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Updated: 27 अक्टूबर, 2017 01:27 PM
आर.के.सिन्हा
आर.के.सिन्हा
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दीपावली के बीत जाने के साथ ही त्योहारी मौसम के एक दौर की समाप्ति हो गई. इस मौसम में बीते वर्षों की तुलना में एक सकारात्मक बदलाव देखने में आया. वह यह था कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के चलते (समाज में जागृति की वजह से नहीं) राजधानी दिल्ली और एनसीआर में पटाखों का प्रकोप कम रहा. लेकिन कुल मिलाकर स्थितियां पहले वाली ही बनी रहीं. मिलावटी मिठाईयां धड़ल्ले से बनती भी रहीं और बिकती भी रहीं. ऊपर से हम अपनी नदियों में तरह-तरह के पदार्थों से बनीं मूर्तियों को विसर्जित करके उन्हें प्रदूर्षित करने से बाज नहीं आए. सदियों से पुआल , घास, बांस और मिट्टी से मूर्तियों को बनाने और सिर्फ़ फूल और पत्तों के सर और काढ़े (उबाले हुए रस) से ही मूर्तियों को रंगने का रिवाज था तो हमारे पूर्वज मूर्ख नहीं थे. उन्हें प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षण की चिंता थी.

पर पहले बात माननीय सुप्रीम कोर्ट के निर्देश की कर लें. मानवीय सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद ही समाज की और सरकार की नींद टूटी और राजधानी दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआऱ) में कान-फोड़ू पटाखे न के बराबर उपयोग में लाये गये. पटाखों की बिक्री करने का भी किसी ने साहस नहीं दिखाया. यानी सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को माना गया. हां, कुछ स्तरों पर अवेहलना भी हुई. लेकिन, दिवाली को प्रदूषण मुक्त बनाने के लिए ऐसे सघन प्रयास होते रहने चाहिए. मेरा तो मानना है कि सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को पूरे देश में सख़्ती से लागू करने की ज़रूरत है. देश को पटाखों से अपने मुक्त करना होगा. लेकिन, जो गरीब-गुरबा पटाखे बनाने का काम करके अपनी दो जून की रोटी कमाते हैं उनके लिए वैकल्पिक काम खोजने होंगे.

छठ, दिवाली, दुर्गा पूजा, त्योहार

सिर्फ़ दीवाली के पठाखे ही नहीं, मस्जिदों, मंदिरों, गुरुद्वारों, चर्चों और सभी ऐसे सार्वजनिक स्थानों से ध्वनिविस्तारक यंत्रों को हटायें जाने की ज़रूरत है, जहां इसकी ज़रूरत ही नहीं है. बच्चों के इम्तिहान हैं और मुल्ला अजान दे रहा है या घड़ी-घंटों को बजाकर आरती हो रही है और जो नमाज़ पढ़ने और आरती करने में दिलचस्पी नहीं रखता उसे भी लउडस्पीकरों के माध्यम से ज़बरदस्ती जगाया जा रहा है तो यह नागरिकों की स्वतंत्रता का हनन नहीं है तो क्या है? यही स्थिति सड़क पर वाहनों के सायरन और जलवा हार्न बजाने से हो रही है. सायरन या हार्न ध्यान आकर्षित करने के लिए होने चाहिए. लेकिन, बच्चों और बूढ़ों के कान फाड़ने के लिए हर्गिज नहीं. ध्वनि प्रदूषण को जल प्रदूषण या कचरा प्रदूषण से कम नहीं माना जाना चाहिए. जैविक कचरा तो नष्ट या खाद या गैस में परिवर्तित किया जा सकता है, परन्तु, ध्वनि नहीं! वह तो वातावरण में सदैव बना रहेगा और वातावरण को बोझिल कर प्रदूषण फैलाता ही रहेगा.

दुर्भाग्यवश, इस त्योहारी मौसम के दौरान भी देश नदियां प्रदूषित होती रहीं आस्था के नाम पर. और सेहत को चौपट करने वाली मिठाइयां भी बिकती ही रहीं. इस तरफ किसी ने गौर न पहले किया और न बाद में. यानी आज़ादी के बाद के सत्तर सालों में सरकारी स्तर पर पहले से न तो कोई जागरूकता फैलाई गई कि नदियों और शहरों गांवों को और मैला ना किया जाए, न ही किसी प्रकार के दंड के प्रावधान किए गये. इसी तरह मिलावटी मिठाई या खाद्यान्न बेचने वालों पर भी कोई चाबुक नहीं चली.

दूरी मिठाई से...

आप जानते हैं कि हमारे समस्त धार्मिक और पारिवारिक अनुष्ठानों पर मिठाई अनिवार्य है. उसका ऐतिहासिक और शुद्ध वैज्ञानिक कारण भी है. त्योहारों के अवसर पर लोग सुदूर गांवों में बसे अपने सम्बंधियों से मिलने-जुलने और बधाईयां देने जाते थे. मीलों खेत-खलिहानों में पैदल चलकर पहुँचते थे. थके मांदे मेहमानों की खातिरदारी में सबसे पहले गुड और मिट्टी के घड़े का ठंडा पानी पेश किया जाता था जिसका स्वरूप अब बदलकर काजू या बादाम कतली या लड्डू और फ्रिज में रखे चिल्ड मिनरलवीटर की बोतल ने ले लिया है. यह अकारण नहीं किया जाता था. मीलों पैदल चलने के कारण उन्हें भयंकर थकान महसूस होती थी जिसे कि आज के शब्दों में "शुगर फ़ॉल " होना भी कहते हैं. लेकिन, अब तो सड़कों और यातायात के साधनों ने लोगों को पैदल चलने से मुक्ति दिला दी है और नतीजतन लगभग एक चौथाई वयस्क डाइबिटीज के शिकार हो गये हैं. अब ज़रूरत मिठाई की नहीं दवाई की हो गई है. लेकिन, फिर भी लोग- बाग़ अब भी दीपावली पर, लक्ष्मी पूजन और भाई दूज के अवसर पर घर में उपयोग के लिए और मित्रों-संबंधियों को उपहार में दी जाने वाली मिठाई को खरीदते हुए हिचक तक नहीं रहे. लेकिन, असलियत तो यह है कि दीपावली पर बिकने वाली लगभग सारी मिठाइयां सेहत को बिगाड़ने की ही गारंटी देती हैं. इस त्योहारी सीजन में बाजार में दूषित दूध और मावे की मात्रा अचानक बढ़ गई, क्योंकि, मिठाइयों की मांग और आपूर्ति में बड़ा अंतर पैदा हुआ.

छठ, दिवाली, दुर्गा पूजा, त्योहार

आबादी बढ़ने के कारण यह स्वाभाविक ही था. यह सरकार भी जान रही थी कि इतना मावा और पनीर आया कहां से जो कि देश में दुग्ध उत्पादन क्षमता तले काफी अधिक था. इसके बावजूद इस बार भी यह सुनिश्चित नहीं किया गया कि देश को शुद्ध मिठाईयां मिल सकें. हिन्दुस्तानी तो मूलत: और अंतत: मिष्ठान प्रेमी ही हैं. तो क्या रोज़ ही " चलो कुछ मीठा हो जाये" कहने वाले अब दीपावली पर भी मिष्ठान न खाएं? मिष्ठान हर भारतीय की कमजोरी है. एक इस तरह की कमजोरी जिससे किसी को हानि नहीं होती यदि शुद्धत्ता बरती जाये. लेकिन, इस बार भी कोई सुधार नहीं दिखाई दिया. हर एक तरफ अधिकतर मिलावटी मिठाइयां ही मिलीं और धड़ल्ले से बिकीं. मिलावटी मावे और दूध में सबसे ज्यादा खतरनाक कास्टिक सोडा और यूरिया की बड़ी मात्रा मे मिलावट होती है. इस तरह के मावे या दूध से बनीं मिठाइयों के सेवन से उल्टियां या पेचिश हो सकती है. इन मिठाइयों के सेवन से शरीर को दीर्घकालिक नुकसान भी तो होता ही है. बेशक, अगर मिठाई अत्यधिक मिलावटी है तो उसमें कास्टिक सोडा और यूरिया की मात्रा भी ज्यादा होगी. इससे गुर्दे से रक्तस्राव होने का खतरा बढ़ जाता है. दूषित पदार्थ से बनी मिठाई से शरीर पर कितना असर होगा यह इस पर निर्भर करता है कि आप कितनी मात्रा में मिठाई का सेवन करते हैं. यानी दीपावली पर मिठाई खाना आफत हो गया है. इसलिए बहुत से लोग सांकेतिक रूप से ही मिठाई का सेवन करते रहे.

नाश नदियों का...

और अगर बात दीपावली से पहले गणेशोत्सव, दुर्गा पूजा और फिर काली पूजा की करें तो लगता है कि हमारा समाज ही अपनी नदियों को साफ-निर्मल रखने को लेकर गंभीर नहीं है. इस बार भी गणेशोत्सव, दुर्गा पूजा और काली पूजा के बाद देशभर में प्रतिमाएं नदियों में ही विसर्जित होती रहीं. मानों नदियों की सफाई को लेकर किसी के मन में संवेदना ही न बची हो. निश्चित रूप से हम अपने को बदलेंगे नहीं तो फिर हमें अपनी नदियों की गंदगी और उनके प्रदूषित होने वाले को पर्यावरण पर बोलने का अधिकार ही क्या है? हां, महाराष्ट्र में कुछेक गणेशोत्सव समितियों ने ही गणेश की ईको फ्रेंडली प्रतिमाएं बनाईं. ईकोफ्रेंडली गणेश प्रतिमाओं की ख़ासियत यह थी कि इन्हें नारियल और सुपारी के रेशों और छिलकों से तैयार किया गया था. इन प्रतिमाओं में शुद्ध रूप से मिट्टी, गोंद और हर्बल रंगों का ही उपयोग किया गया. ये कौन नहीं जानता कि हर साल दुर्गा पूजा के अंत में करीब 20 हजार मां दुर्गा की मूर्तियां अकेले हुगली नदी में विसर्जित की जाती हैं. इसके चलते नदी में करीब 17 टन वार्निश और बड़ी मात्रा में जानलेवा रासायनिक रंग हुगली के जल में मिलता है. इन रंगों में मैगनीज, सीसा, क्रोमियम जैसे धातु मिले होते हैं. दुर्गा पूजा के बाद हुगली में तेल मोबिल और ग्रीस की मात्रा में भारी इजाफा हो जाता है. सारे देश में तो एक लाख से अधिक मूर्तियां त्योहारी सीजन में विसर्जित होती हैं.

छठ, दिवाली, दुर्गा पूजा, त्योहार इतनी मूर्तियों के नदियों में जाने से उनके साथ हम कितना अन्याय कर रहे हैं. देखिए दोनों बातें एक साथ नहीं चल सकती. एक तरफ हम नदियों को साफ करने का संकल्प लें, दूसरी ओर इन्हें भांति-भांति तरीकों से गंदा करें.

रस्मी मांग...

नदियों-समुद्र में मूर्ति विसर्जन की परम्परा पर विराम लगाने की रस्मीतौर पर बरसों से पुरजोर मांग हो रही है. पर कोई नहीं जानता कि इस मांग से कब भारतीय समाज अपने को जोड़ेगा. बहरहाल, दीपावली को मनाने के साथ ही पर्वों का मौसम समाप्त हो गया. लेकिन, हम पहले की तरह ही रहे. अपनी नदियों को प्रदूषित करते रहे. फटाफट पैसा कमाने के फेर में अनेक हलवाई मिलावटी मिठाई बेचते रहे. हां, सुप्रीम कोर्ट के डंडे के बाद पटाखे कुछ जगहों पर लगभग नहीं चले. लेकिन इतने भर से तो बात नहीं बनेगी? हमें अपने को सुधारना होगा. अपने पर्वों को शुद्ध तरीके से मनाना होगा.

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लेखक

आर.के.सिन्हा आर.के.सिन्हा @rksinha.official

लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं.

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