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Updated: 20 मई, 2019 01:15 PM
बिलाल एम जाफ़री
बिलाल एम जाफ़री
  @bilal.jafri.7
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17वीं लोकसभा के 7 चरणों के मतदान हो चुके हैं. Exit poll 2019 हमारे सामने हैं. और भइया एग्जिट पोल में भी सिर्फ और सिर्फ मोदी का ही जलवा कायम हैं. मतलब किसी भी कंपनी, किसी भी ब्रांड का एग्जिट पोल खोल लीजिये. लग रहा है कि जैसे पीएम मोदी ने भाजपा की विजय पताका लहरा दी है. हकीकत का तो पता नहीं मगर जिस तरह एग्जिट पोल्स में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हुआ है कई भ्रम टूट गए हैं और वास्तविकता खुलकर हमारे सामने आ गई है.

भाजपा के समर्थक इन बातों को सुनकर खुश होंगे. होना भी चाहिए. मगर ये बात विरोधियों/विपक्ष की भावना को आहत करेंगी उन्हें सिर में दर्द देंगी. सवाल पूछा जाएगा कि आखिर ऐसा कैसे? तो ऐसा है कि जवाब अली बाबा वाले दरवाजे में नहीं बल्कि इतिहास में छुपे हैं.

नरेंद्र मोदी, भाजपा, प्रधानमंत्री, लोकसभा चुनाव 2019, एग्जिट पोल    तमाम एग्जिट पोल्स से साफ हो गया है कि नरेंद्र मोदी दोबारा देश जके प्रधानमंत्री बनने वाले हैं

अब जबकि एग्जिट पोल नरेंद्र मोदी को दोबारा देश का प्रधानमंत्री बना चुके हैं. तो आइये बात करें उन मुद्दों पर जिनको लेकर हो हल्ला तो खूब मचाया गया मगर नतीजा निकला सिफर. क्‍या बेरोजगारों, बदहाल किसानों और पीडि़त दलित-मुस्लिमों के वोट दर्ज ही नहीं हुए? या फिर उनके दर्द के नाम पर सिर्फ झूठ परोसा गया?

चुनाव में बेरोजगार

चुनाव में बेरोजगार और बेरोजगारी का मुद्दा कांग्रेस ने उठाया. बाप रे! क्या-क्या शोर नहीं मचा बेरोजगारी को लेकर. मतलब इस चुनाव में बेरोजगारी इतना बड़ा मुद्दा था कि कई ऐसे मौके आए जिनमें इस सिंगल मुद्दे को डबल, ट्रिपल और मल्टिपल बनाते हुए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का गला तक बैठ गया. शहद-नींबू मिले गुनगुने पानी से गरारे कर करके अपनी आवाज़ उन्होंने सही की और कई रैलियों में जनता से सीधा संवाद करते हुए NSSO के ताजे आंकड़ों का हवाला दिया.

राहुल ने बताया कि भारत में बेरोजगारी 45 सालों के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई है. उन रैलियों में राहुल के भाषणों को सुनिए. राहुल ने इस बात को कहने के लिए चेहरे के हाव भाव कुछ ऐसे बदले कि एक बार को लगा कि इस बार भाई कुछ तूफानी कर देगा और देश के प्रधानमंत्री को धूल चटा देगा. इसके अलावा राहुल गांधी का ट्विटर.

उनका ट्विटर देखें तो मिलता है कि जैसे दुनिया के सारे बेरोजगारों के शहंशाह राहुल गांधी ही है. बेरोजगारी को लेकर जितनी रिसर्च राहुल ने अपने ट्विटर पर की है उसके आधे में हम जैसा आम आदमी पीएचडी वाला डॉक्टर बन सकता था. ये अपने आप में दिलचस्प है जिन बेरोजगारों के लिए राहुल ने खून पतला कर करके पसीना बहाया वो शायद इलेक्शन से बेजार थे और उनका वोट दर्ज ही नहीं हुआ. अच्छा हां अगर इन्होंने वोट दिया होता तो मजाल थी कि मोदी दोबारा सत्ता में आते.

पीड़ित किसान

जैसा किसानों पर राहुल गांधी का रुख रहा, जिस हिसाब से कांग्रेस ने खेती किसानी को मुद्दा बनाया एक बड़ा वर्ग है जो मान रहा बैठा किहे ईश्वर अगले जनम मोहे कुछ भी कीजो बस किसान न कीजो. सोचने वाली बात है कि जिन किसानों को लेकर राहुल गांधी और सम्पूर्ण विपक्ष ने मीलों तक की पद यात्रा की, रैली के माइक के आगे गला फाड़ा. उन किसानों ने भी इस मुद्दे पर कांग्रेस का साथ छोड़ दिया.

2014 से 2019 तक के समय का यदि गहनता से अवलोकन किया जाए तो कुछ चीजें क्लियर हैं. माना गया कि 2019 के लोकसभा चुनाव में 'किसान' निर्णायक भूमिका में रहेगा और वोटकटवा का रोल प्ले करेगा मगर अफ़सोस किसानों ने भी इस इलेक्शन अपने वोट नहीं दर्ज किये.

सच में ये कितनी गलत है कि जिन किसानों की कर्जमाफी कांग्रेस ने हालिया चुनाव में 3 राज्यों में की थी. उन्होंने इस मुश्किल वक़्त में कांग्रेस का दामन छोड़ दिया और कांग्रेस वैसे डूबी जैसे मई की दोपहरिया में किसी नहर के ठंडे पानी में काली भैंस.

दलित

2014 से 2019 इन 5 सालों के पीरियड को देखिये. इसका गहनता से अवलोकन कीजिये मिलेगा कि दलितों पर भी शोर कम नहीं हुआ है. दलितों को लेकर इन 5 सालों में खूब छाती कूटी गई. कुछ और बात करने से पहले ये बताना बेहद जरूरी है कि दलित लम्बे समय से आरक्षण की मांग कर रहे थे.

कई मौके आए जब लग रहा था कि इस बार सरकार दलितों को आरक्षण दे ही देगी. दलित समुदाय इस मामले को लेकर उम्मीद का चिराग जलाए बैठा था मगर उसके साथ धोखा हो गया. सरकार ने सवर्णों को आरक्षण दे दिया.

इस स्थिति में जनता के बीच काटो तो खून नहीं वाली स्थिति हो गई. लगा कि आरक्षण के मुद्दे पर आग बबूला देश के दलित भाजपा की विरोधी पार्टी को वोट करके सारा बदला ले लेंगे और भाजपा को बता देंगे कि हमारी नजर में पार्टी की हैसियत क्या है. अब जबकि नतीजे आने वाले हैं और शुरूआती रुझान आ चुके हैं हालात बता रहे हैं कि देश का दलित समुदाय भी ईवीएम से दूर ही रहा.

मुस्लिम

भाजपा को लेकर मुसलमानों का हाल किसी से छुपा नहीं है. देश के मुसलमान भाजपा को वैसे ही देखते हैं जैसे घर के एक्वेरियम में तैरती मछली घर में पली बिल्ली को. ईश्वर ही जानें क्या खौफ़ है मगर मुसलमान मोदी को वोट दे ही नहीं सकता. देश का मुसलमान क्यों मोदी से खार खाया बैठा है इसकी एक बड़ी वजह 2002 को माना जाता है.

2002 के बाद 2014 से लेकर 2019 तक जिस हिसाब से गया के नाम पर मुसलमाओं को लिंच किया गया. डराया गया. धमकाया गया मान लिया गया कि 2019 के आम चुनाव में कांग्रेस या फिर महागठबंधन के किसी क्षेत्रीय दल को अपना वोट देकर देश का मुसलमान मोदी से हिसाब बराबर कर लेगा.

इन सारी बातों के बाद अब जबकि एग्जिट पोल के रूप में परिणाम का एक बड़ा हिस्सा हमारे सामने हैं तो कह सकते हैं कि देश के मुसलमान ने लिंचिंग जैसी चीज को गंभीरता से लिया ही नहीं और मोदी फिर से आ गए.

तो भइया अब जबकि मोदी जीत कर हमारे सामने आ गए हैं. तो बैठे क्या हो? गाजे बाजे के साथ उनका स्वागत करो. वैसे भी ये उनका आखिरी चुनाव है. इसके बाद तो यूं भी उनके आलोचकों को बड़ी राहत मिलने वाली है. 

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लेखक

बिलाल एम जाफ़री बिलाल एम जाफ़री @bilal.jafri.7

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं.

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