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Updated: 16 जनवरी, 2022 08:59 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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अभी तक कुछ हुआ नहीं है. ये भी नहीं मालूम कि आगे चल कर स्वामी प्रसाद मौर्य या दारा सिंह चौहान कौन सा करिश्मा दिखा पाएंगे - या अपनी सीट भी नहीं बचा पाएंगे, लेकिन यूपी की चुनावी राजनीति में एक अलग माहौल तो बन ही गया है.

यूपी चुनाव (UP Election 2022) में हफ्ता भर पहले तक ऐसा लग रहा था जैसे सब कुछ एकतरफा ही चल रहा हो. सर्वे भी लगातार आ रहे थे. हर महीने एक जैसे. एक-दो सीटों का फर्क होता जरूर था, लेकिन ट्रेंड तो बिलकुल एक जैसा ही रहता. मुकाबले में अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) की समाजवादी पार्टी को बताया जरूर जाता, लेकिन योगी आदित्यनाथ से काफी पीछे. इतना पीछे कि जोड़ तोड़ कर भी बहुमत जुटाना नामुमकिन हो.

धीरे धीरे ये भी माना जाने लगा था कि मुकाबले में अखिलेश यादव थोड़ी आगे बढ़े हैं. मायावती की बीएसपी का नंबर सपा के बाद और आखिरी पायदान पर कांग्रेस के साथ प्रियंका गांधी की कांग्रेस खड़ी है - ये भी अब हर कोई देख ही रहा है कि अचानक से चीजें बदलने लगी हैं.

आचार संहिता लागू होने से पहले पूरा बीजेपी अमला हर तरीके से हावी हुआ लगता था. कहीं से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो कहीं से केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और जगह जगह मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ - अखिलेश एंड कंपनी को लगातार नकार या धिक्कार रहे थे, लेकिन जो रेड अलर्ट समझाया जा रहा था वो तो यू टर्न ले लिया और एक झटके में उसका रुख सपा से भाजपा की तरफ हो गया.

कहां चुनाव तारीखों की घोषणा के दिन अखिलेश यादव की बातों से लग रहा था कि बीजेपी ने बाजी मार ली - और बाकी सब पिछड़ गये. संसाधनों के मामले में तो अखिलेश यादव ने खुल कर कह भी दिया था.

चुनावी रैलियों पर रोक लग जाने के बाद वोटर तक पहुंचना मुश्किल तो सभी के लिए है, लेकिन संसाधनों में आगे होने के चलते बीजेपी के लिए आसान होता. अखिलेश यादव भी इसी तरफ इशारा कर रहे थे - लेकिन अचानक बीजेपी में जो इस्तीफों का दौर शुरू हुआ और मैसेज तो वोटर तक पहुंचने ही लगा.

आखिर ये वोटर तक मैसेज पहुंचने का डर ही तो है जो बीजेपी ने योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) और और केशव प्रसाद मौर्य के चुनाव लड़ने के फैसले पर आखिरी मुहर साबित हुआ है. अगर ब्रह्मास्त्र का इस्तेमाल नहीं किया तो बाजी हाथ से फिसल भी सकती है. अखिलेश यादव की 'स्ट्रैटेजी' ने बीजेपी को बचाव की मुद्रा में तो ला ही दिया है.

कुल मिला कर हफ्ते भर से हो तो ऐसा ही रहा है, जैसे अखिलेश यादव रिंग मास्टर की भूमिका में आ गये हों. ये कितने दिन चलेगा और बात है! ये बहुत आगे तक जाएगा या नहीं, ये भी कहना मुश्किल है, लेकिन फिलहाल सच तो यही है कि अखिलेश यादव एजेंडा सेट कर रहे हैं - और बीजेपी की तरफ से अलग अलग तरीके से रिएक्ट करने को मजबूर है.

बचाव में कैसे आयी बीजेपी

ज्योतिषी जब लोगों को ग्रहों का उपचार बताते हैं तो दो तरह के उपाय होते हैं - पूजा-पाठ और रत्न धारण करना. फिर तय करना होता है कि कौन सा रत्न धारण किया जाये जिससे कि ग्रह मजबूत हों. एक थ्योरी ये भी होती है कि जो मजबूत ग्रह हैं - यानी, कुंडली में महादशा के हिसाब से ज्यादा प्रभावी हैं उनको सपोर्ट किया जाये. ऐसे में ज्यादा मजबूत ग्रहों को सपोर्ट किया जाता है. योगी आदित्यनाथ भी ज्यादा मजबूत वोटर को अपने पाले में मिलाये रखने के लिए गोरखनाथ मंदिर के प्रभाव क्षेत्र को बचाये रखने के लिए मोर्चे पर तैनात किये गये हैं.

जो मैसेज रैलियों से नहीं पहुंच सका: स्वामी प्रसाद मौर्य तो बढ़ चढ़ कर भी दावे कर रहे थे, लेकिन अखिलेश यादव ने आगे से नो एंट्री का बोर्ड लगा दिया है. कह रहे हैं कि अब बीजेपी से किसी को अपनी पार्टी में नहीं लेंगे.

akhilesh yadav, yogi adityanathअखिलेश यादव को जो करना था कर चुके, अब बारी योगी आदित्यनाथ के पलटवार की है - तैयारी मुकम्मल होनी चाहिये!

जोखिम भी तो बड़ा है. बीजेपी तो छोड़ने वाली है नहीं, ये तो वो और उनके स्ट्रैटेजी बनाने वाले उनके नेता भी जानते ही होंगे. मुलायम सिंह यादव के समधी हरिओम यादव के बाद, खबरों के मुताबिक, उनकी छोटी बहू अपर्णा यादव की भी बीजेपी से बातचीत फाइनल ही बतायी जा रही है. अगर उलटी गंगा बहने लगी तो वोटर तक जो मैसेज पहुंचाने की कोशिश हो रही है, वो भी बीजेपी न्यूट्रलाइज कर देगी. फिर तो स्ट्रैटेजी ही फेल समझी जाएगी.

बेशक चुनावी रैलियों पर रोक नहीं लगी होती तो ज्यादा फायदा होता. वैसे अखिलेश यादव भी तो रथयात्रा के जरिये यूपी का इधर उधर करके एक चक्कर लगा ही आये हैं. लेकिन बीजेपी में भगदड़ मचाकर अखिलेश अपने वोटर को समझा पाये हैं वो तो जरूरत से ज्यादा ही एक्स्ट्रा है. कम से कम वो वोटर जो अखिलेश और बीजेपी को लेकर कन्फ्यूजन में है उसे फैसला लेने का मौका तो अखिलेश ने दे ही दिया है - बीजेपी पिछड़ो की नहीं, अगड़ों की पार्टी है.

अखिलेश की स्ट्रैटेजी काम कर ही रही है: बीजेपी ने तो यूपी को छह जोन में बांट कर मोर्चेबंदी पहले ही कर रखी थी. बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा के साथ साथ अमित शाह और राजनाथ सिंह भी पहले से ही पूरी ताकत से जुटे हुए हैं. जरूरी बूथ सम्मेलन भी हो ही चुके हैं - लेकिन जो कुछ हुआ है वो अब नाकाफी लगने लगा है, लिहाजा बीजेपी नेतृत्व को एक्स्ट्रा प्रयास करने पड़ रहे हैं.

1. हिंदुत्व के प्रभाव के बूते जातीय राजनीति का असर कम करने की संघ और बीजेपी की कोशिशें बेकार जाने लगी हैं. जातीय समीकरणों को साधने के लिए अखिलेश यादव और उनकी टीम ने जिस तरीके की चाल चली, हिंदुत्व के असर को कमजोर किया है. जाहिर है बीजेपी को माकूल जवाब देने की तैयारी तो करनी ही थी - पिछड़ों के चक्कर में अगड़ों का वोट बचाने के लिए योगी गोरखपुर में कैंप करने जा रहे हैं.

2. पिछड़ों को बीजेपी के पाले में बनाये रखने के लिए ही तो केशव प्रसाद मौर्य अपने इलाके में डेरा जमाने के लिए भेजा गया है. ऊपर से बीजेपी के 20 हजार से ज्यादा ओबीसी नेता और कार्यकर्ता घर-घर जाकर अपना पक्ष समझाने के लिए तैयार किये गये हैं.

ऐसे नेताओं को बीजेपी नेतृत्व ने विपक्ष के पोल-खोल की तरकीबें सिखायी हैं. ये टीम लोगों बताएंगे कि जिन नेताओं ने बीजेपी से इस्तीफा दिया है, उसका असली सच क्या है. हर विधानसभा क्षेत्र के लिए 50 नेताओं की ऐसी टीम बनायी जा चुकी है.

3. पश्चिम यूपी का सबसे मुश्किल टास्क तो अमित शाह ने पहले से ही अपने हाथ में ले रखा है. अमित शाह के पास किसानों की नाराजगी के बीच बूथ लेवल पर चीजों को ऐसे दुरूस्त करने की जिम्मेदारी है कि हार को भी जीत में बदला जा सके.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कृषि कानूनों को वापस लेकर बीजेपी के प्रति किसानों की नाराजगी कम करने की कोशिश की जरूर है, लेकिन जो देर लगायी गयी उसका खामियाजा भी तो भुगतना पड़ेगा - और जयंत चौधरी ने अपने इलाके में जो सपोर्ट इकट्ठा किया है उसे कम करने के लिए भी तो जूझना होगा. ये बीजेपी के लिए अलग चुनौती होगी.

अगर 'स्ट्रैटेजी' ने बैकफायर किया तो

जिस तरीके से अखिलेश यादव बीजेपी को छका रहे हैं, उसे वो ही अपने नेताओं की स्ट्रैटेजी बता रहे हैं. प्रेस कांफ्रेंस कर कहा है कि बाबा यानी योगी आदित्यनाथ और उनके दिल्ली वाले लोग समाजवादी पार्टी के नेताओं की स्ट्रैटेजी समझ ही नहीं पाये - लेकिन ये भी नहीं भूलना चाहिये कि स्ट्रैटेजी ने बैकफायर किया तो लेने के देने भी पड़ जाते हैं.

1. नेताओं की नाराजगी भारी पड़ सकती है- सबसे बड़ा चैलेंज अखिलेश यादव के लिए टिकट बंटवारा है. जैसे भी संभव हो अखिलेश यादव को कार्यकर्ताओं की नाराजगी रोकनी ही होगी - वरना, अलीगढ़ जैसी घटनाओं का बहुत गलत मैसेज जाएगा.

अगर कहीं भी फैसले में चूक हुई तो ध्यान रहे, कांग्रेस तो इंतजार कर रही है, बीजेपी मजबूत नेताओं को लपक ही लेगी. कांग्रेस तो सिर्फ टिकट देकर चुनाव लड़ा सकती है, बीजेपी के पास आश्वस्त करने के ज्यादा उपाय हैं.

और हां, अलीगढ़ जैसी नौबत तो हरगिज नहीं आनी चाहिये. अलीगढ़ में समाजवादी पार्टी के दफ्तर के बाहर टिकट न मिलने पर आदित्य ठाकुर ने खुद पर पेट्रोल डालकर आत्मदाह की कोशिश की है. आदित्य ठाकुर अलीगढ़ की छर्रा से नहीं टिकट चाहते थे.

2. अपर्णा यादव कमजोर कड़ी हैं- पांच साल के बाद ही सही, अखिलेश यादव जो बुद्धिमानी चाचा शिवपाल यादव के मामले में दिखाये, अपर्णा यादव के केस में भी वैसा ही करते तो फायदे में रहेंगे. महत्व दोनों का बराबर ही है. बहुत फायदे का भले न हो, लेकिन विरोधी बन जाने पर नुकसान तो उठाना ही पड़ेगा.

3. भीम आर्मी से गठबंधन फायदेमंद होता- भीम आर्मी वाले चंद्रशेखर आजाद ने अखिलेश यादव पर दलितों के अपमान का आरोप लगाया है. कहा है कि अखिलेश यादव को दलितों के वोट की जरूरत नहीं लगती.

ज्यादा नुकसान भले न हो, लेकिन चंद्रशेखर आजाद का दुष्प्रचार बीजेपी के आरोपों के मुकाबले ज्यादा असरदार होगा. लोग उनको वोट भले न देते हों, लेकिन बातें जरूर सुनते हैं.

अखिलेश यादव की तरफ से पहले ओम प्रकाश राजभर का बयान आया कि चंद्रशेखर को जो ऑफर किया गया वो उनको मंजूर नहीं था. राजभर ही दोनों के बीच माध्यम बने थे - थोड़े मोलभाव से बात बन सकती थी.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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