल तो राहुल गांधी के मन में भी होंगे ही.

एक बात नहीं समझ आ रही है - राहुल गांधी पंजाब को लेकर आगे क्या करने की सोच रहे हैं जो अब तक नहीं कर पाये?

कैप्टन को समझाएंगे बुझाएंगे? सिद्धू को समझाएंगे बुझाएंगे? कई गुटों में बंटे विधायकों और पंजाब के कांग्रेस नेताओं को समझाएंगे बुझाएंगे?

कैसे समझाएंगे बुझाएंगे - जैसे राजस्थान में सचिन पायलट और अशोक गहलोत को समझाते बुझाते आ रहे हैं? जैसे कमलनाथ और सिंधिया को समझाते रहे? जैसे भूपेश बघेल और टीएस सिंहदेव को समझा बुझा रहे हैं - वैसे सबको समझाते बुझाते हैं या सबसे समझते बुझते हैं?

पंजाब को लेकर कई महीने से राहुल गांधी समझते बुझते और समझाते बुझाते रहे हैं. पंजाब के विधायकों से फोन पर बात किये थे. कांग्रेस की तरफ से मल्लिकार्जुन कमेटी बनायी गयी थी. हरीश रावत तो जैसे कॉल सेंटर ही बन गये हैं और लगता है उनका भी ज्यादातर वक्त कस्टमर केयर वालों की तरह सबसे मुफ्त में सॉरी बोलते ही बीतता होगा, लेकिन नतीजा - सिफर ही रहता है.

अब राहुल गांधी पंजाब जाकर भी वही हिट एंड ट्रायल के तरीके को आजमाएंगे. फिर से बारी बारी सबसे बात करेंगे. सबको समझाएंगे. एक बार फिर कैप्टन और सिद्धू को मिल जुल कर काम करने को कहेंगे.

समस्या तो सुलझने से रही. अब तक सुलझी ही कहां पर है? अगर राहुल गांधी समस्या सुलझाते रहते तो आज हिमंता बिस्वा सरमा भी असम में कांग्रेस की सरकार चला रहे होते. 2019 में भूपेंद्र सिंह हुड्डा हरियाणा में मनोहरलाल खट्टर को बेदखल कर किसानों के साथ कदम ताल कर रहे होते. संभव था राहुल गांधी को भट्टा पारसौल जैसा माहौल करनाल या ऐसे किसी इलाके में मिल जाता.

पंजाब से लौटने के बाद राहुल गांधी फिर से सिद्ध और कैप्टन को दिल्ली बुलाएंगे. एक दो बार बुलाकर बैरंग भी लौटा सकते हैं. और फिर चुनाव की तारीख आ जाएगी.

चुनाव की तारीख आते ही समस्या ऑटो-मोड में शिफ्ट हो जाएगी और तेजी से सुलझने की तरफ बढ़ने लगेगी - और जब तक नतीजे आएंगे, समझाया पूरी तरह सुलझ चुकी होगी!

जैसे कोई फैसला न लेना भी एक फैसला ही होता है, राहुल गांधी को लगता है - कोई समस्या न सुलझाना भी एक सॉल्यूशन ही है!

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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