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Updated: 03 जून, 2018 08:26 PM
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30 मई को इंडियन एक्सप्रेस में पुलिस अधिकारियों द्वारा जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद और आतंकवादियों की भर्ती के आदेश पर एक रिपोर्ट छपी. रिपोर्ट में कहा गया कि बुरहान वानी को मारने के बाद आतंकवादी रैंकों में लगभग आधी भर्ती उसी क्षेत्र के 10 किमी के दायरे के अंदर ही होती है. और ये भर्तियां एनकाउंटर के 40 दिनों के भीतर ही हुई थी.

यह रिपोर्ट नवंबर 2016 और इस साल अप्रैल के बीच में हुए 43 मुठभेड़ों के अध्ययन पर आधारित थी.

अध्ययन में कहा गया है कि हर मुठभेड़ के बाद भर्ती में वृद्धि दर्ज की गई. इस कारण से आतंकवादियों की संख्या मारे गए आतंकियों से अधिक हो गई. जम्मू-कश्मीर पुलिस के लिए "सबसे बड़ी चुनौती" स्थानीय भर्तियां हैं. मुठभेड़ की जगह पर स्थानीय लोगों की मौत ने भी लोगों के गुस्से को भड़काने का काम किया. प्रदर्शनकारियों की मौत के बाद विरोध में जनाजे निकाले जाते हैं. रिपोर्ट में कहा गया है, "इस तरह के गर्म माहौल ने आतंकवादियों की भर्ती को बढ़ाया.

एक महत्वपूर्ण बात यह है कि नए भर्ती हुए आतंकियों की संख्या मौत के घाट उतारे गए आतंकियों की संख्या से अधिक है. इस साल 26 आतंकवादी मारे गए, जबकि 46 आतंकियों के नई भर्ती होने की सूचना मिली है. इससे पहले युवाओं द्वारा बंदूक उठा लेने की वजह कट्टरपंथी बताए जाते थे. मौजूदा आतंकवादियों का जन्म राज्य से कश्मीरी पंडितों को बाहर निकाल दिए जाने के बाद हुआ था. इसलिए उन्होंने राज्य में सिर्फ एक ही धर्म और पूजा पाठ के बारे में सुना है. घाटी से धर्मनिरपेक्षता गायब हो गई है.

Jammu Kashmir, stone peltersबच्चों को बचपन से ही पढ़ाया जाता है कि भारत हमारा दुश्मन है

कश्मीरी बच्चों को बचपन से ही पढ़ाया गया है कि जल्दी ही उन्हें "आज़ादी" मिलने वाली है. इसलिए "इंडिया गो बैक" के नारे वहां की दीवारों पर लिखे दिख जाते हैं और बच्चों द्वारा कहे जाते हैं. साथ ही सीमा पार से हुर्रियत नेतृत्व इसे और फड़काने का काम किया है. इसलिए, केंद्र और देश के बाकी हिस्से के खिलाफ कश्मीरी नागरिकों का गुस्सा बरकरार रहता है.

कश्मीरी इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं कि सीमा पार उनके अपने भाइयों के साथ ही दूसरे श्रेणी के नागरिकों से भी बदतर व्यवहार किया जाता है. और ये आलम तब है जब उन्हें ऐसी कई सुविधाएं मिली हुई हैं जो देश में किसी और राज्य के नागरिक को नहीं मिली है. साथ ही सरकार द्वारा उन्हें सबसे ज्यादा मदद भी मुहैया कराई जाती है.

दो पहलू हैं जिन्हें रिपोर्ट में अनदेखा कर दिया गया है, हालांकि डेटा वही है.

सबसे पहला, स्थानीय आतंकवादी शायद ही कभी अपने क्षेत्र से बाहर निकलते हैं. उन्हें पता है कि अपने घरों में उन्हें स्थानीय समर्थन मिलेगा इसलिए वो अपने घरों को ही सबसे सुरक्षित अड्डा मानते हैं. इसलिए ही अधिकांश आतंकियों का एनकाउंटर उनके अपने घरों के पास ही होता है. इन लोगों को न तो कोई ट्रेनिंग दी जाती है. न ही उनके पास ढंग के हथियार होते हैं. ज्यादातर आतंकी पोस्टर बॉय बनकर रह जाते हैं जो हथियारों के साथ अपनी वीडियो और फोटो डालते रहते हैं. अपने घर में ही आत्मसमर्पण करना उनके लिए बेइज्जती की बात होगी. क्योंकि इससे कमजोरी और एक आतंकवादी बने रहने में असमर्थता को दर्शाता है.

इसलिए वहां आत्मसमर्पण की घटनाएं बहुत ही कम हो रही हैं.

दूसरा, जब स्थानीय आतंकवादियों की रक्षा की बात आती है तो प्रदर्शनकारी और अधिक हिंसक हो जाते हैं. क्योंकि वे अच्छी तरह से जानते हैं कि यदि वे स्थानीय क्षेत्र में सक्रिय रहते हैं, तो गांव या इलाके में उनकी धाक जम जाएगी. यही कारण है कि स्थानीय लोग बड़े पैमाने पर उन्हें आश्रय भी देते हैं.

तीसरा, प्रदर्शनकारियों को प्रोत्साहित करने वाले लोगों का मुख्य काम भर्ती कराना ही है. वे जानते हैं कि जैसे ही लोग कम हो जाएंगे उन्हें खुद ही बंदुक उठाने पर मजबूर होना पड़ेगा. ज्यादा से ज्यादा प्रदर्शनकारियों को शामिल करने के लिए प्रोत्साहित करके वो सुरक्षा बलों द्वारा जवाबी कार्रवाही की जाती है. सैनिकों द्वारा जवाबी कार्ररवाही के बाद उन्हें आतंकियों को स्थानीय लोगों का सहयोग मिलता है साथ ही आतंकियों के अंतिम संस्कार में शामिल लोगों से भी उन्हें सहायता मिलती है.

Jammu Kashmir, stone peltersआतंकियों को स्थानीय लोग भगवान की तरह पूजने लगते हैं

आतंकवादियों का अपने घरों के पास ही मुठभेड़ में मारे जाने के पीछे का मुख्य कारण मारे गए आतंकवादियों का गुणगान और उनको सिर आंखों पर चढ़ाया जाना है. आतंकियों के मृत शरीर को झंडे में लपेटा जाता है. अब इस बात से कोई फर्क नहीं पढ़ता कि वो झंडा पाकिस्तान का है या फिर आईएसआईएस का. हवा में फायरिंग करना. भारी भीड़ द्वारा भारत विरोधी नारे लगाना या आतंकवादियों का गुणगान करना जिसे राज्य सम्मान के साथ अंतिम संस्कार की श्रेणी में रखा जा सकता है.

मानसिक रूप से ये चीजें बेरोजगार युवाओं को प्रभावित करती हैं. जो नाम कमाने या इस स्थिति का लाभ उठाने की ताक में बैठे रहते हैं. यही वो युवा हैं जो स्वेच्छा से इन गुटों में शामिल होते हैं.

स्टडी ने कारणों का तो अच्छी तरह से विश्लेषण किया है, लेकिन एक व्यावहारिक समाधान बताने में विफल रहा है. इसका पहला समाधान है मुठभेड़ में मारे गए आतंकियों का अंतिम संस्कार राज्य सरकार करे. हालांकि शुरुआत में इसमें राजनीतिक विरोध का सामना करना पड़ सकता है, लेकिन ये बहुत जरुरी है क्योंकि अगर एक बार किसी व्यक्ति ने बंदूक उठा ली तो फिर वो राज्य का दुश्मन बन जाता है. राज्य के इस कदम से आतंकियों से सहानुभूति के कारण जो लोग हथियार उठा लेते हैं उनकी संख्या घटेगी.

दूसरा, आतंकवादियों को जिंदा पकड़ने के कारण सुरक्षा बलों द्वारा अपनाए गए रणनीति में बदलाव स्वागतयोग्य है. इससे जमीनी कार्यकर्ताओं के नेक्सस को तोड़ने में मदद मिलेगी. इससे आतंकवाद में शामिल होने वालों की संख्या कम हो जाएगी.

तीसरा, सेना पर प्रदर्शनकारियों मारने के लिए फायरिंग के बजाए चोट पहुंचाने के लिए फायरिंग का दबाव हो सकता है. हो सकता है इसमें बदलाव हो. यह परिवर्तन तभी होगा जब मुठभेड़ों के दौरान सीएपीएफ और जम्मू-कश्मीर पुलिस को बैक अप ज्यादा मिला हो.

अध्ययन में ये विश्लेषण प्रासंगिक हैं और राज्य को आतंकवाद में शामिल होने वाले युवाओं की संख्याओं को कम करने के उपायों को अपनाना चाहिए. राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी को खत्म करना चाहिए. यह तभी होगा जब राज्य सरकार ये समझ जाएगी कि वोटों से ज्यादा युवाओं को आतंकवादी बनने से रोकना जरुरी है.

(DailyO से साभार)

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लेखक

हर्ष कक्कड़ हर्ष कक्कड़ @हर्ष कक्कड़

लेखक रिटायर्ड मेजर जनरल हैं..

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