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Updated: 19 अक्टूबर, 2022 11:49 AM
निधिकान्त पाण्डेय
निधिकान्त पाण्डेय
  @1nidhikant
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दिवाली पर एक दिया बड़ी शान से रोशनी बिखेर रहा था कि तभी एक पटाखे की सुतली उसकी ओर बढ़ी, तो दिया बोल उठा- ऐ पटाखे! क्या हैं तेरे इरादे? पटाखा भी इतराया, पल भर की ज़िंदगी पर ज्ञान देना चाहता था लेकिन जवाब दिया- इरादे? बस वही जो हर बार करता हूं, तुझसे लेकर आग खुद को खाक करता हूं. एक बार फिर जल जाना चाहता हूं, अपनी चमक और धमक से बच्चों और बड़ों को खुश कर देना चाहता हूं. दिये ने अपनी ओर बढ़ते पटाखे को एक बार फिर रोका और बोला- आज हम सबको अपनी कहानी तो सुना दो.

Diwali, Festival, Crackers, Court, Pollution, Shree Ram, Ravan, Ayodhya, Banतमाम लोग हैं जो सवाल करते हैं कि हर साल दिवाली में आतिशबाजी का औचित्य क्या है

क्या है तुम्हारा इतिहास बता दो

इतना सुनकर पटाखा थोड़ा मायूस हो गया, दार्शनिक होकर शेरो-शायरी करने लगा-

बनना है, बिकना है और जल जाना है

अपनी ज़िंदगी का बस इतना फ़साना है

चलिये, फिर भी कुछ बताने की कोशिश करता हूं. मैं पटाखा हूं, जिस परिष्कृत यानी refined रूप में आप मुझे अब देख रहे हैं ये हाल तो सुप्रीम कोर्ट के बैन और पर्यावरण के कुछ जानकारों के ज्ञान-विज्ञान के बाद हुआ है. हालांकि अब भी कई जगहों पर आप मुझे पुराने स्वरूप में देख सकते हैं लेकिन किसी को बताइएगा मत.

खैर, ये तो हुई मजाक की बात, लेकिन जैसा कि पहले बताया, बनना है, बिकना है तो आपको बता दें कि भारत में पटाखे बनाने वाली पहली फैक्ट्री 19वीं सदी में कोलकाता में शुरू हुई थी. आजादी के बाद तमिलनाडु का शिवाकाशी पटाखों का बड़ा हब साबित हुआ. शिवाकाशी की पटाखा इंडस्ट्री से करीब 6.5 लाख परिवार जुड़े हुए हैं और सोचिए कि कोरोना से पहले यहां की पटाखा इंडस्ट्री हर साल करीब 6,000 करोड़ रुपये का कारोबार करती थी.

भारत में आतिशबाजी का इतिहास पुराना है. भारत जब आजाद हुआ था तब भी तो जोरदार आतिशबाजी हुई थी. तब मेरे दादा-परदादाओं ने आकाश में रंग और फुलझड़ियां बिखेरी थीं, आवाज से वातावरण को गुंजाया था, तब दिये मेरे दोस्त, तुम्हारे पूर्वजों ने भी तो नए भारत के स्वागत में दिये की लड़ियों से पूरा समां रोशन कर दिया था.अब चाहे आजादी का अमृत महोत्सव मनाना हो या किसी बड़े मैच में इंडिया की जीत हो, हमारे-तुम्हारे बिना पूरा नहीं होता.

चलो, फिर से हमारे यानी पटाखों के इतिहास की बात कर ली जाए. इतिहासकार सतीश चंद्र अपनी किताब 'Medieval India: From the Sultanate to the Mughals' में लिखते हैं कि 1609 में बीजापुर के सुल्तान इब्राहिम आदिल शाह के दरबारी की बेटी की शादी उनके शाही सेनापति मलिक अंबर के बेटे से हुई. इस शादी में सुल्तान ने 80,000 रुपये सिर्फ आतिशबाजी पर खर्च किए थे.कुछ लोग कहते हैं कि भारत में बारूद तब आया जब 1526 में काबुल के सुल्तान बाबर ने दिल्ली के सुल्तान पर हमला किया और उसकी बारूदी तोपों ने कहर बरपाया.

लेकिन दिवंगत इतिहासकार पीके गौड़ अपनी किताब 'History of Fireworks in India between 1400 and 1900' में लिखते हैं कि 14वीं सदी में बारूद के आविष्कार के बाद भारत में पटाखों का इस्तेमाल आम हो गया होगा. इस किताब में पीके गौड़ एक किस्सा भी बताते हैं. वो एक पुर्तगाली यात्री दुआर्ते बार्बोसा के हवाले से लिखते हैं कि 1518 में गुजरात में एक ब्राह्मण परिवार की शादी में जबरदस्त आतिशबाजी की गई थी. ये बताता है कि उस दौर में पटाखों का इस्तेमाल किस हद तक हुआ करता था.

अब दिये से रहा नहीं गया, उसने सवाल पूछ ही लिया- फिर तो बाबर के आने से पहले भी भारत में आतिशबाजी होती थी तो क्या भारत में पटाखों का जन्म हुआ?

पटाखा भी लगता है जैसे इतिहास के बारे में कुछ पढ़कर आया हुआ था, बोला- ऐसा कहा जाता है कि चीन ने छठी या सातवीं सदी में ही पोटेशियम नाइट्रेट और सल्फर मिलाकर बारूद बना लिया था. पटाखे भी इसकी ही देन हैं.

दिया चीखा- तो क्या पटाखे चीन की देन हैं? क्या तभी कुछ साल पहले तक हमारे देश में चीनी पटाखे खूब मिलते थे और सस्ते मिलते थे जिनमें हानिकारक केमिकल्स हुआ करते थे और इसीलिए हमारी सरकार ने उनको बैन कर दिया?

पटाखा बोला- देखो मैं बहुत ज्यादा तो नहीं जानता लेकिन ऐसा मालूम होता है कि भारत में भी पटाखों का इतिहास बहुत पुराना है. चाणक्य के अर्थशास्त्र में भी एक ऐसे चूर्ण का उल्लेख मिलता है जो तेजी से जलता था, तेज लपटें पैदा करता था और अगर उसे किसी नलिका में भर दिया जाए तो उसमें हल्का विस्फोट भी होता था. कहा तो ये भी जाता है जब रावण का वध करके श्रीराम अयोध्या लौटे थे तब अयोध्यावासियों ने दिवाली मनाई थी जिसमें दिए भी जलाए थे और आतिशबाजी भी की थी.

अब ये तुम तय करो और दर्शक कि मैं कहां से आया लेकिन एक बात तो जरूर है कि मैं भी रावण की तरह कभी खत्म नहीं होता. कभी जमीन-चक्कर तो कभी अनार, कभी फुलझड़ी तो कभी बम के रूप में आता ही रहता हूं. लगता है ज्ञान काफी भारी हो गया, अब मुझे जलने दो और चलने दो. 

लेखक

निधिकान्त पाण्डेय निधिकान्त पाण्डेय @1nidhikant

लेखक आजतक डिजिटल में पत्रकार हैं.

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