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Updated: 03 मई, 2019 10:25 PM
हिमांशु सिंह
हिमांशु सिंह
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इस बात में दो राय नहीं है कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की तरह ही मीडिया भी लोकतंत्र का एक स्तंभ है. लोकतंत्र की इमारत तभी मजबूत होगी जब इसके चारों खंभे अपनी जगह पर बने रहेंगे, और सीधे खड़े रहेंगे. अगर कोई भी खंभा किसी दूसरे खंभे से अपनी नजदीकियां बढ़ाएगा या किसी ओर झुक जाएगा, तो उनका आपसी संतुलन बिगड़ने लगेगा, और लोकतंत्र की इमारत कमजोर हो जाएगी. आज 3 मई यानी वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे है, तो आज हम लोकतंत्र के चौथे खंभे यानी खुद की खबर लेंगे. लेकिन पहले बात करते हैं वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे की.

3 मई 1991 के दिन अफ्रीका के कुछ पत्रकारों ने प्रेस की आज़ादी का मुद्दा उठाया और इस मुद्दे पर एक बयान जारी किया. इसे 'डिक्लेरेशन ऑफ विंडहोक' नाम दिया गया. संयुक्त राष्ट्र ने इस आइडिया को खूब तवज्जो दी और इस घटना के ठीक 2 साल बाद 3 मई 1993 को पहला विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस आयोजित किया.

वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे, मीडिया, पत्रकारिता, फेक न्यूज वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे पर बात तभी हो सकती है जब हम फेक न्यूज पर नियंत्रण करना सीख जाएं

हर साल इस दिवस की नई थीम होती है. इस बार की थीम है - 'लोकतंत्र के लिए मीडिया : फ़र्ज़ी खबरों और सूचनाओं के दौर में पत्रकारिता एवं चुनाव'. इस बार इस दिवस का आयोजन इथोपिया में हो रहा है. ये तो हुई प्रेस स्वतंत्रता दिवस की बात, अब बात करते हैं प्रेस की स्वतंत्रता और इसकी सीमाओं की. दुनियाभर का मीडिया चाहे कितना भी आज़ाद हो, कुछ ताकतें हैं जो इसे अपने मुताबिक चलाना चाहती हैं.

अमेरिका में रहने वाले सऊदी अरब के पत्रकार जमाल खगोशी सऊदी के क्राउन प्रिंस के कट्टर आलोचक थे. इसकी कीमत उन्हें अपनी जान देकर चुकानी पड़ी. उनकी हत्या के बाद उनके शरीर के टुकड़े किये गए और ओवन में जलाकर खत्म किया गया. तो डर सबसे असरदार तरीका है जिससे मीडिया की आज़ादी पर अंकुश लगाया जाता रहा है. लेकिन अब चूंकि नया चलन मीडिया को रोकने का नहीं उसे नियंत्रित करने का है, इसलिए मीडिया की आज़ादी को डर से ज्यादा लालच प्रभावित कर रहा है.

पहले पत्रकार डर के चलते सच बोलने से संकोच करते थे, अब लालच के चलते सच छुपाने लगे हैं. किसी देश में मीडिया की आज़ादी का उस देश के लोकतंत्र से सीधा संबंध होता है, यानी मीडिया जितना स्वतंत्र, उतना बेहतर लोकतंत्र. लेकिन आज की बड़ी दिक्कत ये है कि ज्यादातर बड़े मीडिया ग्रुप पूंजीपतियों की कंपनी हैं, जहां कार्यरत पत्रकार भी प्राइवेट कंपनी के कर्मचारी बन चुके हैं.

पत्रकारों का कर्मचारी बन जाना हमारे समय की वो घटना है जिसके लिए हमारा समय 'प्लासी की लड़ाई' की तरह याद रखा जाएगा. फ्रांस का वॉल्टेयर कहता था कि कोई समाज जैसा नेता और जैसे अपराधी डिज़र्व करता है, उसे मिल जाते हैं. तमाम लोगों को मैंने मीडिया के बारे में भी यही कहते देखा सुना है. लेकिन चूंकि मीडिया की एक बड़ी जिम्मेदारी समाज को आईना दिखाना भी है, इसलिए मीडिया अपनी गलतियों का ठीकरा समाज के मत्थे नहीं मढ़ सकता.

मीडिया मनोरंजन का साधन नहीं है. न ही उसका काम राजनीति में हिस्सा लेना है. उसका काम सिर्फ और सिर्फ व्यवस्था को आईना दिखाना है. और यही उसकी क्वालिटी का पैमाना भी है. मुद्दा प्रेस और मीडिया है इसलिए कुछ बातों पर बात करना बहुत जरूरी है. अब ऐसा हो नहीं रहा है जहां सिर्फ सूचनाएं दी जा रही हैं. आज केवल सूचनाओं को पत्रकारिता नहीं माना जा रहा है. आज के परिदृश्य में फेक न्यूज़ का हमला चारों तरफ से है और झुकाववाली ख़बरों पर कोई बहस नहीं करना चाहता.

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हिमांशु सिंह हिमांशु सिंह @100000682426551

लेखक समसामयिक मुद्दों पर लिखते हैं

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