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Updated: 07 फरवरी, 2023 09:08 PM
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सवाल थोड़ा रहस्यमयी तो नहीं, हां, थोड़ा मजेदार बनाते हैं. जर्नलिज्म बना है जर्नल से जिसका मतलब होता है - दैनिक , दैनन्दिनी या रोजनामचा ! हम चूंकिअकाउंटेंट आदमी हैं, व्यापारी आदमी हैं (मुनीम आउटडेटेड है ), तो रोजनामचा मोस्ट एप्रोप्रियेट लगा जिसमें हम अपने दैनिक लेनदेन की एंट्रियों का संकलन करते हैं.  डबल एंट्री एकाउंटिंग भी हम सभी जानते हैं. अब आखिर इंसान ही हैं तो कभी कभी कोई गलत एंट्री हो जाती है और जब बाद में या मिलान (रेकन्सिलिएशन) के समय, ऑडिट के समय पकड़ में आती है या ध्यान दिलाई जाती है तो करेक्टिव (सुधारात्मक) जर्नल एंट्री पास कर दी जाती है. ऑरिजिनल गलत एंट्री को इरेज़ नहीं किया जाता ; गलती का एहसास जो बना रहना चाहिए और इसीलिए करेक्टिव जर्नल एंट्री में एक सॉरी की भावना भी छिपी होती है. अब आएं मुद्दे पर. जर्नलिज्म में क्या होता है ? जॉर्नलिस्ट रोजाना ख़बरें वही जो हो सही के दावे के साथ ख़बरें परोसता है. लेकिन जब वह अपनी इमेजिनेशन का पुट उसमें डाल देता है या कहें विवेचना करता है तो जरूरी नहीं हैं कि वह हमेशा सही साबित हो. इसका समुचित कारण भी है. हर इंसान की अपनी मान्यता होती है, अपना फेथ होता है, अपना झुकाव होता है और उन्हीं के अनुरूप वह इमेजिन करता है, विवेचना करता है.

Media, Journalist, Internet, News, TV, Twitter, Lie, Agenda, Politicsकितना अच्छा होता देखना कि पत्रकार अपना काम पूरी ईमानदारी और निष्पक्षता से कर रहे हैं

तो ख़बरों की तह तक जाने का सिद्धांत कोम्प्रोमाईज़ हो जाता है. और फिर जब कहावत है कभी कभी जो दिखता है वह सच नहीं होता, तो जो दिखाया जाता है , बताया जाता है , उसके तो गलत होने के चांसेज़ ज्यादा हो गए ना. फ्रीडम ऑफ़ स्पीच या एक्सप्रेशन के लिए यहां तक बात बिलकुल ठीक है. किसी भी घटना या बात के लिए जिम्मेदारी तय करते वक्त प्रो होना या एंटी होना गलत नहीं है लेकिन कालांतर में यदि आपका प्रो या एंटी व्यू गलत निकलता है तो सिंपल खेद तो प्रकट किया ही जाना चाहिए. लेकिन ऐसा अमूमन पत्रकार करते नहीं.

ईगो जो बड़ा है या फिर ठेठ कहें तो अपनी अपनी वफादारी है. हालांकि कई बार पब्लिक प्रेशर महसूस किया तो वे रिग्रेट भी रिग्रेट को डिफेंड करते हुए रिग्रेट करते हैं. अमूमन प्रो या एंटी व्यू जानबूझकर सवाल के रूप में जो प्रेजेंट किए जाते हैं ज़िम्मेदारी से बच निकलने के लिए. आजकल अदानी को लेकर चर्चायें पीक पर है. विरोधी राजनीतिक पार्टियां तो राजनीति के लिए बोलबचन होती हैं लेकिन जर्नलिस्ट क्यों निष्पक्षता को ताक पर रख देते हैं ?

कारण एक ही है खबर को खबर की बजाय सेंसेशनल कहानी बनाकर प्रस्तुत करना. अब देखिए हिंदी का एक नामचीन पत्रकार जब विश्लेषक होता है तो हिंडनबर्ग रिपोर्ट को अतिरिक्त सनसनी देता है - इज इट बोफ़ोर्स मोमेंट फॉर मोदी गवर्नमेंट ? एक अन्य अंग्रेज़ी के आदतन मौजूदा सरकार के विरोधी पत्रकार की इमेजिनेशन सवालिया रूप में ही प्रकट होती है जब एक मुख्य विरोधी पार्टी के अदानी मामले को लेकर थोड़ा स्टैंड बदलने पर वे पार्टी प्रमुखा और मोदी के मध्य लिंक स्मेल कर लेते हैं.

भई लिंक या मजबूरी है तो स्वतः अनफोल्ड होने दीजिए ना ! इन ख़ास एंकर को अनेकों बार इस कदर करारा जवाब मिला है कि वे बगले झांकते नज़र आये हैं, झेंपते नज़र आये हैं. लेकिन उनका यही स्टाइल है और इसीलिए उनके सवाल अक्सर जवाब से बड़े होते हैं, उद्देश्य सवाल नहीं बल्कि निज का विचार जो रखना होता है. थोड़ा पास्ट में जाएं ऐसा ही एक मामला है. पाकिस्तान की नेशनल असेंबली में पूर्व स्पीकर और सांसद अयाज सादिक ने दावा किया कि उस समय विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने कहा था अगर अभिनंदन वर्धमान को रात नौ बजे तक नहीं छोड़ा गया तो भारत हमला कर देगा.

अयाज ने ये भी कहा कि बैठक में कुरैशी के पैर कांप रहे थे, माथे पर पसीना था. इस प्रकार स्पष्ट हुआ पाकिस्तान ने मोदी सरकार के डर से अभिनंदन को रिहा किया था. सादिक के इस बयान के अगले ही दिन इमरान खान के एक मंत्री फवाद चौधरी ने खुलासा किया कि पुलवामा टेरर अटैक उनकी सरकार ने करवाया था, हिंदुस्तान को घर में घुसकर मारा था. अभिनंदन को जब पाक ने 28 फ़रवरी 2019 को रिहा किया तब पाक पीएम इमरान खान ने हाई मॉरल ग्राउंड लेते हुए इस कदम को जेस्चर ऑफ पीस बताया था. जबकि उनके कुटिल अंतर में या तो डर था या फिर दबाव.

खबर के लिहाज से इस हद तक खबर सही थी कि पाक ने अभिनंदन को छोड़ दिया और पाक के पीएम इमरान खान ने इस कदम को जेस्चर ऑफ़ पीस बताया. लेकिन तत्काल ही इमरान के इस कदम पर प्रो और एंटी विचार दिए जाने लगे कुछ इसी कैटेगरी के पत्रकारों द्वारा ! कुछ ने तो इमरान ख़ान को महान स्टेट्समैन बताते हुए उनकी प्रशंसा के पुल बांध दिए थे. उन सब बयानों, विवेचनाओं के पीछे वही लेफ्टिस्ट, लिबरल एंटी सोच थी.

जबकि दो दिनों बाद ही इंडिया टुडे के एक प्रोग्राम में भारत के पीएम ने कहा था कि दुश्मन में भारत का डर है और ये डर अच्छा है, जब दुश्मन में भारत के पराक्रम का डर हो तो डर अच्छा है. कई महान नेताओं के अनर्गल प्रलापों (मसलन पुलवामा अटैक मोदी इमरान का फिक्स मैच था ; बालाकोट में कौवे मरे थे, तीन चार पेड़ गिरे थे ) को बखूबी विस्तार दिया गया था कई जर्नलिस्ट्स द्वारा !

अब आएं हमारे मुख्य मुद्दे पर. नेताओं को तो छोड़िये , उनके निहित स्वार्थ हैं, कुछ भी अनर्गल बोलेंगे. जहां फंसेंगे, बात को डाइवर्ट करेंगे और नहीं कर सके तो बगले झांकते हुए शोर मचाएंगे. लेकिन पत्रकारों से खेद जताए जाने की उम्मीद तो कर ही सकते हैं. तकलीफ हुई थी जब पाक मंत्री फवाद चौधरी को जर्नलिस्ट ने यह कहकर स्पेस दिया कि हम आदर्श पत्रकारिता करते हैं और इसीलिए असहमति के सुरों को भी स्पेस देते हैं.

क्यों देश की जनता सुने फवाद की अनर्गल सफाई को ? हमारी आंतरिक सहमति असहमति विवाद का विषय हो सकती है, दुश्मन देश की कदापि नहीं. क्या कभी पाक या चीन के मीडिया ने किसी भारतीय के असहमति के सुर को मौका दिया है ? दोनों साइड का वर्ज़न दिखाने के प्रेटेक्सट पर पाक को मौका ही क्यों ? और फिर जब एंकर दुश्मन देश के मंत्री के एजेंडा को 'फेयर एनफ' और थैंक यू करते हुए शो एंड करता है यकीन मानिए किसी भी देशवासी को रास नहीं आता.

इसी प्रकार एक पुराने एंकर पत्रकार तो, जब कभी उनकी विवेचना या उनका कहा मत गलत सिद्ध होता है, इंगित कराये जाने पर भी कन्नी काट लेते हैं या बेतुकी बात करते हैं. इसी फवाद वाले मामले में वे बीजेपी के नलिन कोहली से पूछ बैठे थे कि सरकार पाक हाई कमीशन पर ताला क्यों नहीं लगा देती ? कहने का मतलब यदि अपने एजेंडा के मनमाफिक नहीं हैं तो एक सही और सच्ची बात भी सीधे सीधे स्वीकार करने में तकलीफ होती है.

हालांकि डेमोक्रेसी में फ्रीडम ऑफ़ स्पीच सर्वोपरि है, लेकिन लक्ष्मण रेखा भी तो होनी चाहिए ना. कहने का मतलब रेगुलेट करने की ज़रूरत ही क्यों पड़े ? 'निज पर शासन फिर अनुशासन” के सिद्धांत को स्वतः लागू करे ना मीडिया के लोग. मीडिया के एंकरों का, जर्नलिस्टों का बिना ऑथेंटिकेशन के महज कल्पना के सहारे प्रश्नवाचक चिन्ह की आड़ लेकर विवेचना या विचार प्रस्तुत करने का क्या औचित्य है ? क्यों ना मीडिया की इस पौध को फिक्शन राइटर बुलाया जाए. या फिर वे पॉलिटिक्स ज्वाइन कर लें.

लेखक

prakash kumar jain prakash kumar jain @prakash.jain.5688

Once a work alcoholic starting career from a cost accountant turned marketeer finally turned novice writer. Gradually, I gained expertise and now ever ready to express myself about daily happenings be it politics or social or legal or even films/web series for which I do imbibe various  conversations and ideas surfing online or viewing all sorts of contents including live sessions as well .

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