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Updated: 25 मई, 2018 01:04 PM
सिद्धार्थ हुसैन
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  @siddharth.hussain
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फिल्म के हीरो जॉन अब्राहम हों तो उम्मीद यही होती है कि फिल्म में जोरदार एक्शन और ड्रामा होगा, मगर जॉन की पिछली फिल्मों की तुलना में फिल्म 'परमाणु' काफी अलग है, या कह सकते हैं बेहतर है. निर्देशक शुजीत सरकार के साथ 'मद्रास कैफे' बनाने के बाद निर्देशक अभिषेक शर्मा के साथ ये फिल्म जॉन की एक बेहतर कोशिश है.

parmanu'परमाणु' में आईएएस का किरदार निभा रहे हैं जॉन एब्राहम

हालांकि फिल्म में कुछ ऐसे मौक हैं जहां लगता है कि घिसीपिटी हिंदी फिल्मों के कुछ पल इसमें भी दिखते हैं, लेकिन बावजूद चंद खामियों के फिल्म उत्सुक्ता बनाए रखती है कि आखिर हुआ क्या था. जिसकी सबसे अहम वजह ये है कि ये फिल्म सच्ची घटनाओं से प्रेरित है, जिस वजह से कई चीज़ें हजम हो जाती हैं कि आखिर ये सब सच में हुआ था.

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फिल्म की कहानी है 1998 में कैसे भारत ने दूसरी बार न्यूक्लिअर टेस्ट किया, प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के दौरान इस ऑपरेशन को नाम दिया गया था 'ऑपरेशन शक्ति 98'. फिल्म में जॉन अब्राहम एक ऐसे आईएएस ऑफिसर के किरदार में हैं जिन्हें बर्खास्त कर दिया गया था, क्योंकि 1995 में भारत ने न्यूक्लिअर टेस्ट की तैयारी की थी जो खबर लीक हो गई थी. और उसके बाद अमेरिका और पाकिस्तान के दबाव में आकर उस समय की सरकार को ये ऑपरेशन रद्द करना पड़ा था. फिर नेताओं ने बली का बकरा बनाया उस आईएएस ऑफिसर को जिसके किरदार में हैं जॉन अब्राहम. जॉन अपनी पत्नी के साथ एक गुमनामी की जिंदगी गुजारने लगता है और तीन साल बाद किस्मत फिर करवट लेती है. सरकार बदलती है और जॉन को एक बार फिर मौका मिलता है अपनी टीम बनाने का और आखिरकार अमेरिकी और पाकिस्तानी जासूसों की आंखों में धूल झोंककर ऑपरेशन शक्ति सफल तरीके से होता है.

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सच्ची घटना पर आधारित संयुक्ता और अभिषेक शर्मा का स्क्रीनप्ले दिलचस्प है. फिल्म में कई ऐसे अंश रखे गये हैं जो सच में हुए थे. जैसे टेस्ट करने जो वैज्ञानिक गए थे वो टीम बहुत छोटी थी और सभी को आर्मी ड्रेस पहननी पड़ी थी, ताकि किसी तरह का कोई शक न हो. फिल्म में डीटेलिंग पर काफी ध्यान दिया गया है. लेकिन फर्स्ट हाफ थोड़ी धीमी गति से बढ़ता है, नेताओं की असल फुटेज को कहानी में जिस तरह से पिरोया है वो काबिले तारीफ है. पाकिस्तानी जासूस को पकड़ने वाला सीन काफी फिल्मी है.

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असल जिंदगी पर आधारित फिल्म में अगर जरा सा भी कोई सीन फिल्म की लय के साथ न जाए तो वो नकली लगने लगता है, परमाणु में कुछ जगह पर यही परेशानी है, जिस वजह से ये फिल्म पूरी तरह से दिल को नहीं छूती, लेकिन बावजूद इसके फिल्म देखने लायक है.

अभिनय के डिपार्टमेंट में जॉन अब्राहम ने अपने किरदार को इमानदारी से निभाया है लेकिन यही रोल अगर आमिर खान ने किया होता तो लेवल कुछ और ही होता, स्टार और एक्टर का अंतर साफ दिखता है. डायना पेंटी, बोमन इरानी और सभी कलाकार अपने किरदार के साथ इंसाफ करते हैं. जॉन की पत्नी के रोल में अनुजा अपनी छाप छोड़ने में कामयाब होती हैं.

संदीप चौटा का संगीत बेहद साधारण है, फिल्म में गानों का स्कोप नहीं है, लेकिन देश भक्ती के गाने सिचुएशन के हिसाब से कमजोर पढ़ते हैं. ज़ुबिन मिस्त्री की सिनेमेटोग्राफी फिल्म की लय के साथ जाती है. रामेश्वर एस भगत की एडिंटिग बेहतर हो सकती थी. कुल मिलाकर "परमाणु" जॉन अब्राहम और निर्देशक अभिषेक शर्मा की एक अच्छी कोशिश है और आज की जेनरेशन को बताने का एक प्रयास भी है कि आखिर 1998 में भारत ने कैसे न्यूक्लिअर टेस्ट किया था.

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सिद्धार्थ हुसैन सिद्धार्थ हुसैन @siddharth.hussain

लेखक आजतक में इंटरटेनमेंट एडिटर हैं

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