New

होम -> सियासत

 |  7-मिनट में पढ़ें  |  
Updated: 31 दिसम्बर, 2018 05:28 PM
बिजय कुमार
बिजय कुमार
  @bijaykumar80
  • Total Shares

2019 लोकसभा चुनावों से पहले पूर्वांचल के मतदाताओं को अपने पाले में लाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार इस क्षेत्र का दौरा कर रहे हैं. वैसे वाराणसी उनका संसदीय क्षेत्र भी है जहां से वो पूरे पूर्वांचल को साधने की कोशिश में हैं. इसी को ध्यान में रखकर उन्होंने 2014 में यहां से चुनाव लड़ा था जिसका असर हमें बिहार तक देखने को मिला था. वैसे इस बार का उनका वाराणसी और गाजीपुर का दौरा काफी अहम माना जा रहा है क्योंकि जहां एक ओर एनडीए के सहयोगी और कैबिनेट मंत्री ओमप्रकाश राजभर ने प्रधानमंत्री के कार्यक्रमों का बहिष्कार करने का ऐलान किया है तो वहीं दूसरी ओर एक और सहयोगी अपना दल भी गठबंधन में अहमियत नहीं मिलने को लेकर नाराज है. इस क्षेत्र में दोनों ही सहयोगियों की पकड़ मजबूत है. ऐसे में श्री मोदी इस बार अपने सहयोगियों के वोटबैंक को भी साधने की पुरजोर कोशिश करेंगे. वो इस दौरे पर राजभरों के गुरु माने जाने वाले महाराजा सुहेलदेव पर डाक टिकट जारी करने के अलावा प्रदेश में पिछड़ा माने जाने वाले पूर्वांचल में मेडिकल कॉलेज और कई अन्य परियोजनाओं की नींव भी रखेंगे.

लोकसभा चुनाव काफी करीब हैं और सहयोगियों के तीखे तेवरों को सौदेबाजी की सियासत की तरह देखा जा रहा है जिसे नजरअंदाज करना बीजेपी के लिए भारी भी पड़ सकता है. दोबारा सत्ता में आने के लिए बीजेपी को उत्तर प्रदेश में पिछली बार की भांति ही अच्छा करना होगा. जिसके लिए बीजेपी खुद को तैयार भी बता रही है. पार्टी का कहना है कि वो पिछली बार से भी बेहतर प्रदर्शन करेगी. लेकिन एसपी-बीएसपी के साथ आने से उसके समीकरण बिगड़ सकते हैं, ऐसे में अगर उसके पूर्वांचल के दो जरूरी सहयोगी अलग होते हैं तो उसका खामियाजा भी पार्टी को भुगतना पड़ सकता हैं.

लोकसभा चुनाव, उत्तर प्रदेश, अखिलेश यादव, मायावति, राहुल गांधीहर दल को उत्तर प्रदेश में ज्यादा से ज्यादा मत चाहिए होंगे तभी वो प्रधानमंत्री की रेस में आगे बढ़ सकता है.

उधर, लोकसभा चुनाव से पहले पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की तीन राज्यों में बड़ी जीत और बीजेपी की हार के बाद से ऐसा माना जा रहा था कि आम चुनावों में कांग्रेस अपने नेतृत्व में विपक्ष को एक साथ लाने में कामयाब होगी जिसकी झलक राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्रियों के शपथ ग्रहण समारोह में देखने को मिली. इस एकता के प्रदर्शन में ममता बनर्जी, मायावती और अखिलेश यादव का मौजूद ना होना ये साफ बयां कर गया कि इन तीन राज्यों के मुख्यमंत्रियों का शपथ ग्रहण समारोह कर्नाटक के मुख्यमंत्री कुमारस्वामी की तुलना में कम आकर्षक था.

वैसे ममता बनर्जी का उपस्थित ना होना कांग्रेस के लिए उतना चिंताजनक नहीं था लेकिन बीएसपी सुप्रीमो मायावती और एसपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव के ना शामिल होने से कांग्रेस के लिए उत्तर प्रदेश में चिंता बढ़ गयी है. अभी हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोनिया गांधी के संसदीय क्षेत्र रायबरेली का दौरा कर ये संकेत दिया कि बीजेपी इस बार कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में एक भी सीट नहीं जीतने देना चाहती. बता दें कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पिछले लोकसभा चुनाव में महज अपनी दो पारम्परिक सीटों रायबरेली और अमेठी को बचने में कामयाब हो पायी थी. बीजेपी ने सत्ता में आने के बाद से इन दोनों सीटों से कांग्रेस को अगले चुनाव में उखाड़ फेकने के लिए पूरी तैयारी कर ली है और अगर कांग्रेस को ये किले बचाने हैं तो उसके लिए बीएसपी और एसपी का साथ जरूरी होगा. हमने पहले भी देखा है कि कैसे दोनों दल वहां ऐसा कुछ करते हैं जिससे कि इन सीटों पर कांग्रेस की राह कुछ आसान हो जाती है.

बीजेपी दलों को साथ लाने कि तो इस दृष्टि से भी कांग्रेस को उम्मीद के मुताबिक सफलता नहीं मिलती दिख रही है, हां इतना जरूर है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की स्वीकृति इन चुनाव नतीजों के बाद से कुछ बढ़ी जरूर है. साथ ही वो हर चुनाव में हार के कलंक को भी धोने में सफल हो गए हैं लेकिन उनके लिए 2019 का लोकसभा चुनाव सबसे बड़ी परीक्षा होगी जिसमें पास होने के लिए उन्हें तमाम दलों के साथ की जरूरत होगी. एसपी और बीएसपी के प्रमुखों की शपथ ग्रहण में ना जाने से इतना साफ हो गया कि ये दोनों दल हाल के विधानसभा चुनावों की भांति अगले लोकसभा चुनाव में भी आमने सामने होंगे खासकर उत्तर प्रदेश में जहां कुछ महीने पहले हुए उपचुनावों में भी ये साथ नहीं लड़े थे. वैसे इनके उपस्थित होने को लेकर इसलिए कयास लगाए जा रहे थे क्योंकि इन दोनों ही दलों ने मध्य प्रदेश में कांग्रेस को समर्थन दिया है. लेकिन उसके पीछे की वजह इन दोनों दलों का बीजेपी के खिलाफ जाना था और उनके पास कांग्रेस के समर्थन के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था.

बीजेपी के खिलाफ होने का सन्देश दोनों दल उत्तर प्रदेश के मतदताओं को देना चाहते हैं खासकर मुस्लिम मतदाता को, जो प्रदेश के चुनाव नतीजों में अहम् भूमिका निभाते हैं. बता दें कि मुस्लिम मतदाता एसपी, बीएसपी के अलावां कांग्रेस का साथ भी देते आये हैं लेकिन पिछले कुछ चुनावों में वो ज्यादातर एसपी और बीएसपी के साथ ही दिखे हैं क्योंकि ये दोनों दल वहां बीजेपी को रोकने में कांग्रेस कि अपेक्षा ज्यादा मजबूत हैं.

एसपी और बीएसपी के अलावा उत्तर प्रदेश के खासकर पश्चिमी भाग में मौजूदगी दर्ज कराने वाली आरएलडी पार्टी के मुखिया अजीत सिंह और उनके पुत्र जयंत ने भी शपथ ग्रहण समारोह से दूरी बनायी और अपने ऑप्शन्स को खुला रखा. बता दें कि उनकी पार्टी ने राजस्थान में कांग्रेस के साथ चुनाव लड़ा और उनका एक विधायक जीता भी लेकिन उनकी नजर फ़िलहाल पश्चिम उत्तर प्रदेश पर टिकी है जहां कभी उनका दबदबा होता था. हाल में कैराना उपचुनाव में एसपी के उम्मीदवार ने आरएलडी के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ा और बीजेपी को मुंह की खानी पड़ी. इसके बाद से आरएलडी को लगता है कि वो इस तरह के गठबंधन में रहकर अपना भला कर लेगी यही वजह है कि वो फ़िलहाल एसपी और बीएसपी के साथ जाने की सोच रही है. पश्चिम उत्तर प्रदेश में दलित, मुस्लिम और पिछड़ा वर्ग खासकर जाट की एकता के सामने टिक पाना आसान नहीं हैं और इस तरह के गठबंधन से पार पाना बीजेपी के लिए काफी मुश्किल होगा क्योंकि प्रदेश में ऐसे गठबंधन में पीस पार्टी और निषाद पार्टी भी शामिल हो सकती हैं.

वैसे महागठबंधन में अगर कांग्रेस को जगह नहीं मिलती है तो, तीन राज्यों में मिली विजय से उत्साहित पार्टी उत्तर प्रदेश में अपने दम पर मैदान में उतर सकती है. कांग्रेस पार्टी सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारकर ये देखना भी चाहेगी कि उसका पारमपरिक वोट अब भी उसके साथ है या नहीं क्योंकि हाल ही में पार्टी के अध्यक्ष राहुल गाँधी ने खुद को जनेऊधारी ब्राह्मण के तौर पर पेश किया है. पार्टी को ये लगता है कि सवर्ण वोट जो राम मंदिर आंदोलन के चलते बीजेपी के पाले में चला गया था, वह कांग्रेस में वापस लौट सकता है. जाहिर है अगर ऐसा होता है तो इससे बीजेपी को नुकसान होगा और एसपी -बीएसपी को फायदा होगा जो कांग्रेस के लिए अपरोक्ष रूप से ठीक ही है.

प्रदेश में लोकसभा चुनाव 2014 के नतीजों पार नजर डालें तो बीजेपी को अकेले कुल 42.63 प्रतिशत मत मिले थे और वो 71 सीटें जीतने में कामयाब हो गयी थी एनडीए की सहयोगी अपना दल दो सीटें जितने में कामयाब हो गयी थी और उसका वोट शेयर मात्र 0.02 था. जबकि एसपी को 22.35 फीसदी मत मिले और वो पांच सीट जीत पायी थी लेकिन बीएसपी को 19.77 फीसदी वोट मिले लेकिन वो अपना खाता भी नहीं खोल पायी थी, जबकि कांग्रेस को महज दो सीटें मिली थीं और उसका वोट शेयर 7.53 रहा. वहीं 2017 के विधान सभा चुनाव में बीजेपी ने एक बार फिर अपना बेहतरीन प्रदर्शन दोहराया और 312 सीटें जीत लीं लेकिन उसका मत प्रतिशत 2014 के मुकाबले घटकर 39.67 ही रह गया, उसकी सहयोगी अपना दल 9 सीटों पर विजयी रही और उसका मत प्रतिशत 0.98 रहा तो वहीं दूसरी सहयोगी एसबीएसपी ने 4 सीटों पर जीत दर्ज की और मत प्रतिशत 0.70 था. बीएसपी को महज 19 सीटें मिली और उसका मत प्रतिशत 22.23% रहा तो वहीं कांग्रेस के साथ गठबंधन कर चुनाव में उतरी एसपी को 47 सीटों पार जीत मिली और उसका मत प्रतिशत 21.82% रहा जबकि कांग्रेस 7 सीटों पर जीत पायी और उसका मत प्रतिशत 6.25 रहा. अब बात हाल के उपचुनावों की करें तो गोरखपुर, फूलपुर और कैराना तीनों ही लोकसभा सीटों सहित नूरपुर विधानसभा सीट पर भी बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा है.

ये भी पढ़ें-

2019 आम चुनाव: 5 राज्यों में उतरने जा रही आप का महागठबंधन पर सस्पेंस!

अगर राजदार राज खोलने लगा है तो क्या चौकीदार 'चोरों को सही जगह' भेजेगा?

लेखक

बिजय कुमार बिजय कुमार @bijaykumar80

लेखक आजतक में प्रोड्यूसर हैं.

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय