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हिन्दू धर्म अपनाकर जितेन्द्र नारायण त्यागी ने वन-वे ट्रैफिक का नियम तोड़ा है!
जितेन्द्र नारायाण त्यागी उर्फ़ वसीम रिज़वी पढ़े-लिखे विवेकवान व्यक्ति हैं. लेखक और विचारक हैं. उनके निजी फैसले का सम्मान भी वैसे ही किया जाना चाहिए जैसे सैकड़ों सालों से 'स्वेच्छा' से इस्लाम अपनाने वालों के 'निजी' फैसलों का सम्मान किया जाता रहा है.
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एक पुराना चुटकुला है कि अफगानिस्तान में आतंकियों ने कुछ लोगों को घेर लिया और उनसे कुरान की आयतें सुनाने को कहा. एक आदमी ने हिम्मत करके कुरान की आयत के नाम पर कुछ और सुना दिया और उसकी जान बच गयी. मज़मून ये बताया गया कि अगर इन लोगों ने कुरान पढ़ी होती तो ये आतंकी न होते. सवाल ये है कि क्या कुरान की आयतें ही मजहब हैं? क्या चर्च ही ईसाइयत है? क्या मंदिर ही धर्म है? बिलकुल नहीं! ये सब धर्म के प्रतीक हैं. ये वो इमारतें हैं जिनमें धर्म तभी तक रहता है जब तक आस-पास का माहौल रहने लायक होता है. शोरगुल ज्यादा होने या मकान विवादित होने पर धर्म और देवता वहां से कूच कर जाते हैं. पर इन बातों के बावजूद प्रतीकों के महत्व को नकारा नहीं जा सकता. व्यावहारिक बात तो ये है कि धार्मिक प्रतीक धर्म को चिन्हित ही नहीं करते बल्कि धार्मिक वर्चस्व के घटने-बढ़ने का संकेत भी देते हैं. धर्म और वर्चस्व की ये बातें बौद्धिक शुतुरमुर्गों को लेखक की 'मूर्खता और संकीर्णता' पर हंसने का मौका जरूर देंगी, पर किले की प्राचीरें चाहे स्वयं राज्य न हों, पर राज्य के अस्तित्व की अनिवार्य शर्त जरूर हैं.
तमाम कारण हैं जो बताते हैं कि जो कुछ भी वसीम रिजवी ने किया है उसका उचित सम्मान होना चाहिए
ध्यातव्य है कि जिस तरह अपने देश के संवैधानिक मूल्यों का हवाला देकर पड़ोसी देशों से अपने देश की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं की जा सकती, उसी तरह 'ईश्वर तो मन में रहता है, इमारतों और किताबों में नहीं रहता' जैसी बातों का बौद्धिक विलास धर्म को नहीं बचा सकता. अगर बचा सकता है तो अपने दिल पर हाथ रखकर कसम खाइये और बताइये कि आपके 290 ग्राम के दिल में धर्म के लिए कितनी जगह बची है?
पार्किंग के झगड़े, ऑफिस-सैलरी-इन्क्रीमेंट के चर्चे, घर की किश्तें, पुश्तैनी जमीन के विवाद और बिटिया की शादी की तमाम चिंताओं-ख्वाहिशों के बाद बाकी बची जगहों पर तो निश्चित ही धर्म का राज होगा न! सबसे अच्छा धर्म स्वीकार करने की जिद उस राजा ने ये देखकर छोड़ दी थी कि नदी तो किसी भी रंग की नाव से पार की जा सकती है.
अच्छी कहानी थी. पर अगर नदी किसी भी रंग की नाव से पार की जा सकती है तो क्या हम अपनी नाव को नष्ट हो जाने दें! लुटेरों से उसकी रक्षा न करें! 'नदी तो किसी भी नाव से पार हो सकती है' जैसी बातें गुरुज्ञान नहीं विषमंत्र हैं. ये पट्टीदारों की वो सीख है जो पड़ोसियों के बच्चों को चोरी छिपे दी जाती है, ताकि लड़ाई से पहले वो अपने घर की लाठियां अहिंसा कायम करने के लिए चूल्हे में लगा दें, जबकि गलाकाट प्रतिस्पर्धा हमारी दुनिया का क्रूर यथार्थ है.
सवाल ये है कि दूसरों की नाव पर नदी पार करते वक्त नये सवारों का दर्जा क्या होगा! सवार ज्यादा हो जाने पर नाव डूबने से बचाने के लिए मझधार में पहले किसे फेंका जायेगा? नाव पलट गयी तो मल्लाह पहले किसे बचाएगा? और सबसे बड़ा सवाल तो ये है कि अगली पीढ़ी जब अपनी खुद की नाव का पता पूछेगी तो उसे क्या जवाब दिया जायेगा?
कहां गयी उनकी अपनी नाव! वो शरणार्थी बनकर दूसरों की नाव के फर्श पर क्यों बैठे हैं? अगर नदी किसी भी रंग की नाव से पार की जा सकती है तो यात्रियों में नाव बदलने का यातायात एकतरफा क्यों हो? नदी तो किसी भी रंग की नाव से पार हो सकती है न! नई नाव पर नवागंतुकों के साथ राम जाने कैसा व्यवहार हो?
उन्हें रसोइया बनाया जायेगा या खानां... कौन जानता है? ऐसे में बेहतर है अपनी-अपनी नाव पर रहा जाय और दूर से हाथ हिलाकर एक दुसरे का अभिवादन किया जाय. न एक-दूसरे को फुसलाया जाय, न डराया जाय, पर स्वेच्छा से कोई आना-जाना चाहे तो उन्हें रोका न जाय. शिया वक्फ बोर्ड के पूर्व चेयरमैन वसीम रिज़वी के हिन्दू धर्म अपनाने पर मचा शोर-शराबा इस एकतरफा यातायात की ताकीद करता है.
इस शोर-शराबे को देखकर लग रहा है जैसे इन्होने वन-वे ट्रैफिक का नियम तोड़ दिया हो! कन्वर्जन के सारे सिपाही सीटी बजाते इधर-उधर भाग रहे हैं. जितेन्द्र नारायाण त्यागी उर्फ़ वसीम रिज़वी पढ़े-लिखे विवेकवान व्यक्ति हैं. लेखक और विचारक हैं. उनके निजी फैसले का सम्मान भी वैसे ही किया जाना चाहिए जैसे सैकड़ों सालों से 'स्वेच्छा' से इस्लाम अपनाने वालों के 'निजी' फैसलों का सम्मान किया जाता रहा है.
बाकी वसीम तो अपनी पुरानी नाव पर ही वापस आये हैं. अपने प्रागैतिहासिक उदय काल में हिंदुत्व के समक्ष न किसी तरह की प्रतियोगिता थी न किस तरह का भय. ऐसे में समस्त हिन्दू धार्मिक चिंतन का उद्देश्य धर्म का विकास रहा न कि धर्म का विस्तार. जबकि बाद के धर्मों में आपसी प्रतिस्पर्धा के चलते विकास की बजाय विस्तार को तवज्जो दी गयी, जो आज भी जारी है.
रोचक बात ये है कि जिन्होंने हिन्दू धर्म का वास्तविक मर्म समझ लिया, वे बेहद उदार हो गये. जो नहीं समझ पाए, वो उदारता का भौंडा अभिनय करने लगे और अपने मूर्खतापूर्ण कृत्यों से हिन्दू धर्म को नुकसान पहुंचाने लगे. उन्हें अपने धार्मिक प्रतीकों का सम्मान साम्प्रदायिकता और अपमान सेकुलरिज्म लगने लगा.
उन्होंने तुष्टिकरण के अपने निजी पैमाने बनाकर स्वयं को उन पर आंकना शुरू कर दिया. हिन्दू समाज में इन बड़के बौद्धिकों की हालत उन मूर्ख मनबढ़ लौंडों जैसी हो गयी है जो पड़ोसियों से तारीफ पाने की लालच में अपने बाप-दादाओं को बेइज्जत करते हैं, और अंततः धोबी का पशु साबित होते हैं.
कहना ये चाहता हूं कि पड़ोसियों से उचित दूरी बनाये रखने और मुस्कराकर अभिवादन करने की नीति शांतिपूर्ण सहअस्तित्त्व के लिए बेहद जरूरी है, क्योंकि अच्छी बातें अच्छे पडोसी बनाती हैं और ज्यादा मिठाई में जल्दी कीड़े पड़ते हैं.
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