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Updated: 28 जनवरी, 2020 11:39 AM
बिलाल एम जाफ़री
बिलाल एम जाफ़री
  @bilal.jafri.7
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कंगना रनौत (Kangna Ranaut) की फिल्म पंगा (Panga), जिसके लिए कहा जा रहा था कि फिल्म अजय देवगन (Ajay Devgan) की हालिया रिलीज फिल्म तन्हाजी (Tanhaji) को कड़ी टक्कर देगी. अपने रिलीज के चौथे ही दिन दम तोड़ती नजर आ रही है. सबसे पहले जिक्र कलेक्शन का (Panga box office collection vs Tanhaji Box Office collection). अब तक कुल 15 करोड़ के आसपास कमाने वाली पंगा ने अपने रिलीज के पहले दिन धीमा कलेक्शन किया. फिल्म की पहले दिन की कमाई 2.70 करोड़ रु. रही. स्थिति शनिवार को कुछ सुधरी जहां पंगा 5.61 करोड़ का कारोबार करने में कामयाब रही. रविवार भी फिल्म के लिए अच्छा रहा फिल्म ने 6.60 करोड़ का बिजनेस किया है. अब अगर बात तन्हाजी की करें तो ये फिल्म का तीसरा हफ्ता चल है और चाहे वो पंगा हो या फिर स्ट्रीट डांसर 3d हालिया रिलीज कोई भी फिल्म इसके सामने टिकती हुई नहीं दिखाई दे रही है. फिल्म अपने तीसरे हाफ्ते में ही 224 करोड़ का बिजनेस कर चुकी है, जिसने रिलीज के पहले ही दिन 15.10 करोड़ रुपए का बिजनेस किया था.

Panga, Tanhaji, Kangna Ranaut, Ajay Devgan, Film  ajay देवगन की तान्हाजी के सामने नहीं टिक पा रही हैं कंगना की पंगा

फिल्म पंगा (Panga) में कंगना एक बड़ी भूमिका में हैं. जिस विषय पर फिल्म बनी थी और जैसा प्रभावशाली रोल उनका ट्रेलर में दिखा था. माना जा रहा था कि वो अपने दम पर फिल्म को सुपर डुपर हिट करा ले जाएंगी और बॉक्स ऑफिस पर रिकॉर्ड कायम करेंगी. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हो पाया है.

तो आइये उन कारणों पर चर्चा कर ली जाए जो हमें बताएंगे कि आखिर ऐसा क्या हुआ जिस कारण तान्हाजी से पंगा लेने में नाकाम रही कंगना

कंगना ने दिखाया राष्ट्रवाद और राष्ट्र के लिए लड़ते नजर आए तान्हाजी

इस बात में कोई शक नहीं है कि कंगना एक ऐसी अभिनेत्री हैं जो तमाम मौकों पर अपने राष्ट्रवाद का परिचय दे चुकी हैं. साथ ही इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि वो एक ऐसी अदाकारा है जो अपने विचारों के कारण राष्ट्रवादी लॉबी में खूब पसंद भी की जाती हैं. इन बातों के बाद अगर निर्देशक अश्विनी अय्यर तिवारी की फिल्म पंगा का जिक्र किया जाए तो फिल्म एक ऐसी महिला के इर्द गिर्द घूमती है जो किसी ज़माने में इंडियन कबड्डी टीम की कैप्टन रह चुकी है.  महिला अपने करियर के पीक पर शादी कर लेती है और गेम छोड़ देती है. फिल्म में कबड्डी की हालत को, घर-दफ्तर, पति-बच्चे से ताल मेल बैठाती एक महिला के संघर्षों, उसके गेम में वापस कमबैक को दिखाया गया है.

फिल्म की जो कहानी है वो बस इसी के इर्द गिर्द घूमती है. साईं मायनों में कहा जाए तो फिल्म में ऐसा कुछ भी असाधारण नहीं है जिसके चलते फिल्म की बहुत ज्यादा तारीफ की जाए. फिल्म देखने के दौरान भी ऐसे इक्का दुक्का ही मौके आए हैं जब परदे पर कुछ बहुत ज्यादा रोमंचक हुआ हो. फिल्म का सबसे निराशाजनक पहलू उसका सेकंड हाफ रहा जहां निर्देशक की ये जल्दबाजी कि फिल्म जल्दी ख़त्म हो जाए हमें साफ़ दिखाई दी.

पंगा के बाद अगर हम तान्हाजी का जिक्र करें तो तान्हाजी एक अलग थीम पर बनी फिल्म है. फिल्म में तान्हाजी बने अजय देवगन एक हिंदू  योद्धा हैं जो भगवे झंडे के साए में विदेशी आक्रांताओं से अपनी धरती को बचा रहे हैं मराठों को एकजुट कर रहे हैं उनमें नई ऊर्जा फूंकते हुए नजर आ रहे हैं.

राष्ट्रवादी छवि कंगना और अजय दोनों की है मगर जब हम तान्हाजी पर गौर करें तो मिलता है कि एक दर्शक के तौर पर हमें तान्हाजी बने अजय का राष्ट्रवाद कंगना के राष्ट्रवाद से कहीं ज्यादा बड़ा दिखाई देता है. कंगना कीफिल्म पंगा जहां एक तरफ अधूरे सपनों को पूरा करने और संघर्षों की कहानी है तो वहीं तान्हाजी का पूरा प्लाट ही अलग है. फिल्म में दर्शाया गया है कि कैसे एक योद्धा अपनी सूझबूझ से न सिर्फ अपनी धरती और  मराठों की रक्षा करता है बल्कि आक्रान्ताओं को बताता है कि युद्ध की वास्तविक शैली क्या है.

अकेली पड़ गयीं कंगना अजय के पास था बेहतरीन VFX, जंग का प्लाट

फिल्म पंगा और जिस थीम को ध्यान में रखकर निर्देशक ने फिल्म बनाई है. अगर हम उसपर नजर डालें तो ये कहना हमारे लिए अतिश्योक्ति नहीं है कि फिल्म में हेड से लेकर तेल तक कंगना ही कंगना है. कंगना के अलावा हमें परदे पर अन्य किरदार तो दिख रहे हैं मगर कंगना के कैरेक्टर को प्रभावशाली बनाने के लिए निर्देशक ने अन्य किसी कैरेक्टर को प्रभावशाली बनाने की जहमत नहीं उठाई.

फिल्म के अन्य पात्रों में कंगना के बेटे बने यज्ञ भसीन और ऋचा चड्ढा  का कैरेक्टर मजबूत था जिसपर शायद निर्देशक अश्विनी अय्यर तिवारी ने छेड़छाड़ करना मुनासिब नहीं समझा. यदि इनके साथ थोड़ा एक्सपेरिमेंट और हुआ होता तो बात बन सकती थी और पंगा तूफ़ान लाने में कामयाब हो सकती थी.

कुल मिलाकर बात का सार यही है कि कंगना को ज्यादा प्रभावशाली दिखाने के चक्कर में निर्देशक फिल्म के साथ सही ट्रीटमेंट कर पाने में नाकाम रहीं.

इन बातों के इतर अगर चर्चा तान्हाजी पर हो तो यहां हर वो चीज थी जिसके लिए दर्शक थियेटर जाता है और एक नई ऊर्जा के साथ बाहर निकलता है. फिल्म का VFX और  साउंड एक मजबूत इफ़ेक्ट है इसके अलावा निर्देशक ओम राऊत ने अन्य पात्रों के चयन में भी इंसाफ किया है.

चूंकि फिल्म का बैकड्राप मराठा अस्मिता और युद्ध हैं इसलिए भी ये फिल्म उस मुकाम पर पहुंच गई जिसकी कल्पना भी शायद ही किसी ने की हो. कह सकते हैं कि फिल्म में हर वो एलिमेंट है जिसे देखने के लिए बॉक्स ऑफिस पर पैसे खर्च कर एक दर्शक थियेटर में आता है.

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लेखक

बिलाल एम जाफ़री बिलाल एम जाफ़री @bilal.jafri.7

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं.

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