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Updated: 29 अप्रिल, 2020 07:30 PM
अनु रॉय
अनु रॉय
  @anu.roy.31
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चिट्ठियां रह जाती हैं लिखने वाले चले जाते हैं. काश जाने से पहले एक और चिट्ठी लिख पाते इरफ़ान. काश कि पिछली चिट्ठी और इस नयी चिट्ठी लिखने के बीच जितना वक़्त पिछली बार उन्हें ज़िंदगी ने दिया, उतना ही इस बार भी दे दिया होता.

'मुझे ऐसा लगा कि मैं एक तेज़ रफ़्तार ट्रेन से सफ़र कर रहा था. अपने में मग्न, सपने को बुनते हुए, ज़िंदगी को अपने अन्दाज़ से जीते हुए चला जा रहा था कि अचानक टी टी आया और मेरे कंधे को थपथपाते हुए कहा.

सुनो तुम्हारा स्टेशन आ गया है. अब तुम्हें उतरना होगा. मैंने कहा, नहीं-नहीं. मैं नहीं उतर सकता. अभी मेरा सफ़र पूरा नहीं हुआ है. उसने फिर कहा - नहीं न! तुम्हारा सफ़र पूरा हो चुका है. अब आगे आने वाली किसी भी स्टेशन पर तुम्हें उतरना होगा.

और फिर मुझे लगा कि हम सब सोचते कुछ और है और हो कुछ और जाता है. हम समझते हैं कि ज़िंदगी के हर फ़ैसले पर क़ाबू है हमारा मगर वो महज़ एक भूल होती है हमारी.

हम सिर्फ़ सफ़र कर रहे होते हैं. हम मुसाफ़िर हैं और हमारे बस में सिर्फ़ इतना है कि हम ज़िंदगी की पिच पर हार न मानें,'

Irrfan Khan, Death, Irrfan Khan Death, Memoireइरफ़ान खान उन चुनिंदा अभिनेताओं में थे जिन्हें पर्दे पर देखने मात्र से ही दर्शकों की सांसें थम जाती थीं

इरफ़ान ने लंदन से ये चिट्ठी 2018 में अपने इलाज के दौरान लिखी थी और अभी टी॰वी॰ पर ब्रेकिंग न्यूज़ में दिख रहा है कि इरफ़ान नहीं रहें. मन मानने को तैयार नहीं हो रहा. लग रहा कि कोई फ़ेक ख़बर हो जिसे अभी कोई आ कर कह देगा कि ये ख़बर झूठी है. इरफ़ान ज़िंदा हैं.

मेरे लिए इरफ़ान साहेब सिर्फ़ हीरो नहीं हैं. मेरी ज़िंदगी के स्कूल के मास्टर हैं वो. उन्हें पर्दे पर हर बार देखना किसी जादू वाली दुनिया में जाने सरीखा है. वैसे जब मैंने उनकी पहली फ़िल्म देखी तब स्कूल में थी और फ़िल्म का नाम था ‘रोग’. छोटी थी और न फ़िल्मों को लेकर कोई नॉलेज तो फ़िल्म अच्छी नहीं लगी मगर उसका गाना,

मैंने दिल से कहा ढूंढ लाना ख़ुशी

वो लाया ग़म तो ग़म ही सही!

पता नहीं क्यों उतर गया मन में और साथ में क्रश जैसा कुछ फ़ील हुआ उन उदास आंखों के लिए. हां, मुझे इरफ़ान की आंखें उदास लगती हैं. उनकी आंखों को देख कर ऐसा लगता है कि उनकी वो आंखें कितनी अधूरी कहानियों का घर थीं.अब भी मन मानने को तैयार नहीं हो रहा कि ये आंखें हमारे बीच नहीं हैं.

अभी पिछले सप्ताह ही अंग्रेज़ी मीडियम फ़िल्म देखी और उसे देखते हुए अलग सकून सा लगा. ये सकून इसलिए लगा क्योंकि महबूब सितारा एक लम्बी बीमारी वाली लड़ाई के बाद वापस लौटा था. पूरी फ़िल्म में इरफ़ान के चेहरे और उसकी रंगत को गौर से देखती रही. मैं शायद ख़ुद को तसल्ली देना चाहती थी कि वो अब बिलकुल ठीक हो चुके हैं.

उन्हें अब कुछ भी नहीं हो सकता. लेकिन जो हम सोच लें वही हो जाए तो फिर ज़िंदगी में किसी काश के लिए जगह ही नहीं बचेगी. मैंने कल जब उनके हॉस्पिटल में भर्ती होने की ख़बर पढ़ी तो लगा कि यूं ही ट्यूमर के रेगुलर चेक-अप के लिए गए होंगे. ठीक हो कर घर लौट आएंगे. क्या पता था कि वो घर से हॉस्पिटल का सफ़र आख़िरी सफ़र था उनका. भला 53 की उम्र में कौन चला जाता है. इतनी भी क्या जल्दी थी.

वो कहते हैं न ख़ुदा अपने सबसे प्यारे बंदे को अपने पास सबसे जल्दी बुला लेता है, शायद इरफ़ान ख़ुदा के भी उतने ही अज़ीज़ रहे होंगे. तभी तो रमज़ान के इस पवित्र महीने में उसे अपने घर ले गए.

कितना कुछ कहना चाहती हूं, कितना कुछ लिखना चाह रही लेकिन मुझे मेरे लैप्टॉप की स्क्रीन धुंधली दिख रही. आंखों की नमी शायद बढ़ने लगी है. इस पल में मुझे इरफ़ान साहेब के दोनों बच्चों का चेहरा याद आ रहा. दुनिया ने तो अपना सितारा खोया है लेकिन उन्होंने अपना पिता. पिता का साया सिर से उठ जाना ज़िंदगी से सारे मुलायम लम्हों का खो जाना है.

इसी पल में उनकी पत्नी सुतापा की बेनूर आंखें दिख रही जिन आंखों को अब कभी उसका नूर नहीं दिखेगा. कितनी बेरंग हो गयी उनकी ज़िंदगी. मुझे इरफ़ान का वो इंटरव्यू याद आ रहा जिसमें उन्होंने कहा था कि अगर ज़िंदगी मौक़ा देगी तो पत्नी के लिए जीना चाहूंगा.

मन कर रहा है कि कह दूं कि ख़ुदा बेरहम हैं लेकिन फिर सकून का कोना भी तो सुतापा को वही देगा. साथ ही उनके बच्चों और उनके सभी चाहने वालों को. दुआएं क़बूल हों. प्यार और सिर्फ़ प्यार मेरे महबूब सितारे तुम्हारे लिए.

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लेखक

अनु रॉय अनु रॉय @anu.roy.31

लेखक स्वतंत्र टिप्‍पणीकार हैं, और महिला-बाल अधिकारों के लिए काम करती हैं.

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