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Updated: 08 जून, 2018 09:06 PM
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1990 के दशक के बच्चों का बचपन शायद सबसे ज्यादा रोचक रहा है. डायल करने वाले टेलीफोन से लेकर स्मार्टफोन तक का सफर और छुट्टियों में साइकल चलाकर एक मोहल्ले से दूसरे में जाने से लेकर अब AC कैब में बैठकर जीपीएस ऑन करने तक सब कुछ बहुत तेज़ी से पिछले 20 - 25 सालों में बदला है. पहले जहां बच्चों के पास खेलने के लिए बाहर का ऑप्शन हुआ करता था, पहले गर्मियों की छुट्टियां नाना-नानी से बातें करते और कहानियां सुनते हुए गुजरती थीं अब उन सभी चीजों को स्मार्टफोन ने रिप्लेस कर दिया है. बच्चा ज़िद कर रहा है तो फोन पकड़ा दो, बच्चा बोर हो रहा है तो फोन पकड़ा दो, बच्चे को कहीं जाना है तो फोन पकड़ा दो.

अक्सर लोगों को ये कहते सुना है कि आजकल बच्चे बहुत तेज़ हो गए हैं और उन्हें तकनीक के बारे में बहुत ज्यादा पता है, लेकिन क्या कभी किसी ने सोचा है कि ऐसा क्यों है और ऐसा करने के लिए जिम्मेदार भी आप ही हैं. एक नई बीमारी जो बच्चों को तेज़ी से अपनी गिरफ्त में ले रही है वो जितना सोचा जाए उससे ज्यादा खतरनाक है. यहां बात हो रही है screen dependency disorder (स्क्रीन डिपेंडेंसी डिसऑर्डर) की.

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क्या है ये बीमारी?

अगली बार जब भी आप घर से बाहर निकलें तो एक बार नजर घुमा कर अपने आस-पास देखें. कोई न कोई बच्चा स्मार्टफोन, टैबलेट या किसी ऐसे ही इलेक्ट्रॉनिक उपकरण की स्क्रीन पर अपनी आंख गड़ाए दिखेगा. Claudette Avelino-Tandoc एक फैमिली लाइफ और चाइल्ड डेवलपमेंट फर्म है. इस फर्म के मुताबिक 3 से 4 साल तक के छोटे बच्चों को ये बीमारी घेर रही है. इसके चलते बच्चों को स्क्रीन देखने की आदत पड़ जाती है और बच्चों को इससे काफी तकलीफ होती है.

इस डिसऑर्डर के असंख्य लक्षण हैं. इसमें इन्सॉम्निया (नींद न आने की बीमारी), पीठदर्द, वजन का बढ़ना या घटना, आंखों की समस्या, सिर दर्द और खराब न्यूट्रीशन शामिल हैं. इसके साइकोलॉजिकल लक्षणों में घबराहट, झूठ बोलने की आदत, अपराधबोध महसूस होना, अकेलापन आदि शामिल हैं. जिस किसी को भी ये बीमारी घेर लेती है उसे अकेले रहने की आदत बहुत जल्दी लगती है और उसे अक्सर चिड़चिड़ाहट रहती है.

क्यों है खतरनाक..

जिनको भी ये बीमारी होती है उनकी स्क्रीन टॉलरेशन लिमिट बढ़ जाती है यानी वो लोग आसानी से घंटो स्क्रीन को देख सकते हैं. इसके अलावा, उनके व्यवहार में भी बदलाव आ जाता है. उन्हें स्क्रीन एक्टिविटीज बंद करने में समस्या होती है. बाहर जाना, खेलना, किसी से बात करना, यहां तक की कई मामलों में सोना भी उन्हें अच्छा नहीं लगता और ऐसा लगता है कि इससे स्क्रीन देखने का समय कम हो जाएगा.

अगर किसी बच्चे के साथ ऐसे लक्ष्ण दिख रहे हैं तो उसे किसी पिडिएट्रिशन के संपर्क में लाना चाहिए. अगर किसी एक्सपर्ट की सलाह नहीं ली तो समस्या और भी ज्यादा खतरनाक हो सकती है. आम तौर पर माता-पिता को तब समझ जाना चाहिए जब उनका बच्चा आम हरकतें करना बंद कर देता है और स्मार्टफोन उसकी दिनचर्या का एक हिस्सा बन जाता है.

वैसे अभी इस मामले में रिसर्च चल ही रही है, लेकिन पहले की गई स्टडी बताती हैं कि जिन बच्चों को भी SDD हो जाता है उनके दिमाग में थोड़ा बदलाव होने लगता है. उन्हें आम चीजें अच्छी लगना बंद हो जाती है और चिड़चिड़ापन सबसे ज्यादा होता है.

दूसरे शब्दों में SSD पर अगर लंबे समय तक ध्यान नहीं दिया गया तो ब्रेन डैमेज की भी समस्या हो सकती है. इससे इम्पल्स कंट्रोल (impulse control दिमाग का वो हिस्सा है जो अलग-अलग काम करने में मदद करता है) उसपर असर पड़ता है. इसके अलावा, दिमाग की प्लानिंग करने की क्षमता, समस्या का हल निकालने की क्षमता सभी कुछ कम होने लगती है.

दूसरा सबसे खराब असर है दिमाग के एक और हिस्से पर जिसे Insula कहा जाता है. इससे दिमाग कम जानकारी प्रोसेस कर पाता है और काम भी ठीक से नहीं होते.

डिवाइस और गैजेट खराब नहीं होते, लेकिन उनका जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल खराब होता है और उससे बच्चों के दिमाग पर असर पड़ सकता है. ये सही है कि इस वक्त बच्चों को तकनीक से दूर नहीं रखा जा सकता है, लेकिन फिर भी 21वीं सदी के माता-पिता को बच्चों से ज्यादा तेज़ होना पड़ेगा ताकि वो अपने बच्चों के स्वास्थ्य पर नजर रख सकें.

स्मार्टफोन और टैबलेट में ड्रॉइंग करना, पढ़ाई करना, एप्स का इस्तेमाल करना इस सबसे बेहतर है कि बच्चों को असल में स्केच बुक, किताबें और लोगों से मेल जोल बढ़ाने की शिक्षा दें.

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