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Updated: 15 जनवरी, 2022 10:33 PM
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कहा जाता है कि बिहार, उत्तर प्रदेश की मिट्टी में चाहे जितना पढ़ा लिखा जानकार हो. डॉक्टर हो, इंजीनियर हो, अधिकारी हो, बिज़नेसमैन हो वह अपने पैंट के नीचे जाति का लंगोट कसकर घूमता है. बिहार-उत्तर प्रदेश में सवर्ण जातियों के राजनीतिक प्रभुत्व के ख़त्म होने के बाद से पिछले तीस सालों में कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो जो भी दल सत्ता में आए हैं वह परिस्थितिजन्य जातिगत परमुटेशन और कंबिनेशन की वजह से आए हैं. तो क्या बिहार में जो गलती तेजस्वी यादव ने की थी उसे उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव दुरुस्त कर रहे हैं. क्या तेजस्वी यादव जहां से चुनाव हार गए थे, अखिलेश यादव ने अपनी जीत का जुगाड़ वहीं से तलाशा है. दरअसल सामाजिक न्याय के अगुवा रहे मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव की राजनीति से पिछड़ों की राजनीत की अभिलाषा कहीं आगे निकल गई है. बिहार में शायद तेजस्वी यह भांप नहीं पाए कि ग़ैर यादव पिछड़ी जातियों की नई पीढ़ी के नौजवान लालू यादव से आगे की राजनीति देख रहे हैं और वह मुसहरों, मल्लाहों और कोईरियों केहम, वीआईपी और रालोपा जैसी पार्टियों के जरीए अपनी पहचान के लिए छटपटा रही दूसरी पिछड़ी जातियों की महत्वाकांक्षा को समझ नहीं पाए. यह फिर यह कह लीजिए कि सामाजिक न्याय के मसीहा लालू यादव की ग़ैर यादव पिछड़ी जातियों की एहसानमंदी पर ज़रूरत से ज़्यादा ग़ुरूर कर लिया.

UP, Assembly Elections, Samajwadi Party, Akhilesh Yadav, BJP, Yogi Adityanath, Caste, Chief Ministerयोगी आदित्यनाथ  और अखिलेश यादव दोनों ही यूपी में जातियों के महत्व को बखूबी समझते हैं 

अपने पिछले चुनाव में अखिलेश यादव ने यही गलती की थी. तेजस्वी की गलती से अखिलेश ने सीखा है कि लालू और मुलायम की पीढ़ी अब बुजुर्ग हो गयी है, पिछड़ी जातियों की नयी पीढ़ी की चाहत नयी-नयी है. BJP ने पिछले चुनाव में यह सबसे पहले समझा और छोटे छोटे दलों के बैनर तले पिछड़ी जातियों के समूह को BJP से जोड़ा. पिछड़ी जातियों के BJP से जुड़ने का मतलब था समाजवादी पार्टी से टूटना.

अगर आप उत्तर प्रदेश चुनाव पर नज़र डालें तो आपको दिखाई देगा कि बीजेपी के 2017 के मोदी लहर के पीछे छुपी जातिगत रणनीति की कामयाबी से पहले जब भी समाजवादी पार्टी हारी है या फिर बहुजन समाज पार्टी हारी है, इन दोनों पार्टियों के अलावा अन्य का अंतर क़रीब 12 फ़ीसदी से लेकर 17 फ़ीसदी का रहा है. इस बार बीजेपी ने अन्य को मिले वोट के आंकड़े को न्यूनतम दर पर ला दिया था. यह 10 फ़ीसदी से भी कम था.

इस बार जो भी पार्टी जीतेगी यह अन्य ही कमाल करेंगे. तो क्या इन्हीं राजभर, कुर्मी, कोईरी, लोनिया-चौहान, मौर्य, सैनी, पासी जैसी जातियों के पास सत्ता की कुंजी इस बार रहेगी. कोई इनका हिस्सा 20 फ़ीसदी कहता है तो कोई 18 फीसदी मगर अगर यहाँ से इनका वोट 12 फ़ीसदी तक सपा की तरफ़ खिसकता है तो बीजेपी का मामला गड़बड़ा सकता है.

भारत की जनता जब वोट देती है तो इन तर्कों में कोई दम नहीं रह जाता कि आख़िर बीजेपी 312 सीट से हारते हारते आख़िर कितना हारेगी और सपा 54 सीट से जीतते जीतते आख़िर कितना जीतेगी. जनता जिताने पर आती है तो छप्पर फाड़कर वोट देती है और हराने पर आती है तो सूपड़ा साफ़ हो जाता है. वैसे उत्तर प्रदेश में अभी तक मामला टक्कर का है. पिछली बार की BJP की प्रचंडजीत, मोदी लहर के अलावा जातिगत समीकरणों के ठीक बैठने की जीत थी.

बड़ा सवाल है कि आख़िर क्या हुआ जो यह अन्य पिछड़ा वर्ग जिसे लोग ग़ैर यादव पिछड़ा वर्ग कहते हैं कभी BJP के पास भागता है तो कभी समाजवादी पार्टी के पास भागता है. दरअसल अगड़ी जातियों के प्रभुत्व को जब लोहियावादी मुलायम सिंह यादव ने तोड़ा तो यह जातियां पिछड़ा वर्ग के बैनर तले यादवों के साथ ही थी मगर यादवों के सत्ता में आने के बाद यादवों ने सत्ता पाने को सत्ता का परिवर्तन नसमझ कर सत्ता का रूपांतरण समझ लिया.

राजपूत ब्राह्मण जैसी जातियां जिस तरह का व्यवहार पिछड़े वर्ग की जातियों के साथ किया करती थी यादवों ने सत्ता में आने के बाद उसी तरह का व्यवहार इन जातियों के साथ करना शुरू कर दिया. सत्ता में बैठी जाति को ऐसा लगा कि सत्ता पाने का मक़सद उसी तरह का व्यवहार करना है जिस तरह का व्यवहार हमारे से पहले सत्ता में बैठे लोग किया करते थे लिहाज़ा सामाजिक न्याय की लड़ाई बिखर गई.

समाजवादी पार्टी से मोहभंग होने के बाद इस बार BJP ने उन्हें सब्ज़बाग़ दिखाया मगर BJP मूलतः अभी भी अगड़ी जातियों के प्रभुत्व वाली पार्टी ही है. ऐसा नहीं है कि जान बूझकर पिछड़ी जातियोंके साथ अन्याय किया जाता है मगर इस पार्टी की सोच ऐसी है कि पिछड़ी जातियां वह सम्मान पाती नहीं दिखती जो वह संघर्षों के परिणामस्वरूप पाते हुए दिखना चाहती है.

कांग्रेस के साथ में दलितों और पिछड़ी जातियों के मोहभंग के पीछे भी यही मक़सद रहा है. कांशीराम की बहुजन उभार को कांग्रेस ने यूपी में महावीर प्रसाद और बीपी मौर्य जैसे दलितों के हाथ में पार्टी सौंपकर रोकना चाही मगर दलित कठपुतली नहीं रियल हीरो चाहते थे. ठीक उसी तरह जैसे केशव प्रसाद मौर्य को उपमुख्यमंत्री बनाने के बाद भी स्वामी प्रसाद मौर्य को मौर्यों का नेता बनने से रोक नहीं पाई.

कांग्रेस और BJP के नेताओं के अवचेतन में जो जातिगत गांठ पड़ी हुई है वह पिछड़ी जातियों के साथ इन पार्टियों की स्वाभाविक विलय को होने नहीं देती है. BJP और कांग्रेस को पिछड़ी जातियों के नाम पर वोटों के अन्य इस आंकड़े को ख़त्म करना है उनको आत्मसात करना होगा.

यह सच्चाई है कि BJP के और कांग्रेस के बनिस्बत यह जातियां तेजस्वी और अखिलेश को अपना ज़्यादा नज़दीक पाती है मगर यादवों के नवसामंतवादी उभार से वह अगड़ी जातियों केसामंतवादी व्यवहार से भी ज़्यादा नफ़रत करती है.

तेजस्वी का सभी पिछड़ीजातियों को समेटने यह प्रयोग बिहार के पूर्वी यूपी से सटे शाहाबाद में भारीकमाल किया था जहां एनडीए को क़रीब 40 सीटों में से एक सीट मिली थी. बीजेपी ने बिहार में पिछड़ी जातियों की ताक़त को सच्चाई मान लिया है पर उसे लगता है कि यूपी में धर्म की आंधी उसे चुनावी नैया पार लगा देगी, पर धर्म की काठ की हांडी इसबार चढ़ती दिख नही रही है.

यही वजह है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ चुनाव लड़ने गोरखपुर गाए हैं. BJP यह सोच रही थी कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हुए नुक़सान की भरपाई पूर्वी उत्तर प्रदेश में हो जाएगी और वहां पर काशी का कार्ड मोदी के नाम पर चल जाएगा. मगर इसे सिरे पर चढ़ते हुए नहीं देख अब पूर्वी उत्तर प्रदेश की कमान ख़ुद मुख्यमंत्री आदित्यनाथ संभालने गए हैं.

सेनापति को सबसे मज़बूत क़िले को फ़तह करने भेजा जाता है. मगर बिहार से सटे इस इलाक़े में अगर नतीजे वैसे ही आते हैं जिस तरह के बिहार के चुनाव में आए हैं तो फिर BJP के लिए पूर्वी उत्तर प्रदेश से लखनऊ की राह निकलती दिखती नहीं है. क्योंकि पूर्वी उत्तर प्रदेश वह इलाक़ा है जहां पर ग़ैर यादव अन्य पिछड़ा वर्ग सबसे ज़्यादा धमक रखता है और उसकी राजनीति की धुरी भी यह इलाक़ा रहा है.

योगी आदित्यनाथ गोरखपुर भेजने के पीछे यही मंशा है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के अन्य पिछड़ा वर्ग के वोटबैंक को बिखरने से बचाने के लिए इसे धर्म की चादर में समेटा जाए.

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