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Updated: 25 नवम्बर, 2017 09:58 AM
संध्या द्विवेदी
संध्या द्विवेदी
  @sandhya.dwivedi.961
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‘औरतों के लिए ये दुनिया जितनी अभी बदली है, उससे ज्यादा बदलनी बाकी है. घर से लेकर दफ्तर तक, कुछ हक उसे मिले हैं, अभी और मिलने बाकी हैं.’दरअसल ये लाइनें मैंने एक गैर-सरकारी संगठन के एक कार्यक्रम में सुनी थीं. इसे बुंदेलखंड के एक गांव की औरत ने खुद बनाया था. उस औरत की उम्मीद भरी ये लाइनें उस वक्त हॉल में बैठी कई हाई-प्रोफाइल औरतों की उम्मीद बन गई थीं. ऐसे में जब विश्वस्तरीय शोधकर्ता ये कहें कि समस्या कैसी भी हो लड़कियां लड़कों के मुकाबले जल्दी और सटीक सुझाव देती हैं तो कोई आश्चर्य नहीं होता. दरअसल हाल में एक रिपोर्ट आई है जिसमें कहा गया है, ‘समस्या समधान करने के मामले में लड़कियां, लड़कों से बेहतर होती हैं. इतना ही नहीं कार्यस्थल पर भी लड़कियां, लड़कों के मुकाबले ज्यादा अच्छा परफॉर्म करती हैं. आधुनिक टेकनीक को सीखने की क्षमता भी उनमें ज्यादा होती है.’

आर्गेनाइजेशन फॉर इकोनोमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट के शोध से ये बात सामने आई है. ये रिपोर्ट इसलिए भी चर्चा का विषय बनी क्योंकि दुनिया में पहली बार इस तरह का कोई शोध किया गया है. 52 देशों के लड़के और लड़कियों पर एक मनोवैज्ञानिक टेस्ट का प्रयोग कर नतीजे पाए गए. सारे लड़के-लड़कियों को कई तरह की समस्याएं दी गईं, जिनका हल उनसे पूछा गया. इसमें लड़कियों ने न केवल जल्दी, बल्कि सटीक समाधान सुझाए. ये रिपोर्ट समाज की उस धारणा को धराशायी करती है, जिसमें कहीं न कहीं लड़कियों/महिलाओं को घर ही नहीं बल्कि खासतौर पर कार्यस्थल में गैरबराबरी का सामना करना पड़ता है. कार्यस्थल में तो ‘जेंडर पे गैप’ जैसे मुद्दों पर तो सालों से बिना नतीजे वाली बहस हो रही है.

समाज में एक आम धारणा है कि कार्यस्थल पर लड़कों के मुकाबले लड़कियां कम परफॉर्म करती हैं. यही वजह है कि ‘जेंडर पे गैप’ जैसे मसलों पर गाहे-बगाहे बहस होती रहती है. हाल में फिल्म इंडस्ट्री से एक खबर बाहर आई. इस पर खूब चर्चा हुई. खबर पॉजिटिव थी. लेकिन कई सवाल खड़े करने वाली. दरअसल ‘पद्मावती’ फिल्म में दीपिका पादुकोण को उनके को-पार्टनर रणवीर सिंह और शाहिद कपूर से ज्यादा फीस मिलने की चर्चा मीडिया की सुर्खियां बनी. ऐसा कहा गया कि ‘पितृ-सत्तात्मक सोच’ वाली फिल्म इंडस्ट्री में अब बदलाव आ रहा है. हालांकि यह कदम अपवाद बनकर रह जाएगा या फिर आगे भी ऐसी खबरें आएंगी, ये तो वक्त ही बताएगा.

woman, officeमहिलाओं को कम आंकना बंद करें

कुछ महीनों पहले ‘वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम’ की भी एक रिपोर्ट आई थी. इसमें कहा गया था कि दुनिया में कोई भी ऐसा देश नहीं है जहां समान काम के लिए औरतों को पुरुषों के बराबर वेतन मिलता हो. ‘मोंस्टर सैलरी इंडेक्स 2016’ के अनुसार समान काम के लिए महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले 25 फीसदी कम वेतन मिलता है. करीब 69 फीसदी औरतों ने इस गैरबराबरी को अपने करियर में गहराई से महसूस किया. इस खबर ने देश की दुखती रग पर हाथ रख दिया. भारत में सबसे ज्यादा बॉलीवुड से प्रतिक्रिया आई.

पीटीआई को दिए एक इंटरव्यू में एक्ट्रेस अदिति राव हैदरी ने कहा 'मुझे बिल्कुल समझ नहीं आता कि आखिर हमें अपने मेल को-पार्टनर से कम फीस क्यों मिलती है. जबकि अपनी-अपनी भूमिका के लिए प्रयास दोनों ही बराबर करते हैं.' उन्होंने कहा- 'अगर एक्ट्रेस का किरदार हल्का हो, तो क्या फिल्म पर उसका कोई असर नहीं पड़ेगा?' बॉलीवुड क्वीन कंगना रानौत की प्रतिक्रिया तो बेहद तीखी रही. उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा ‘कोई भी फिल्म के सफल होने की गारंटी नहीं दे सकता. तो एक्ट्रेस और एक्टर की फीस में इतना अंतर क्यों? मेरे सहयोगी मेल को-पार्टनर को तीन गुना ज्यादा फीस मिलने की आखिर वजह क्या है?’ एक्ट्रेस सोनम कपूर तो बेहद बेबाकी से कहती हैं, ‘मुझे लगता है, वो समय आ गया है, जब एक अभिनेत्री होने के नाते, एक कलाकार होने के नाते, हमें हमारा हक मिलना चाहिए.’

प्रियंका चोपड़ा ने एक इंटरव्यू में कहा, ‘मुझसे तो यह भी कहा गया कि फीमेल एक्ट्रेस को बदला जा सकता है. क्योंकि वह तो मेल एक्टर के पीछे काम करती है. आज भी मुझे जेंडर पे गैप में गैरबराबरी का सामना करना पड़ता है. जैसा कि दुनिया में दूसरी एक्ट्रेसेस को करना पड़ता है.’

हाल में आई रिपोर्ट से ये साफ है कि कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ गैरबराबरी की वजह समाज में बनी धारणा है. ये धारणा कहीं न कहीं पितृ-सत्तात्मक सोच की उपज है. हद ये है कि इस सोच से फिल्म इंडस्ट्री और मीडिया जैसी जागरुक समझी जाने वाली इंडस्ट्रीज भी अछूती नहीं है. इस तरह की छुटपुट शोध और सर्वे पहले भी हुए हैं. लेकिन औरतों को उनका हक दिलाने में ये सब बेअसर साबित हुईं.

इस बार क्योंकि विश्व स्तर पर पहली बार इतने देशों के साथ इतना बड़ा सैंपल लिया गया है, तो शायद इस पर दुनियाभर के नीति नियंताओं की नजर पड़े. उम्मीद है गैरबराबरी को झेल रही औरतों की तकदीर कुछ बदले. आखिर में फिर वो लाइन जिसमें निराशा नहीं आशा है. जीत की. हक पाने की.

‘घर से लेकर दफ्तर तक कुछ हक मिले हैं कुछ और मिलने बाकी हैं...’

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लेखक

संध्या द्विवेदी संध्या द्विवेदी @sandhya.dwivedi.961

लेखक इंडिया टुडे पत्रिका की विशेष संवाददाता हैं

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