नानेरा के जरिये राजस्थानी सिनेमा को नजर का टीका लग चुका है...
फिप्रेसी की इस साल 2023 की लिस्ट में ‘नानेरा’ ने ‘कांतारा’, ‘आरआरआर’ जैसी चर्चित फिल्मों को पीछे छोड़ एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है. नानेरा जिस तरह की फिल्म है माना जा रहा है कि इसके जरिये लोगों को राजस्थानी संस्कृति को और करीब से समझने का मौका मिलेगा.
-
Total Shares
राजस्थानी फिल्म नानेरा फिप्रेसी की लिस्ट में इस साल टॉप टेन में अपनी जगह बना चुकी है. फिप्रेसी की इस साल 2023 की लिस्ट में 'नानेरा' ने ‘कांतारा’, ‘आरआरआर’ जैसी चर्चित फिल्मों को पीछे छोड़ यह नाम कमाया है. पिछले करीब एक साल से फिल्म फेस्टिवल्स में दिखाई जा रही ‘दीपांकर प्रकाश’ निर्देशित फिल्म ‘नानेरा’ अब तक दर्जन भर प्रतिष्ठित फिल्म समारोहों में कई कैटेगरी में अवार्ड बटोर चुकी है. बेस्ट डायरेक्टर, बेस्ट एक्टर, बेस्ट स्क्रिप्ट सहित कई अवार्ड इस फिल्म की झोली में आये हैं. ‘कोलकाता इन्टरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’ में बेस्ट डायरेक्टर का अवार्ड अपने नाम कर चुकी यह फिल्म इस साल फिप्रेसी की लिस्ट में शीर्ष की बेस्ट दस फिल्मों में जगह बनाने में कामयाब हुई है. एक प्रेस कांफ्रेंस में इस फिल्म के निर्देशक दीपांकर प्रकाश ने जानकारी देते हुए यह बताया कि ‘नानेरा’ फिल्म उनके ड्रीम प्रोजेक्टस में से एक है और इस फिल्म ने इस साल जारी हुई फिप्रेसी की लिस्ट में टॉप टेन में जगह बनाई है. उन्होंने कहा कि यह हमारे लिए ही नहीं बल्कि पूरे राजस्थान और सिनेमा जगत के लिए गर्व का क्षण है. साथ ही उन्होंने बताया कि यह फिल्म साल 2023 के अंत तक रिलीज होने की सम्भावना है.
राजस्थानी फिल्म नानेरा ने जो कर के दिखाया है उसकी उम्मीद शायद ही किसी को रही हो
बताता चलूं कि फिप्रेसी दुनियाभर के 50 देशों के पेशेवर फिल्म समीक्षकों और फिल्म पत्रकारों के राष्ट्रीय संगठन का एक संघ है. 6 जून 1930 को इसकी स्थापना बेल्जियम के ब्रसेल्स शहर में हुई थी. ‘इन्टरनेशनल फेडरेशन ऑफ़ फिल्म क्रिटिक्स’ यानी फिप्रेसी फिल्म संस्कृति के प्रचार-प्रसार और विकास तथा पेशेवर हितों की सुरक्षा के लिए बनाई गई थी. आज वर्तमान में 50 से ज्यादा देश इस संस्था के सदस्य है.
बता दें कि ‘नानेरा’ फिल्म की कहानी राजस्थानी सिनेमा के अब तक के इतिहास में ही नहीं बल्कि पूरे भारतीय सिनेमा के इतिहास में नये किस्म की है. कहानी है एक लड़के मनीष की जिसके पिता के गुजर जाने पर वह अपनी माँ और दादी के साथ नानी के घर यानी ‘नानेरा’ आता है. उसके मामा उसके जीवन से जुड़े फैसले लेने लगते हैं. यहां वह अजीबोगरीब हालात में फंसने लगता है. इसी बीच उसके परिवार में एक और मौत होती है. मौत और प्रेम संबंधों के बीच फंसा हुआ मनीष और उसकी मानसिक स्थितियों को फिल्म निर्देशक दीपांकर ने पर्दे पर उकेरा है.
‘नानेरा’ फिल्म अब तक ‘जयपुर इन्टरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’, ‘औरंगाबाद इन्टरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’, ‘नेपाल इन्टरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’, ‘इमेजिन इंडिया इन्टरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’, ‘इन्टरनेशनल फिल्म फेस्टिवल थ्रिस्सुर’, ‘ओटावा इंडियन फिल्म फेस्टिवल’, और ‘कोलकाता इन्टरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’ आदि में दिखाई जा चुकी है. फिल्म के एडिटर और असोसिएट डायरेक्टर ‘मयूर तेला’ ने बताया कि हमारा सफ़र साल 2021 में शुरू हुआ. जिसमें शुरू में हमने डिज्नी हॉट स्टार के लिए ‘क्राइम नेक्स्ट डोर’ बनाई. उसके बाद बहुत सी कहानियों पर चर्चा हुई लेकिन ‘नानेरा’ उनमें एक ऐसी कहानी थी जो सभी को पसंद आई.
अब तक दक्षिण भारत से लेकर नेपाल तथा बाहर के कुछ देशों तक में भी यह फिल्म सराही गई है, वहां भी सबने इस फिल्म से जुड़ाव महसूस किया. अभी फिल्म फेस्टिवल की राह पर इसे चला रहे हैं. उन्होंने आगे कहा कि इस फिल्म में बिना वजह से तामझाम नहीं है पूरी वास्तविकता के साथ यह अपने को जीती है. ऐसी फिल्मों को बनाने के लिए बहुत हिम्मत चाहिए होती है. ऐसे किस्से आम घरों में होते रहते हैं जिन पर पर्दा डाला जाता है उन्हीं पर्दों को हमने सबने मिलकर उठाने की कोशिश की है.
पहले ही फेस्टिवल में इस फिल्म को ‘ओईफा’ कैनेडा में ‘बेस्ट स्क्रिप्ट’ का अवार्ड मिला था. मयूर ने कहा कि कोलकाता जैसे फेमस फेस्टिवल में जहाँ रीमा दास सरीखे फिल्म मेकर्स की फ़िल्में आती हैं या कई-कई बार नेशनल अवार्ड जीत चुके मेकर्स की फ़िल्में आती है वहां भी इसने अवार्ड जीते. बेस्ट डायरेक्टर का अवार्ड इसे जब वहां मिला तो इसकी उम्मीद नहीं थी लेकिन यह हमारे ही नहीं बल्कि पूरे राजस्थान के लिए गर्व की बात है कि इसने वह कर दिखाया जो आज तक राजस्थानी सिनेमा के इतिहास में नहीं हुआ. पूरी फिल्म में साउंड डिजाइन के अलावा सारा काम भी जयपुर में ही किया गया है.
ध्यान रहे कि राजस्थानी सिनेमा के इतिहास की पहली फिल्म साल 1942 में ‘नजराना’ नाम से प्रदर्शित हुई थी. लेकिन फिल्म इतिहासकार उसे पहली राजस्थानी फिल्म का दर्जा इसलिए नहीं देते क्योंकि एक तो वह मारवाड़ी फिल्म थी दूसरा उस समय तक राजस्थान प्रदेश ही अस्तित्व में नहीं आया था. एक और तर्क इसके पीछे सिनेमा के इतिहासकारों का यह मिलता है कि उस समय तक ब्रिटिश साम्राज्य का कब्जा था और सीबीएफसी (केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड) भी अस्तित्व में नहीं आया था. इस तरह ‘बाबासा री लाडली’ साल 1961 में आई और तभी से राजस्थानी सिनेमा यानी ‘राजीवुड’ का जन्म हुआ.
वहीं चर्चित राजस्थानी, हिंदी फिल्म निर्माता, निर्देशक ‘गजेन्द्र श्रोत्रिय’ राजस्थानी फिल्मों को लेकर कहते हैं कि राजस्थानी फिल्मों का एक दौर रहा है जो खो सा गया लगता है. अब वापस वह अपने मुकाम को पाने की कोशिश में लगा है. दूसरे क्षेत्रों के सिनेमा से तुलना करते हुए गजेन्द्र कहते हैं कि मराठी आदि के सामने तो राजस्थानी सिनेमा कहीं नहीं ठहरता इसके उल्ट गुजराती, पंजाबी सिनेमा फिर भी काफी आगे तक बढ़ा है. लेकिन राजस्थान में अभी भी कुछ सूखा सा ही नजर आता है सिनेमा के मामले में. संजीदा फिल्मकार यहाँ कम है.
फार्मूला फ़िल्में यहां के हिसाब से बनती भी हैं तो उन्हें उतने दर्शक नहीं मिल पाते. बॉलीवुड की नकल करने की कोशिश करते हुए भी नजर आते हैं कुछ लोग, बावजूद उसके वे सफल नहीं हो पा रहे. पिछले कुछ सालों में अच्छे प्रयास भी हुए हैं. जैसलमेर के ‘अनूप’ की फिल्म ‘सॉन्गऑफ़ स्कोर्पियो, ‘इरफ़ान खान’ की आखरी फिल्म की भाषा भी राजस्थानी है उसका जिक्र भी होना चाहिए. शायद यह मीडिया को भी नहीं पता कि ऐसी कोई राजस्थानी फिल्म आई है. यूं तो ‘अनूप सिंह’ बॉलीवुड के फिल्मकार हैं लेकिन राजस्थान की भाषा चुनी उन्होंने.
इसी तरह ‘दीपांकर प्रकाश’ की फिल्म ‘नानेरा’ भी अच्छा प्रदर्शन कर रही है फिल्म फेस्टिवल्स में. इसमें मैंने भी एक छोटी सी भूमिका की है. दीपांकर अच्छी सिनेमाई सोच वाले फिल्मकार हैं. सिनेमा को लेकर संजीदा नजर आते हैं. इतना सब होकर भी यह सिनेमाई सूखा कम नहीं हो पा रहा बल्कि वो अच्छे प्रयास बारिश की शुरूआती बूँद के समान उड़ जाते हैं. ज़रूरी है उन प्रयासों का जिक्र होना. ‘टर्टल’ फिल्म ने भी नेशनल अवार्ड जीता किन्तु ना तो कोई मीडिया इस भाषा की फिल्मों को लेकर बात करते हैं ना ही सरकार के प्रयास सफल होते नजर आते हैं.
सरकारों की तो जैसे प्रमुखता ही नहीं है सिनेमा को लेकर. राजस्थानी सिनेमा को लंबा सफर करना बाकी है ‘नानेरा’ जैसी फ़िल्में आती रहेंगीं तो जरूर यह सफर आसान हो पायेगा. इसी तरह ‘स्टेज ओटीटी’ भी कुछ प्रयास करता नजर आ रहा है लेकिन इन सभी में स्तरीयता का होना बहुत जरुरी है. इस फिल्म के कलाकार ‘रमन मोहन कृष्णात्रेय’ कहते हैं ऐसी फिल्मों को बनाना निर्माता, निर्देशक के लिए रिक्स तो है लेकिन वह दर्शकों को भाने लगे, उन्हें संदेश दे तो यह अच्छी बात होती है. ऐसे मुद्दे उठाना, सार्थक सिनेमा बनाना साधुवाद का काम है.
‘नानेरा’ भी ढूढांड़ी भाषा में राजस्थान के कल्चर को दिखाती है. राजस्थान का सिनेमा जो अपने स्वरूप को खोता सा जा रहा है उसमें दीपांकर ने इस फिल्म से सहज तरीके से जीवन के रंगों को दिखाया है. हमें पूरा विश्वास है कि यह फिल्म अभी और लंबा सफर करेगी, अलग मुकाम बनाएगी. भाषा के बंधनों को तोड़ते हुए इस फिल्म ने एक बहुत बड़ी लकीर खींची है. बता दूं कि आज तक के राजस्थान के सिनेमाई इतिहास में एकमात्र ‘दिनेश यादव’ की फिल्म ‘टर्टल’ ही नेशनल अवार्ड जीत पाई है.
इससे पहले कई चर्चित फिल्मों ने रिकार्ड तोड़ इतिहास कमाई के मामले में बनाये हैं. जिनमें ‘बाई चाली सासरिये’ जैसी फ़िल्में प्रमुख है. आज के ओटीटी प्लेटफार्म के दौर में और राजस्थानी सिनेमा में पड़ चुके सूखे में ‘नानेरा’ किस तरह कमाई कर पाएगी यह तो इसकी रिलीज के बाद ही पता चलेगा. किन्तु रिलीज से पहले ही इसने जो इतिहास गढ़ा है उससे इतना तो तय है कि राजस्थानी सिनेमा को नजर-ए-बद से बचाने के लिए नजर का टीका जरूर लग चुका है.
फिल्म में लीड रोल कर रहे संचय गोस्वामी कहते हैं कि नानेरा मेरे लिये एक ऐसी फ़िल्म है जिसे मैं हर तरफ़ से देखूं तो मुझे ज़िंदगी का आईना ही देखने को मिलता है, जिसमें कुछ भी बनावटी नहीं है, बस जो है वो आप के सामने है और ऐसी आसान सी दिखने वाली आर्ट असल में बहुत मुश्किल होती है. उसके लिये आपको बहुत सच बोलना, देखना और सोचना पड़ता है और उसी ईमानदारी से हर व्यक्ति ने इस फ़िल्म में योगदान दिया है.
ये फ़िल्म ख़ुद मेरे लिए एक अवार्ड ही है जिसने मुझे बहुत कुछ सिखाया है. ख़ुशी होती है जब आपकी कोई फ़िल्म राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय स्तर की जनता तक पहुँचती है. मैंने दर्शकों को इस फ़िल्म के साथ जीते हुए देखा है, फिर चाहे वे किसी भी देश, भाषा या संस्कृति से संबंध रखते हों यह मेरे लिये सबसे बड़ा पुरुस्कार है. हम यही चाहते हैं कि ये फ़िल्म ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँचे और हमारे जैसे इंडिपेंडेंट फ़िल्मकारों को प्रेरणा मिले ऐसे और जोखिम उठाने की.
आपकी राय