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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 15 दिसम्बर, 2016 04:22 PM
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नोटबंदी पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण सुनने के बाद कहीं से ऐसा नहीं लगता है कि नोटबंदी का असर गरीबों पर पड़ सकता है. वो इस तरह से मंजे हुए अंदाज में पूरी भाव-भंगिमाओं के साथ दिल को छू लेने वाले शब्दों से लबरेज नोटबंदी के परिणामों को समझाते हैं कि लगता है कि भारतवर्ष में साम्यवादियों का नहीं तो कम से कम समाजवादियों का सपना तो पूरा हो ही जाएगा. घोर मोदी विरोधी और कालेधन वालों को छोड़कर हर किसी को लगने लगा था कि मोदी के मास्टर स्ट्रोक से गरीब, अमीर हों न हों, बेईमान जरुर गरीब हो जाएंगे.

कुछ लोग शहरों में एटीएम और बैंकों में भीड़ देख कर नाराजगी का अंदाजा जरूर लगाते रहते हैं. बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने तो यहां तक कह दिया कि गांवों में लोग बेहद खुश हैं, शहरों में तो ये मीडिया वालों ने मुंह में जबरदस्ती माइक ठूंस कर पूछते रहते हैं कोई दिक्कत, कोई दिक्कत. हमने सोचा कि क्यों न गांवों में जाकर समझा जाए कि आखिर इस नोटबंदी का असर गांवों में क्या पड़ा है. यकीन मानिए डेढ़ महीने में गांव और गरीबों की सोच में नोटबंदी को लेकर बड़ा फर्क आया है.

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 नोटबंदी को लेकर अब गांववालों की सोच बदलने लगी है

इसके लिए हम जानबूझकर जयपुर जिले के धानक्या गांव में पहुंचे. इसकी वजह ये थी कि धानक्या गांव में ही बीजेपी नेता और विचारक दीनदयाल उपाध्याय लालन पालन हुआ था, लिहाजा इसे बीजेपी का गढ़ माना जाता है. साथ ही जयपुर ग्रामीण के सांसद और सूचना एवं प्रसारण राज्यमंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौड़ ने धानक्या गांव को गोद लिया है. गांवों में जाते ही सबसे पहले हम गांवों के उस चौपाल पर गए जहां लोग ताश-पत्ती खेल रहे थे.

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 खेती के लिये बीज और खाद भी नहीं खरीद पा रहे किसान

ताश-पत्ती खेल रहे उन लोगों से हमने जैसे ही पूछा कि नोटबंदी का असर क्या गांवों पर पड़ा है, तो सब एक साथ बोल पड़े 'बड़ा नुकसान हो गया है.' करीब 60 साल के एक बुजुर्ग आदे राम बसेड़ी ने कहा कि इस बार मटर, गेहूं और सरसों की खेती के लिये बीज से लेकर खाद तक की कमी पड़ गई, यहां तक कि मजदूरी तक के लिये पैसे नहीं मिले. बहुत सारे खेत खाली रह गए हैं. गांवों वालों का दर्द यह था कि जो भी पुराने पैसे थे वह बैंक में जमा करा दिये और 8-8 दिन में 1 हजार रूपए भी बैंक से मिलना मुश्किल हो गया. इन पैसों से हम खेती करें या घर चलाएं.

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हमने जानबूझकर पूछा कि शुरुआती दिक्कतें भले ही हो रही हों लेकिन काला धन तो खत्म हो रहा है. मैंने ये सोचकर सवाल किया था कि लोग सरकार से सहानुभूतिपूर्वक और देशभक्ति के लिए ही सही कम से कम कुछ लोग समर्थन तो करेंगे, लेकिन कई लोग एक साथ बोल पड़े, इसमें ग्यारसी लाल की बात तेज आवाज में रखी इसलिए साफ सुनाई दी- 'अरे कालेधन वालों का कुछ भी नहीं बिगड़ा है, सब एक नंबर में करा लिए. मरने के लिए तो बस हम ही बचे हैं.' एक ने कहा कि 'रोज अखबार में नहीं पढ़ते हो कि कितने के नए नोट पकड़े जा रहे हैं और हमें एक-दो हजार भी नहीं मिल रहे हैं'.

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 राशन दुकानों में कैशलेस व्यवस्था है, लेकिन नेटवर्क नहीं आता

इसके बाद हम उचित मूल्य की दुकान यानि सरकारी राशन की दुकान पहुंचे. भीड़ लगी हुई थी लेकिन अच्छी बात यह थी कि गांवों में पोश मशीनें लगी गई हैं और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के डि‍जिटाइजेशन स्कीम के तहत बने भामाशाह कार्ड के जरिये आप इन राशन की दुकानों पर बिना नगद खर्च किए राशन खरीद सकते हैं. यहां पर बहुत सारी महिलाएं व पुरूष राशन खरीदने के लिये अपना कार्ड लिये खड़े थे. हमने उनसे पूछा कि यह तो राहत की बात ह कि गांव में कैशलेस व्यवस्था हो गई है और पैसे नहीं रहने पर भी आप समान खरीद सकते हैं. लेकिन वहां पर मौजूद महिलाओं व पुरूषों का कहना था कि 'घंटे-घंटे भर यहां बैठे रहते हैं नेटवर्क ही नहीं मिलता है.'

फिर हमने इसकी तस्दीक की तो पता चला कि वाकई में फिल्हाल पोश मशीन में इंटरनेट का नेटवर्क नहीं आ रहा था. वहां पर मौजूद लोगों ने भी नोटबंदी के खिलाफ जमकर भड़ास निकाली. यहां मौजूद लोगों का भी यही कहना था कि सरकार को समझना चाहिये कि गांवों में 1000-2000 में किसी का घर चल सकता है मगर खेती-बाड़ी नहीं हो सकती. लोगों ने 3-3, 4-4 लाख रूपए एकाउंट में जमा करा दिया हैं और बदले में उन्हें 1000-2000 रूपया ही मिल रहा है. मौके पर मौजूद महिलाओं ने कहा कि नोटबंदी की वजह से घर में इतनी तंगी हैं कि घर खर्च भी आधे कर दिये हैं.

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हम गांव के राजस्थान मरूधरा ग्रामीण बैंक में पहुंचे, वैसे तो सभी गांवों में बैंक नहीं हैं लेकिन चूंकि यह आदर्श ग्राम है इसलिये यहां बैंक खोले गये हैं. गांवों में सभी लोग पैसा नहीं होने की शिकायत कर रहे थे मगर बैंक में बिल्कुल भीड़ नहीं थी. इस माजरे को समझने के लिये आखिर हम बैंक गए कि आखिर जब लोगों को पैसे मिल नहीं रहे तो बैंक में भीड़ क्यों नहीं है.

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 खाली पड़े हैं बैंक

वहां मौजूद बैंक मेनेजर ओम प्रकाश पारीक ने कहा कि गांवो में ज्यादातर खाते जनधन के तहत खोले गये हैं जिनकी महीने में पैसे निकालने की लिमिट 10,000 रूपए है. बैंक में जैसे ही 1-2 लाख आते हैं 1000-2000 करके सबको एडजस्ट करते रहते हैं. अब ये बात तो सही है कि महीने भर में चार-पांच हजार दो-तीन बार में किसी को दे भी दें तो वो घर चलाए, बच्चे पढ़ाए या फिर खेती-बाड़ी करे.

हम गांव से निकलकर ढांणी में पहुंचे जहां पर दूध का कलेक्शन सेन्टर हैं. खेती के अलावा गांव में कैश कमाने का बड़ा जरीया डेयरी यानी दूध बेचने का धंधा है. गांव वालों ने बताया कि उनसे दूध सरकार खरीद रही है, लेकिन पैसे नहीं मिल रहे हैं. दूध कलेक्शन सेंटर के गोपाल माली ने बताया कि गांवो में दूध के पैसे महीने की 7 तारीख को बंट जाते हैं लेकिन इस बार 14 तारीख हो गई अभी तक पैसे नहीं आए हैं. पैसे नहीं मिलने से जानवरों के लिये चारा तक लाना मुश्किल हो गया है. दूध के इन्हीं पैसों से घर खर्च भी चलता है, घर चलाना भी मुश्किल हो गया है.

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 जानवरों के लिये चारा लाना तक मुश्किल हो गया है

वहां से आगे निकलकर हम दूसरे गांव मूंड्या पुरोहित पहुंचे जहां पर तीन बीघा खेत के मालिक किसान रमेश जाट अपने मटर के खेत से खर-पतवार निकलवा रहे थे. उनसे जब हमने जानना चाहा तो कि नोटबंदी का असर क्या पड़ा है, तो छूटते ही बोल पड़े 'साहब बहुत ही बुरा हुआ है. जो भी पुराने पैसे थे वह सभी बैंक में जमा करा दिया हैं और खेती व जानवरी व घर चलाने के लिये पैसे नहीं हैं. बैंक के चक्कर काटकर फंस जाते हैं. बैंक वाले पैसे देते नहीं हैं, मजदूरी भी उधार के लेकर आऐ हैं. एक मजदूर को 300 रूपए मजदूरी देनी पड़ती है उसके लिये भी कैश नहीं है.'

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वहां से निकलकर हम चौथे गांव पहुंचे नीमेड़ा, नीमेड़ा में चाय की दुकान के पास नीम के पेड़ के नीचे चौपाल लगी थी जहां पर लोग नोटबंदी पर ही चर्चा कर रहे थे.

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 गांव में भारी बेरोजगारी बढ़ी है, मजदूर खाली बैठे हैं

जब हम इनसे जानना चाहा तो सबका यही कहना था कि शुरू शुरू में प्रधानमंत्री ने जब कालेधन के खिलाफ लड़ाई शुरू की तो हमें बहुत अच्छा लगा था लेकिन हमें नहीं पता था कि अमीरों का कुछ नहीं बिगड़ेगा और हम बर्बाद हो जाएंगे. एक ने कहा कि 'गांव में भारी बेरोजगारी बढ़ी है, मजदूर खाली बैठे हैं जिनको 450 मिल रहे थे अब उनको 250 भी नहीं मिल रहे हैं'.

ये आश्चर्य की बात इसलिए थी की इन्हीं इलाकों में जब हम नोटबंदी के तुरंत बाद आए थे तो महौल बिल्कुल उलटा था. लोग कह रहे थे कि मोदी ने सही काम किया है. मगर डेढ़ महीने में पूरे चार गांव में एक व्यक्ति नहीं मिला जो कह रहा हो कि सरकार का नोटबंदी का कदम सही है. प्रधानमंत्री ने जब कहा था कि अमीर रात-रात भर सड़कों पर नींद की दवाइयां सड़कों पर खोज रहे हैं और गरीब चैन की नींद सो रहा है. उस वक्त गांव वालों को नरेंद्र मोदी की ये बात बेहद भाई थी लेकिन जब रोजाना अखबारों में पढ़ते हैं कि करोड़ों के नए नोट रोजाना पकड़े जा रहे हैं और गरीब 1000-2000 के लिए धक्के खा रहा है तो लोगों में गुस्सा पनप रहा है.

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 नोटबंदी केवनाम पर परेशानियां ही मिल रही हैं गांववालों को

केंद्र की तरफ से कहा गया था कि नेफेड के जरीए किसानों को बीज, खाद के लिए व्यवस्था की गई है मगर गांव में कोई नहीं पहुंचा और ज्यादातर खेत खाली रह गए हैं. खेती के अलावा सरकारी डेयरी से दूध के पैसे नहीं मिलना भी लोगों में रोष पनपने की वजह है. इसके अलावा शहरों के नजदीक के गांवों के युवा शहरों में नौकरी करते थे. लेकिन टेक्सटाईल, जवाहरात और रियल स्टेट में काम बंद होने से नौकरी भी चली गई है.

नोटबंदी करनेवाली सरकार के लिए राहत की बात थी कि सैडिस्टिक प्लेजर की वजह से माना जा रहा था कि गरीब अमीर के पैसे बर्बाद होने से खुश थे. आम भारतीयों की मानसिकता के लिए कहावत कही जाती है कि भले ही मेरी बकरी मर जाए मगर पड़ोसी की दीवार गिरनी चाहिए. मगर जैसे-जैसे दिन बीत रहे हैं ये सोच और भावना कमजोर पड़ रही है और लोग अपनी परेशानियों से ऊबने लगे हैं. यही वजह है कि ग्रामीण इलाकों में एक महीने में सोच में भारी अंतर देखने को मिल रहा है. दो गांव में तो शहरों का उल्टा देखने को मिला. शहरों में एटीएम और बैंक की लाइनों में कुछ लोग नोटबंदी की तारीफ में जानबूझकर नारे लगाने लग रहे थे, लेकिन दो गांवों में लोगों ने कहा कि ये मीडिया वाले तो हमारी समस्या नही दिखाएंगे, सरकार के कहने पर दिखाएंगे कि यहां तो गांवों में सब ठीक चल रहा है.

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