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Updated: 24 अगस्त, 2017 04:52 PM
राहुल लाल
राहुल लाल
  @rahul.lal.3110
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निजता का अधिकार मौलिक अधिकार है या नहीं? इस पर गुरुवार 24 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला देते हुए' निजता का अधिकार' को मौलिक अधिकार घोषित किया है. सुप्रीम कोर्ट ने इसे अनुच्छेद 21 के अंतर्गत संबद्ध किया है. अनुच्छेद-21 प्राण और दैहिक स्वतंत्रता प्रदान करता है. इस तरह गरिमामय जीवन जीने के साथ निजता का अधिकार समाहित हुआ. मुख्य न्यायधीश जे एस खेहर की अध्यक्षता में 9 सदस्यीय संविधान पीठ ने इस मुद्दे पर करीब 6 दिन तक गहन व मैराथन सुनवाई की थी. 2 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया था.  इस 9 सदस्यीय खंडपीठ में चीफ जस्टिस के अतिरिक्त अन्य सदस्यों में जस्टिस जे चेलामेश्वर, जस्टिस एस ए बोबडे, जस्टिस आर के अग्रवाल, जस्टिस आर एफ नारिमन, जस्टिस ए एम सप्रे, जस्टिस धनंजय वाईचन्द्रचूड़, जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस एस अब्दुल नजीर शामिल हैं.

fundamental rightनिजता का अधिकार अब है मौलिक अधिकार

मौलिक अधिकार का क्या आशय है??

वे अधिकार जो व्यक्ति के जीवन के लिए मौलिक तथा अनिवार्य होने के कारण संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किए जाते हैं और जिन अधिकारों में राज्य द्वारा भी हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है, मौलिक अधिकार कहलाते हैं. भारतीय संविधान के भाग-3 में अनुच्छेद 12 से 35 तक मौलिक अधिकारों का वर्णन है. इसमें समानता, स्वतंत्रता, जीवन का अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार इत्यादि शामिल हैं. यह अधिकार न्यायालय में वाद योग्य हैं. इसलिए अनुच्छेद 32 के अंतर्गत मौलिक अधिकारों के हनन होने पर व्यक्ति सीधे सुप्रीम कोर्ट अथवा अनुच्छेद 226 के अंतर्गत हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकता है. इस तरह अब अगर सरकार कोई ऐसी योजना बनाती है, जिसमें निजता का अधिकार का उल्लंघन होता है तो  'निजता के अधिकार' को न्यायालय से संरक्षण प्राप्त होगा.

सामान्य विधिक अधिकार और मौलिक अधिकार में अंतर

मौलिक अधिकार जैसा मैंने ऊपर स्पष्ट किया कि न्याययोग्य अर्थात् वादयोग्य है, जबकि सामान्य विधिक अधिकार मौलिक अधिकार के तरह विशिष्ट नहीं है. सामान्य विधिक अधिकारों को अनुच्छेद-32 अर्थात् संवैधानिक उपचारों से संरक्षण उपलब्ध नहीं है. इसके अतिरिक्त मौलिक अधिकार साधारणतया अनुल्लंघनीय हैं अर्थात् व्यवस्थापिका या कार्यपालिका द्वारा उनका अतिक्रमण नहीं किया जा सकता है. अनुच्छेद-13 के अनुसार कार्यपालिका या विधान मंडल का कोई कार्य जो इन मौलिक अधिकारों को क्षीण करता है, शून्य होगा और न्यायालय को यह शक्ति है कि उसे शून्य घोषित करें. जबकि सामान्य विधिक अधिकारों को उपरोक्त विशिष्ट दर्जा प्राप्त नहीं हुआ. इस तरह अगर अब कार्यपालिका या विधायिका निजता का अधिकार का हनन करेंगी तो कोई भी व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकेगा. इस तरह निजता के अधिकार को मौलिक अधिकारों में संबद्ध करने से वह अतिविशिष्ट हो चुका है, जिसके हनन पर न्यायलय की शरण स्पष्टत: ली जा सकेगी.

क्या' निजता के अधिकार' मौलिक अधिकार बनने के बाद प्रतिबंधों से रहित हो गया??

यद्यपि कोई भी अधिकार आत्यंतिक अर्थात् निरंकुश नहीं होते हैं, इसलिए निजता का अधिकार भी आत्यंतिक नहीं होगा अपितु इसपर भी कई निर्बंधन अर्थात् तर्कमूलक प्रतिबंध होंगे. अब भी विधायिका युक्तियुक्त, ऋजु और न्यायसंगत विधि के द्वारा निजता के अधिकार पर प्रतिबंध आरोपित कर सकता है, परंतु न्यायलय को जांच करने का पूर्ण अधिकार होगा कि विधायिका द्वारा निर्मित विधि युक्तियुक्त, ऋजुपूर्ण तथा न्यायसंगत है अथवा नहीं. साथ ही अगर निजता पर अधिकार पर रोक हेतु निर्मित विधि यदि नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों के विरूद्ध हो तो भी न्यायपालिका उस विधि को शून्य घोषित कर सकती है. सुप्रीम कोर्ट ने आज भी कहा कि इस पर तर्क पूर्ण रोक लगाई जा सकती है.

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क्यों हुई सुनवाई

यूनिक आइडेंटिफिकेशन नंबर या आधार कार्ड योजना की वैधता को चुनौती देने वाली कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं. इन याचिकाओं में सर्वप्रमुख दलील है आधार से निजता के अधिकार के हनन की. याचिकाकर्ताओं ने आधार के लिए बायोमेट्रिक जानकारी लेने को निजता का हनन बताया, जबकि सरकार की दलील थी कि निजता का अधिकार अपने आप में मौलिक अधिकार नहीं है. अगर इसे मौलिक अधिकार मान लिया जाए तो व्यवस्था संचालन में व्यावहारिक समस्याएं खड़ी हो जाएंगी.  ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने तय किया कि पहले इस बात का निर्णय हो कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार है या नहीं. इसके बाद आधार योजना की वैधता पर सुनवाई होगी.

इस मामले में छोटी-बड़ी पीठों का गठन क्यों??

इस केस की शुरुआत में 3 जजों की खंडपीठ ने 7 जुलाई को कहा था कि आधार स्कीम से जुड़े सारे मुद्दों पर बड़ी पीठ को ही फैसला करना चाहिए. फिर 5 सदस्यीय संविधान पीठ गठित की गई. पुन: 18 जुलाई को कहा गया कि इस मुद्दे पर विचार 9 सदस्यीय संविधान पीठ करेगी. अब आखिर प्रश्न उठता है कि 9 सदस्यीय संविधान पीठ क्यों??

इसकी वजह 50 और 60 के दशक में आए सुप्रीम कोर्ट के 2 पुराने फैसले हैं. एमपी शर्मा मामले में सुप्रीम कोर्ट के 8 सदस्यीय जजों और खड़क सिंह मामले में 6 जजों की बेंच ने  यह निर्णय दिया था कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है. जबकि 70 के दशक में 2 या 5 सदस्य वाली पीठ ने कई फैसलों में निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार बताया था. इसलिए 9 सदस्यीय संविधान पीठ ने इस संपूर्ण मामले पर नए ढंग से विचार किया. गुरुवार को 9 सदस्यीय संविधान पीठ द्वारा 'निजता का अधिकार' को मौलिक अधिकार निर्णित करने पर पूर्व के सुप्रीम कोर्ट के 8 सदस्यीय तथा 6 सदस्यीय खंडपीठ के द्वारा दिए आदेश निरस्त हो गए. इस तरह अब सुप्रीम कोर्ट ने अब 1954 तथा 1962 के स्वयं के निर्णयों को बदल दिया है.

'निजता के अधिकार' का मौलिक अधिकार बनने पर प्रभाव

इस मामले की सुनवाई के दौरान सरकार ने अपना पक्ष रखते हुए स्पष्ट किया था कि किसी के भी निजता के अधिकार का सम्मान किया जाना चाहिए, लेकिन इसे मौलिक अधिकार का दर्जा नहीं मिलना चाहिए. स्पष्ट है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला सरकार के अपेक्षाओं के विपरीत रहा. इसका सबसे बड़ा असर यह होगा कि भविष्य में सरकार के किसी भी नियम कानून को इस आधार पर कोर्ट में चुनौती दी जा सकेगी कि वह निजता के अधिकार का हनन कर रहा है. लेकिन स्पष्ट है कि प्रत्येक मूल अधिकारों के तरह इस पर भी युक्तियुक्त प्रतिबंध रहेंगे.

सुप्रीम कोर्ट के द्वारा निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाने से आधार पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है. सरकार की दूसरी योजनाओं पर भी जिसमें निजता के अधिकार के मामलों को लेकर यदि टकराव होता है तो उसपर भी असर पड़ना अवश्यंभावी है.

इस फैसले का असर सोशल नेटवर्क व्हाट्सएप की नई निजता नीति पर भी पड़ेगा. दिल्ली हाई कोर्ट ने 23 सितंबर 2016 को दिए अपने आदेश में व्हाट्सएप को नई निजता लागू करने की इजाजत दी थी. परंतु न्यायालय ने व्हाट्सएप को 25 सित़ंबर 2016 तक एकत्रित किए गए अपने यूजर्स का डाटा फेसबुक या किसी दूसरी कंपनी को देने पर रोक लगा दी थी. इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है.

नागरिक अधिकारों की दृष्टि से 24 अगस्त 2017 का सुप्रीम कोर्ट का निर्णय स्वर्णिम निर्णय है, क्योंकि 'निजता के अधिकार' के गरिमाय जीवन जीने के अनुच्छेद 21 के अधिकारों से संबद्ध होने से मानवीय जीवन के गरिमा में और भी अप्रत्याशित वृद्धि होगी. व्यक्ति और राज्य के संबंधों की समस्या सदैव से बहुत जटिल रही है. ऐसे में गुरुवार का सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय मानवाधिकार के पक्ष में एक स्वर्णिम पल है, जिसमें नागरिक अधिकारों को और भी मजबूती प्राप्त हुई है. लंबे समयावधि में इस फैसले के और भी सकारात्मक पक्ष सामने आते रहेंगे तथा तर्कपूर्ण रोक का परीक्षण न्यापालिका करती रहेगी.

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लेखक

राहुल लाल राहुल लाल @rahul.lal.3110

लेखक अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं

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