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Updated: 26 नवम्बर, 2021 01:45 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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अदिति सिंह (Aditi Singh) और वंदना सिंह अलग अलग राजनीतिक पृष्ठभूमि से आती हैं, लेकिन दोनों ही अब भारतीय जनता पार्टी की हो चुकी हैं. अदिति सिंह कांग्रेस के टिकट पर 2017 में विधानसभा पहुंची थीं, जबकि वंदना सिंह बहुजन समाज पार्टी से.

अदिति सिंह जिस विधानसभा से आती हैं वो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की रायबरेली लोक सभा सीट है, जबकि वंदना सिंह (Bandana Singh) आजमगढ़ से आती हैं जिसका समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव प्रतिनिधित्व करते हैं.

ऊपर से तो लगता है कि दोनों विधायकों को बीजेपी ने 2022 के विधानसभा चुनाव में सत्ता में वापसी के लिए मददगार मानते हुए कांग्रेस और बीएसपी से झटक लिया है, लेकिन पार्टी की रणनीतिक का आधा हिस्सा है - दरअसल, ये दोनों ही विधायक बीजेपी के अगले आम चुनाव में भी बड़े काम के साबित होने वाले हैं.

पिछले आम चुनाव को देखें तो 2019 में बीजेपी ने अमेठी और कन्नौज की सीटें हथिया ली थी. अमेठी गांधी परिवार का गढ़ रहा है और राहुल गांधी वहां से दो बार सांसद रह चुके हैं. केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने राहुल गांधी को मात देकर अमेठी सीट बीजेपी की झोली में डाल दी.

कन्नौज लोक सभा सीट मुलायम सिंह यादव का गढ़ रहा है जहां से अखिलेश यादव भी सांसद रह चुके हैं - और उसके बाद उनकी पत्नी डिंपल यादव. 2019 में सपा-बसपा गठबंधन उम्मीदवार डिंपल यादव की जीत की राह में बीजेपी के सुब्रत पाठक पत्थर बन गये.

अमेठी और कन्नौज की ही तरह अब बीजेपी रायबरेली और आजमगढ़ पर फोकस कर रही है - 2024 के आम चुनाव से पहले बीजेपी के यूपी प्लान (BJP UP Plan) के तहत दोनों संसदीय सीटों की विधानसभाओं से विपक्ष को चलता करने की है - और ये तो महज शुरुआत भर है.

ये विधानसभा में आम चुनाव की लड़ाई है

2017 के विधानसभा चुनाव के नतीजों पर ध्यान दें तो मालूम होता है कि पूरे यूपी में जिन 81 सीटों पर बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा था - नौ सीटें सिर्फ आजमगढ़ जिले की रहीं. आजमगढ़ जिले की जिस एक सीट पर बीजेपी को कामयाबी मिली थी वो थी - फूलपुर पवई. फूलपुर में अरुण यादव ने बीएसपी के अब्दुल कैस को हराया था. बाकी बची नौ सीटों में से पांच समाजवादी पार्टी और 4 बीएसपी के हिस्से में रहीं - और अब सगड़ी विधायक वंदना सिंह के बीजेपी ज्वाइन कर लेने के बाद बीएसपी के पास तीन ही सीटें बची हैं. पहले वंदना सिंह के समाजवादी पार्टी ज्वाइन करने की चर्चा रही, लेकिन बाद में बीजेपी से ही उनकी डील फाइनल हो पायी.

आजमगढ़ संसदीय सीट के अंदर पांच विधानसभा सीटें आती हैं. 2017 में उनमें तीन समाजवादी पार्टी ने और दो बीएसपी ने जीती थी - और ये 2019 में अखिलेश यादव के लिए जीत की गारंटी बनीं क्योंकि वो बीएसपी नेता मायावती के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ रहे थे.

उत्तर प्रदेश में शुरुआती चुनावी माहौल बनाने के बाद केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के आजमगढ़ पहुंच कर रैली करने की मुख्य वजह भी यही रही - और उसके दस दिन बाद ही वंदना सिंह के बीजेपी ज्वाइन करने को शुरुआती रुझान भी समझ सकते हैं.

aditi singh, bandana singhबीजेपी को अभी कई और अदिति सिंह और वंदना सिंह की शिद्दत से तलाश है

अमित शाह ने अखिलेश यादव को तरह तरह से घेरने की कोशिश की और बोले कि अखिलेश यादव को जिन्ना बहुत महान दिखने लगते हैं. ये अखिलेश यादव के उस बयान पर अमित शाह की टिप्पणी रही जिसमें समाजवादी पार्टी नेता ने कहा था कि किस तरह विलायत के एक ही संस्थान से जिन्ना की तरह निकले नेहरू, गांधी और पटेल ने आजादी दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी.

अमित शाह ने बीजेपी और समाजवादी पार्टी के शासन में अपने तरीके से फर्क भी समझाया था. अमित शाह का कहना रहा कि जिस आजमगढ़ को समाजवादी पार्टी के शासनकाल में कट्टरवादी सोच और आतंकवाद के पनाहगाह के रूप में जाना जाता था, उसी भूमि पर मां सरस्वती का धाम बन रहा है और ये बदलाव की शुरुआत है... जिस आजमगढ़ को देश विरोधी गतिविधियों का अड्डा बनाकर रखा था, उसी आजमगढ़ से नौजवान आज पढ़-लिखकर देश के विकास में लगे हैं.

आजमगढ़ में स्टेट यूनिवर्सिटी का शिलान्यास करते हुए अमित शाह ने सुझाव दिया कि उसका नाम महाराजा सुहेलदेव के नाम पर रखा जाये क्योंकि आतंकवाद के खिलाफ लड़कर देश को आक्रांताओं से बचाने का काम सुहेलदेव जी ने किया था. बीजेपी के चुनावी वादे की याद दिलाते हुए अमित शाह ने बताया कि 2017 मैनिफेस्टो में 10 नये विश्वविद्यालय बनाने का संकल्प था और वो काम अब पूरा हो गया.

वंदना सिंह ने भगवा धारण करते ही इरादे भी तत्काल प्रभाव से जाहिर कर दिये, बोलीं - 'भाजपा एक मंदिर है और मैंने एक मंदिर में प्रवेश लिया है - योगी आदित्यनाथ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस मंदिर के भगवान हैं.

वंदना सिंह के जरिये बीजेपी ने दो विधानसभा क्षेत्रों में तो अपना सिक्का जमा लिया - लेकिन आठ अब भी बाकी हैं और आगे उन पर ही नजर लगी है.

आजमगढ़ से आम चुनाव में बीजेपी ने अखिलेश यादव के मुकाबले में भोजपुरी स्टार दिनेश लाल यादव निरहुआ को मैदान में उतारा था - और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी निरहुआ के सपोर्ट में आजमगढ़ में रैली की थी, लेकिन बीजेपी को हार झेलनी पड़ी.

अमेठी के बाद रायबरेली की बारी है

आजमगढ़ की ही तरह रायबरेली को लेकर भी बीजेपी की तरफ से 2019 के लिए कम कोशिश नहीं हुई थी, लेकिन ये भी रहा कि सोनिया गांधी के खिलाफ पार्टी स्मृति ईरानी जैसी कोई तेजतर्रार नेता का जुगाड़ नहीं कर पायी थी.

अमेठी में तो गुजरात से पहुंच कर स्मृति ईरानी पांच साल तक लगातार डटी रहीं, लेकिन रायबरेली में बीजेपी को गांधी परिवार के ही आदमी को तोड़ कर मुकाबले में खड़ा किया था. फिर भी सोनिया गांधी ने रायबरेली को कांग्रेस के हाथ से फिसलने नहीं दिया.

अदिति सिंह के पिता अखिलेश सिंह भी एक जमाने में कांग्रेस में ही हुआ करते थे, लेकिन बाद में पार्टियां बदलते भी रहे. बाहुबली नेता अखिलेश सिंह कांग्रेस के खिलाफ हो गये तो कांग्रेस ने मुकाबले में दिनेश सिंह को खड़ा किया. दिनेश सिंह लंबे अरसे तक गांधी परिवार के प्रति निष्ठावान भी बने रहे. दिनेश सिंह एमएलसी थे और उनके भाई राकेश सिंह हरचंदपुर से विधायक. दोनों भाइयों को कांग्रेस से बीजेपी ने अपने पाले में तो किया ही, दिनेश सिंह को ही 2019 में सोनिया गांधी के खिलाफ रायबरेसी लोक सभा सीट से मैदान में उतार दिया, लेकिन ये प्रयोग फेल हो गया.

रायबरेली की पांच विधानसभा सीटों में से एक समाजावादी पार्टी के पास है और दो कांग्रेस के पास थी और दो बीजेपी के पास. अदिति सिंह और राकेश सिंह के पाला बदल लेने के बाद कांग्रेस के पास तो कुछ भी नहीं बचा, समाजवादी पार्टी का एक सीट पर जरूर कब्जा है. 2022 में बीजेपी की कोशिश ऊंचाहार को भी झटकने की होगी - अगर चुनाव से पहले ही समाजवादी पार्टी विधायक मनोज पांडे बीजेपी के हाथ नहीं लगते. वैसे जिस तरह से अखिलेश यादव सक्रिय हैं और दूसरे दलों के नेताओं से मेल मुलाकात चल रही है मनोज पांडे के पाला बदलने के कम ही चांस बनते हैं.

माना जाता है कि अखिलेश सिंह चाहते थे कि अदिति बीजेपी ज्वाइन करें क्योंकि उनके योगी आदित्यनाथ से अच्छे संबंध हुआ करते थे, लेकिन प्रियंका गांधी बीच में कूद पड़ीं और अदिति को कांग्रेस में ले लिया. 2017 में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच चुनावी गठबंधन रहा और अमेठी की सीटों को लेकर अखिलेश यादव के साथ राहुल गांधी को काफी मोल भाव भी करने पड़े थे, लेकिन आखिरकार प्रियंका गांधी वाड्रा रायबरेली विधानसभा सीट कांग्रेस के हिस्से में लेने में सफल रहीं.

सब ठीक ही चल रहा था कि अदिति सिंह के पिता के 2019 में निधन के बाद गांधी परिवार की तरफ से कोई पहुंचा तक नहीं, जबकि पुराने संबंधों के नाते मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने फोन कर हालचाल पूछा था. कुछ दिन बाद प्रियंका गांधी रायबरेली पहुंचीं और अदिति सिंह से संपर्क भी हुआ लेकिन तब तक दोनों के रिश्ते में काफी दूरी आ गयी थी - और योगी आदित्यनाथ के चलते बीजेपी ने एंट्री मार ली थी.

अदिति सिंह ने भले बीजेपी अभी ज्वाइन किया हो, लेकिन काफी दिनों से उनके तेवर ऐसे ही संकेत दे रहे थे. अंदेशा पहले ही भांप कर प्रियंका गांधी रायबरेली को लेकर फिर से एक्टिव हो गयी हैं - रायबरेली गेस्ट हाउस में कांग्रेस की कई बैठकें कर चुकी हैं.

जिन सीटों पर बीजेपी की नजर है

बीजेपी की 2014 के बाद से ही यूपी की उन सीटों पर नजर रही जहां जीत उसके हाथ से फिसल गयी थी - और उनमें भी ज्यादा जोर उन सीटों पर रहा जहां गांधी परिवार और मुलायम परिवार का कब्जा रहा. 2014 में मुलायम सिंह यादव और उनके परिवार के लोगों ने पांच सीटें जीती थी और दो सीटों में से अमेठी राहुल गांधी और रायबरेली सोनिया गांधी.

2019 के आम चुनाव में बीजेपी को 62 और उसकी सहयोगी अनुप्रिया पटेल के अपना दल को दो सांसद लोक सभा पहुंचे थे. फिर भी सपा-बसपा गठबंधन ने 15 सीटें बटोर ली थी. पांच साल से नजर लगाये बैठी बीजेपी ने सात में से कन्नौज और अमेठी सहित तीन सीटें तो जीत ली, लेकिन अब उसकी नजर उन तीन सीटों पर जा टिकी है जिनमें से दो मुलायम परिवार के पास हैं और एक गांधी परिवार के पास - मैनपुरी, आजमगढ़ और रायबरेली.

2022 के विधानसभा चुनाव में अब बीजेपी की कोशिश है कि पहले राजनीतिक विरोधियों को विधानसभा स्तर पर कमजोर किया जाये और फिर आने वाले आम चुनाव में संसदीय सीटों पर कब्जा जमाने की कोशिश हो - वैसे भी जिस तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ विपक्ष की लामबंदी की कवायद चल रही है, पश्चिम बंगाल चुनाव में शिकस्त के बाद बीजेपी का सारा जोर यूपी चुनाव पर ही है.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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