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Updated: 02 अक्टूबर, 2018 01:51 PM
आर.के.सिन्हा
आर.के.सिन्हा
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लखनऊ में बेगुनाह विवेक तिवारी का नृशंस कत्ल हमारे समाज में घर कर गई विकृत मानसिकता को जाहिर करता है. उन पर एक पागल पुलिसिए ने सड़क पर रोककर गोली चला दी. अब इस पर तमाम तरह की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं. विवेक की मौत पर उसके प्रति सहानुभूति जताने या हत्यारे पुलिसवाले को कोसने की बजाय यहाँ तक कहा जा रहा कि ‘अगर विवेक तिवारी मुसलमान या दलित होते तो इतनी तीखी प्रतिक्रिया भी नहीं होती.’ इसके साथ ही कई पुलिस एनकाउंटरों का हवाला तक दिया जा रहा है कि ‘तब तो सब कुछ शांत रहा था.’

अब आप खुद देख लें कि जहां किसी का पुत्र संसार से चला गया, किसी का पति और दो प्यारी अबोध बच्चियों अनाथ हो गईं, वहां पर कुछ सड़े दिमाग वाले लोगों को संतोष ही नहीं हो रहा है. वे किसी के मरने पर भी शांत नहीं हो रहे हैं. उन्हें तो मानो कुछ न कुछ बोलना है. इन्हें तो हर जगह जाति और धर्म को घसीटना है. विवेक तिवारी के कत्ल को लेकर ये तथाकथित धर्मनिरपेक्ष प्रगतिशील यहाँ तक कह रहे हैं कि ‘मीडिया इस केस को इतनी तवज्जो दे रहा है, क्योंकि विवेक ब्राह्मण थे.‘ विवेक की मौत एक नौजवान सपने की मौत है, यह संपूर्ण मानवता पर बर्बर प्रहार है. इसे मात्र एक कथित ब्राह्मण की हत्या कहना पाप से कम नहीं होगा. ब्राह्मण क्या देश के नागरिक नहीं हैं?

विवेक तिवारी, यूपी पुलिस, एनकाउंटर, सोशल मीडियाविवेक तिवारी केस में उनके ब्राह्मण होने पर सवाल उठाया जा रहा है

ये जातिवाद की राजनीति करने वाले दुष्ट निरंकुश होते जा रहे पुलिस वालों की किसी पर भी गोली चलाने की ख़तरनाक प्रवृत्ति पर टिप्पणी करने के बजाय अपनी सियासत करने लगे हैं. “विवेक तिवारी की बजाय मरने वाला अगर कोई मुसलमान होता” वाली लाइन लेने वाले लगता है कि यह भूल गए हैं कि दादरी में अखलाक के मारे जाने पर दर्जनों विकृत मनोवृति के तथाकथित लेखकों ने अपने पुरस्कार वापस किए थे. हालांकि, तब उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी की सरकार थी, इसके बावजूद उस कत्ल के लिए केन्द्र में मोदी सरकार को दोषी ठहराया जा रहा था. अब हमारे देश में एक बिरादरी ऐसे लोगों की फल-फूल रही है जो बलात्कार पर, मौत पर, लिंचिंग पर सबसे पहले पीड़ित की जाति और धर्म खोजते हैं. ये समाज के खतरनाक विकृत मनोवृति वाले सफेदपोश लोग हैं. ये सारे देश को सोशल मीडिया पर अपना ज्ञान मुफ्त बांटते हैं. ये ही सबको धर्मनिरपेक्ष और सांप्रदायिक होने का प्रमाणपत्र भी बांटते हैं. निश्चित रूप से उन सबको ‘नमन’ जो लखनऊ में मारे गए विवेक तिवारी की मौत को मात्र एक ब्राह्मण की हत्या के रूप में देख रहे हैं. ये वास्तव में मानवता के नाम पर कलंक हैं, देश और समाज को तोड़ने वाले खतरनाक लोग हैं जो एक सभ्य दिखने वाले देशद्रोही ही कहे जाने चाहिए.

डरावना चेहरा खाकी का...

दऱअसल, विवेक के कत्ल ने खाकी के भयानक चेहरे को एक बार फिर से सबके सामने लाकर खड़ा कर दिया है. अब लग यह रहा है कि हमारी पुलिस सुधरने की लिए तैयार नहीं है. उसका आम जन के हित में सहयोगपूर्ण स्थान होने की बजाय अमानवीय और कठोर रवैया ही बना रहेगा. आप किसी छोटे-मोटे शहर की बात ही छोड़ दीजिए, आपको राजधानी दिल्ली में भी रात 9-10 बजे के बाद अपनी गाड़ी चलाने में डर लगता है. अगर सड़क पर कोई हादसा हो जाता है, तब तो कोई पुलिसवाला आपकी मदद के लिए तुरंत सामने नहीं आएगा. अगर राजधानी में आप की गाड़ी का चलान होगा तो ट्रैफिक पुलिस वाला आपका चालान काटने के स्थान पर आपसे घूस की अपेक्षा करेगा. सोच लीजिए कि कितना गिर गया है स्तर हमारे पुलिस महकमें का.

खाकी की इमेज सुधाने के तरीके..

देश के पुलिस महकमें को देखने वालों को खाकी की इमेज में सुधारने के तरीके तलाश करने ही होंगे. हमारी पुलिस की यह छवि ब्रिटिश काल से चली आ रही है. यह मत भूलिए कि जालियांवाला बाग में निहत्थों पर गोलियां भारतीय पुलिस के ‘बहादुर’ जवानों ने ही बरसाई थीं. गोरों के भारत छोड़ने के 70 बरस गुजरने के बाद भी पुलिस सुधर नहीं रही है. उसकी समाज में एक नकारात्मक छवि बनी ही हुई है. एक आम नागरिक मानता है कि पुलिस वाला सिर्फ गालियां देकर ही बात कर सकता है. पुलिस को किसी अपराध के प्रत्यक्षदर्शियों, आरोपियों, अपराधियों से पूछताछ के दौरान सभ्य तरीकों को व्यवहार करना सीखना ही होगा. कौन नहीं जानता कि ये खाकी वाले अपने को खुदा मानने लगे हैं. विवेक तिवारी को मारने वाला कथित पुलिसिया पकड़े जाने के बाद पुलिस थाने में भी बक-बक कर रहा था. उसके साथ उसकी पुलिस महकमें में काम करने वाली पत्नी भी थी, जो अपनी ड्रेस में थी.

अब और कितना वक्त लगेगा पुलिस को अपनी कठोर और अमानवीय छवि में सुधार लाने में? इसमें अब और विलंब नहीं होना चाहिए. विवेक तिवारी की एक सिरफिरे पुलिस वाले ने हत्या की तो मुझे याद आ गया 1997 का एक चर्चित एनकाउंटर. ये 1997 में दिल्ली के कनॉट प्लेस में हुआ था. उसमें दिल्ली पुलिस ने दो उद्योगपतियों को मार डाला था. तब भी बहुत बवाल हुआ था. उस केस में एक सहायक पुलिस आयुक्त सहित दिल्ली पुलिस के दस अधिकारियों पर दोष सिद्ध हुआ था. दिल्ली पुलिस की अपराध शाखा के एक दल ने मुठभेड़ विशेषज्ञ की अगुवाई में 31 मार्च 1997 को एक कार पर गोली चलाई थी. पुलिस को शक था कि कार में बैठे लोग वास्तव में अपराध जगत के सरगना हैं.

अब पुलिस को इस तरह के फर्जी मुठेभेड़ों से बचना ही होगा. अगर मुठभेड़ की कहीं नौबत आए तो उसे तसल्ली कर लेनी होगी कि वो जिस पर निशाना साध रही है, वो वास्तव में अपराधी ही है. बेशक, पुलिस अपराधियों-उपद्रवियों पर कठोरता जरूर बरते. उसका कोई विरोध नहीं होना चाहिए. पर वह तो विवेक तिवारी जैसे सीधे-सरल लोगों को मार रही है. एक बात और विवेक तिवारी को मारने वाला पुलिसकर्मी सादी वर्दी में था. जरा सोचिए, कि अगर आप किसी भी महिला, जो आपकी पत्नी, बहन, माँ, भाभी या दोस्त भी हो सकती है, के साथ रात में जा रहे हों और कोई सफेदपोश बाइक सवार आपको रोके, तो क्या आप रुकेंगे? दस में से 9 लोग तो नहीं ही रूकेंगे. यही विवेक तिवारी ने भी किया, पर इसी कारण से उसे मार दिया गया. उस नौजवान प्रोफेशनल की मौत पर मचा बवाल कुछेक दिनों के बाद थम भी जाएगा. फिर से जिंदगी अपनी रफ्तार से चलने लगेगी. पर विवेक तिवारी की मौत पर उसकी जाति की बात करने वालों को समाज में बेनकाब करना ही होगा. इसी तरह से अब नशे में चूर पुलिस वालों को भी होश में लाना होगा. योगी सरकार को अपनी छवि सुधारनी ही होगी.

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लेखक

आर.के.सिन्हा आर.के.सिन्हा @rksinha.official

लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं.

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