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Updated: 15 जनवरी, 2022 04:09 PM
अनुज शुक्ला
अनुज शुक्ला
  @anuj4media
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तारीखों के ऐलान के साथ यूपी में सत्ता की रेस तो शुरू हो चुकी है. लेकिन रेस में जो बड़े खिलाड़ी दिख रहे हैं उनकी पूरी योजना छोटे-छोटे दलों पर टिकी है. सभी छोटे दल इस वक्त लाइमलाइट में हैं. हर कोई उनकी मनुहार करता दिख रहा है. कांग्रेस और बसपा के साथ गठबंधन करने के बावजूद अखिलेश यादव कोई करिश्मा नहीं दिखा पाए और 2022 से पहले तक एक पर एक कई चुनाव बुरी तरह हार चुके हैं. इस बार भाजपा के खिलाफ उन्होंने भाजपा और बसपा के पुराने फ़ॉर्मूले पर अमल करते हुए कई छोटे दलों को साथ लिया है. इनके जरिए पश्चिम से पूरब तक एक फर्क बनाने की कोशिश कर रहे हैं. जबकि ओमप्रकाश राजभर को छोड़कर भाजपा के सभी पुराने सहयोगी साथ हैं. इस बार नए लोगों को भी जोड़ा गया है.

भाजपा-सपा के अलावा कांग्रेस और बसपा के रूप में दो और बड़े दल यूपी चुनाव में सभी सीटों पर जोर आजमाइश कर रहे हैं. हालांकि इन्होंने अकेले ही भाजपा और सपा के सामने चुनौती पेश करने का मन बनाया है. इस तरह यूपी में भाजपा प्लस सहयोगी, सपा प्लस सहयोगी, कांग्रेस और बसपा के रूप में चार बड़े मोर्चे बने नजर आ रहे हैं. इन चार बड़े मोर्चों के अलावा असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम, पीस पार्टी भी कई सीटों पर चुनाव में उतर रही हैं. आइए जानते हैं कि भाजपा सपा के रूप में दो बड़े सियासी मोर्चों का जमीन पर एक्स फैक्टर क्या है जो चुनाव में फर्क ला सकता है.

up-polls-22-650_011422065943.jpgयूपी चुनाव में भाजपा ने सबसे बड़ा दांव खेला है.

सपा ने छोटे दलों को मिलाया, कितना फायदा पहुंचा सकते हैं सहयोगी

समाजवादी पार्टी ने इस बार राष्ट्रीय लोक दल, सुभासपा, महान दल, अपना दल (कृष्णा पटेल), प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (शिवपाल यादव) जैसे छोटे दलों के साथ गठबंधन किया है. इसके साथ ही 2007 में बसपा की तर्ज पर बड़ी संख्या में ब्राह्मणों को टिकट देकर भाजपा के बेसवोट में सेंध लगाने की फिराक में हैं. जाट मतदाताओं के वोट पर टिके राष्ट्रीय लोकदल का आधार पश्चिमी उत्तर प्रदेश है. 1996 में चौधरी अजीत सिंह ने पार्टी बनाई थी. 2017 के चुनाव में पार्टी का मात्र एक विधायक जीतने में कामयाब हुआ था जो बाद में पार्टी छोड़कर चला गया.

मुजफ्फरनगर दंगों के बाद हिंदू मुस्लिम ध्रुवीकरण में रालोद को तगड़ा नुकसान हुआ. भाजपा ने पश्चिम में इसे बड़ा मुद्दा बनाया और पिछले कई चुनावों में सफलता साफ़ संकेत है कि जाट रालोद की बजाय बड़ी संख्या में भाजपा के साथ हो चुके हैं. पश्चिम के कुछ जिलों में मुस्लिम आबादी 50 प्रतिशत तक भी है. इस बार भी यहां हिंदू-मुस्लिम मुद्दा है. ऐसे में जाट रालोद के साथ ही बने रहेंगे यह तय नहीं कहा जा सकता है. क्योंकि भाजपा के कई जाट चेहरों ने  पिछले कुछ सालों में यहां एक स्वतंत्र और बड़ी पहचान बनाई है. हालांकि सपा और रालोद को किसान आंदोलन की वजह से भाजपा के खिलाफ जाटों की नाराजगी का का पूरा भरोसा है.

पश्चिम में गठबंधन के बावजूद सपा की चिंता क्या है? सपा-रालोद के गठबंधन की मुश्किल यह है कि यहां बसपा भी बहुत ताकतवर है और ज्यादातर सीटों पर भाजपा से सीधी लड़ाई में है. 2017 के चुनाव में बसपा कई सीटों पर दूसरे नंबर पर थी. सपा नेता इमरान मसूद के भाई समेत कई लोकल मुस्लिम नेताओं का बसपा में जाना भी इस बात को साबित करता है कि मायावती अभी भी लड़ाई में बनी हुई हैं. दूसरी बात- ओवैसी की नजर भी इन्हीं मुस्लिम बहुल इलाकों पर बनी हुई है. उन्होंने काफी पहले ही यहां कैम्पेन शुरू कर दिया था. गिनी चुनी ही सही यहां कांग्रेस भी कुछ सीटों पर चौंकाने की क्षमता रखती है. यह तय है कि चुनाव में हिंदू मुस्लिम शोर ही हावी रहेगा. क्योंकि यूपी में भाजपा के पक्ष या विरोध में कम से कम लहर जैसी चीज तो नहीं दिख रही है. पश्चिम में हिंदू मुस्लिम शोर के मजबूत होने और कई ध्रुवीय विपक्ष के होने की स्थिति में सपा-रालोद को नुकसान उठाना पड़ सकता है.

akhilesh-yadav-650_011422065432.jpgअखिलेश यादव

शिवपाल से अखिलेश को फायदा यही है कि सजातीय वोट नहीं बिखरेंगे

शिवपाल यादव के साथ आने का अखिलेश को बहुत फायदा नहीं है. सिवाय इसके कि उनके साथ होने की वजह से सजातीय वोट में बिखराव नहीं होगा. पश्चिम में केशव देव मौर्य का महान दल सपा का दूसरा अहम सहयोगी है. 13 साल पहले इस पार्टी का गठन हुआ था. पार्टी का दावा है कि मौर्य, भगत, भुजबल, सैनी और शाक्य जैसी जातियों में उसका दबदबा है. डिप्टी सीएम केशव मौर्य के रूप में भाजपा के पास बड़ा चेहरा है लेकिन सपा के लिए महान दल इस लिहाज से एक्स फैक्टर हो सकता है कि स्वामी प्रसाद मौर्य अब सपा में शामिल हो चुके हैं. कृष्णा पटेल सहयोगी हैं. जिस तरह चुनाव को अगड़ा बनाम पिछड़ा बनाने की कोशिश हो रही है उसमें स्वामी प्रसाद, कृष्णा पटेल और महान दल की तिकड़ी फायदेमंद ्गकप ीोपाा है.

ओमप्रकाश का असर, पर सुहेलदेव से जुड़ी भावनाओं से सपा को नुकसान होगा

पूर्वांचल में सपा के लिए सबसे बड़े सहयोगी ओमप्रकाश राजभर हैं. सुभासपा का पूर्वांचल की कई सीटों पर असर दिखा है. यह पार्टी 20 साल पहले बनी थी. 2017 में भाजपा के साथ गठबंधन था जिसमें 4 सीटें जीतने में कामयाब हुए थे. पार्टी का राजभर मतदाताओं में असर है. पार्टी राजा सुहेलदेव को प्रतीक बनाकर राजनीति करती है. दो चीजें सपा के लिए नुकसान देह है. एक तो मुगलों से संघर्ष करने वाले सुहेलदेव को लेकर भाजपा आक्रामक हिंदुत्व की राजनीति करती है. बड़े नेताओं ने सालार गाजी के मुद्दे को जमकर उछाला है. सुहेलदेव के नाम पर स्वाभाविक रूप से राजभर मतदाताओं का झुकाव भाजपा की ओर हो सकता है जहां राजभर के कैंडिडेट नहीं होंगे.

दूसरा ओमप्रकाश के दूर जाने के बाद भाजपा ने राजभर समुदाय से बड़े चेहरों को आगे किया है. योगी के कैबिनेट में भी समुदाय को जगह दी गई और संगठनिक हिस्सेदारी भी. राजभर समुदाय के बड़े हिस्से को साथ बनाए रखना सपा से कहीं ज्यादा ओमप्रकाश की अपनी राजनीति के लिए चुनौती है. सुभासपा की वजह से राजभरों का जो भी वोट सपा से जुड़ेगा उसे प्लस ही मानना चाहिए. हालांकि यह ओम प्रकाश के लिए यह मुश्किल टास्क नजर आ रहा है.

कृष्णा पटेल का अपना दल भी सपा के साथ है जो पूर्वांचल में कुर्मी कोइरी मतों की राजनीति के लिए मशहूर है. सोनेलाल पटेल के राजनीतिक आधार पर अनुप्रिया पटेल लगभग काबिज हो चुकी हैं. बावजूद कृष्णा पटेल का सपा के साथ होने के मायने निकलते हैं. हो सकता है कि स्वामी प्रसाद मौर्य, महान दल के साथ कृष्णा पटेल का होना सपा के लिए पूरे प्रदेश में काम कर जाए. सपा के प्रदेश अध्यक्ष भी इसी बिरादरी से आते हैं. कृष्णा पटेल के लिए उनकी अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता साबित करना बड़ा टास्क है.

इन दलों के अलावा अखिलेश चंद्र शेखर आजाद की पार्टी के साथ गठबंधन बनाने की कोशिश में हैं. एनसीपी और टीएमसी के साथ भी सहयोग है. टीएमसी चीफ ममता बनर्जी के जरिए ब्राह्मण मतों को पुचकारना चाहते हैं.

yogi-aditynath-650_011422065457.jpgयोगी आदित्यनाथ.

भाजपा पुराने फ़ॉर्मूले का विस्तार करते दिख रही

अगर भाजपा के गठबंधन को देखें वह पुराने फ़ॉर्मूले का ही विस्तार करती नजर आ रही है. भाजपा ने 2014 में सपा और बसपा से मुकाबले के लिए नॉन डोमिनेंट ओबीसी और नॉन डोमिनेंट दलित मतों को लेकर रणनीति बनाई थी. इसके तहत गैर यादव पिछड़ी जातियों और गैर जाटव दलित वर्ग को फोकस किया गया था. फ़ॉर्मूले का इस बार थोड़ा सा विस्तार किया गया है. अनुप्रिया पटेल की अपना दल (एस), संजय निषाद की निषाद पार्टी, प्रेमचंद बिंद की प्रगतिशील मानव समाज पार्टी के साथ गठबंधन किया है. पार्टी के पास स्वतंत्र देव सिंह, केशव मौर्य जैसे करीब एक दर्जन स्थानीय चेहरे हैं जो पिछड़ी जातियों से आते हैं.

अपना दल मुख्यत: कोइरी कुर्मी मतों के बड़े हिस्से खासकर पूर्वांचल में- असर रखती है. भाजपा के साथ गठबंधन में पिछले कई चुनावों में पार्टी को सफलता मिली है. पिछले चुनाव में अनुप्रिया पटेल के नौ विधायक चुनाव जीतने में कामयाब हुए थे.

पूर्वांचल में भाजपा की दूसरी बड़ी सहयोगी निषाद पार्टी है. छह साल पहले ही संजय निषाद ने पार्टी की स्थापना की थी. यह पार्टी निषाद, केवट, बिंद, मल्लाह, कश्यप, मांझी और गोंड जाति को अपना मतदाता मानती है. ये जातियां उत्तर प्रदेश के लगभग सभी इलाकों में हैं और इनमें से कुछ जातियों का श्रीराम से भावुक संबंध भी रहा है. संजय निषाद पूर्वांचल में बड़ा फर्क पैदा कर सकते हैं.

पूर्वांचल में ही एक और छोटे दल को इस बार भाजपा ने अपने साथ मिलाया है. प्रेमचंद बिंद की प्रगतिशील मानव समाज पार्टी. इस पार्टी का बिंद मतदाताओं में काफी आधार है जो इलाहाबाद, प्रतापगढ़, कौशाम्बी, मिर्जापुर, चंदौली, बनारस, भदोही और जोनपुर में ख़ासा असर रखते हैं. यह पार्टी पिछले दो दशकों से सक्रिय है मगर अभी तक चुनावी कामयाबी नहीं मिली है. प्रगतिशील मानव समाज पार्टी पहली बार किसी बड़े दल के साथ चुनावी गठबंधन में है.

दोनों बड़े गठबंधन देखकर दो चीजें साफ़ हैं. भाजपा को पश्चिम और मध्य उत्तर प्रदेश में अपनी क्षमता पर भरोसा है जबकि उसके तमाम सहयोगी पूर्वांचल की गणित को साधने के लिए दिखते हैं. जातीय गणित के हिसाब से देखा जाए तो अनुप्रिया, संजय निषाद और प्रेमचंद बिंद का साथ ओमप्रकाश राजभर के मुकाबले भाजपा को पूर्वांचल और अवध में सपा से आगे रखता नजर आ रहा है.

लेखक

अनुज शुक्ला अनुज शुक्ला @anuj4media

ना कनिष्ठ ना वरिष्ठ. अवस्थाएं ज्ञान का भ्रम हैं और पत्रकार ज्ञानी नहीं होता. केवल पत्रकार हूं और कहानियां लिखता हूं. ट्विटर हैंडल ये रहा- @AnujKIdunia

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