ये विज्ञापन मर्दों की सत्ता को ही मजबूत करता है
मैं औरत हूं और यही मेरी पहचान है. मैं मर्द नहीं हूं. मर्द होना भी नहीं चाहती. नहीं, मैं हर काम बिलकुल मर्दों की तरह नहीं कर सकती. हर काम को बिलकुल मर्दों की तरह कर लेना मेरी आजादी का पैमाना भी नहीं है.
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आजकल सोशल मीडिया पर एक विज्ञापन काफी चर्चा में है. एक स्त्री, जो पेशे से आर्किटेक्ट है और किसी बड़ी कंपनी में काम करती है, वो और उसकी बॉस कार में जा रहे हैं. बॉस से उसकी प्रमोशन और एक बड़ा प्रोजेक्ट न दिए जाने को लेकर बहस हो जाती है. आखिर में वो कहती है कि वो ये नौकरी छोड़ रही है, अपनी खुद की कंपनी शुरू करने के लिए. लेकिन आखिर उसको वो बड़ी जिम्मेदारी क्यों नहीं दी जाती? इसलिए क्योंकि वो औरत है? नहीं, क्योंकि वो प्रेग्नेंट है. बॉस कहती है कि इस वक्त तुम्हें बच्चे पर ध्यान देना चाहिए. लेकिन वो इस बात पर अड़ी है कि सात महीने का पेट लेकर भी साइट पर घंटों खड़ी रह सकती है और बिलकुल मर्दों की तरह काम कर सकती है. चूंकि वो औरत है, इसलिए मर्दों से किसी मायने में कम नहीं.
विज्ञापन फूले हुए पेट वाली उस औरत के गर्व से चमचमाते चेहरे और बहुत आत्मविश्वास से दिए जवाब पर खत्म होता है. देखने वाली लड़कियों की आंखों में खुशी के आंसू होते हैं. आह, हम भी किसी से कम नहीं. कंपनी ये विज्ञापन बनाकर औरतों की बराबरी का पैरोकार होने का दंभ भरती है. औरतें ये देखकर भावुक हो जाती हैं कि स्त्रियां बिलकुल बराबर हैं. वो सबकुछ बिलकुल मर्दों की तरह कर सकती हैं. मर्द तो जाहिर है खुश होते ही हैं. जेंडर सेंसिटिव कैसे कहलाएंगे भला.
लेकिन मुझे इस विज्ञापन पर ऐतराज है. इसे समझने के लिए पहले ये विज्ञापन देख लीजिए...
ये आजादी नहीं, आजादी के भ्रम में गुलामी और शोषण को और मजबूत बनाने का विज्ञापन है. मैं औरत हूं और यही मेरी पहचान है. मैं मर्द नहीं हूं. मर्द होना भी नहीं चाहती. नहीं, मैं हर काम बिलकुल मर्दों की तरह नहीं कर सकती. हर काम को बिलकुल मर्दों की तरह कर लेना मेरी आजादी का पैमाना भी नहीं है.
लेकिन ये विज्ञापन क्यों कहता है कि सात महीने का पेट लेकर भी एक औरत साइट पर घंटों खड़ी रह सकती है. मर्दों की सत्ता क्यों चाहती है कि औरतबच्चा भी पैदा करे और कॅरियर में भी बिलकुल मर्दों के बराबर काम करे. यह व्यवस्था बराबरी के इस ख्याल को इस तरह हमारे दिमागों में क्यों ठूंसदेना चाहती है कि हम हर काम मर्दों की तरह करने को ही अपने जीवन का मकसद, अपने आजाद और बराबर होने का पैमाना मान लें.
अपने गर्भ में नए जीवन को धारण की हुई स्त्री दस घंटे नहीं खड़ी रह सकती. उसे दस घंटे नहीं खड़े रहना चाहिए. ये समाज, ये दुनिया ऐसी होनी चाहिए कि उसे दफ्तर में दस घंटे कंप्यूटर पर अपना सिर न फोड़ना पड़े. बीपीओ और कॉल सेंटर में आठ घंटे मूर्ख कस्टमरों की बकवास न सुननी पड़े, उसे भरी दुपहरी में चौराहे पर खड़े होकर ट्रैफिक कंट्रोल न करना पड़े, कनॉट प्लेस मेट्रो स्टेशन के मेटल डिक्टेटर पर आठ घंटे खड़े होकर चेकिंग न करनी पड़े, पीटीसी के लिए भागना न पड़े, दफ्तर के तनाव और दबाव न सहने पड़ें, उसके सिर पर उस वक्त भी काम में खुद को साबित करने का बोझ न हो, उनके मन में नौकरी खो देने का डर न हो, कॅरियर में पिछड़ जाने की चिंता न हो. और ये सिर्फ सात महीने के भारी पेट के साथ नहीं, उस दिन से हो, जिस दिन से इस संसार के लिए एक नए मनुष्य के सृजन का काम उसके हिस्से आया हो.
बच्चा पैदा करना कोई निजी काम नहीं है. वह एक सामाजिक कर्म है. यह सिर्फ एक स्त्री-पुरुष और उसके परिवार की चिंता का सवाल नहीं है. यह पूरे समाजकी चिंता का सवाल है. धरती पर जन्म लेने वाला हर मनुष्य कल को इस देश का, इस समाज का नागरिक होगा. अपने अच्छे-बुरे हर रूप में वह इस समाज मेंअपना योगदान देगा. किसी बच्चे को मां-पिता संदूक में बंद करके नहीं रखते. वो इस दुनिया में जाता है और दुनिया का होता है. इसलिए ये इस दुनिया की भी जिम्मेदारी है कि जन्म के पहले दिन से नहीं, गर्भ में आने के दिन से उसकी परवाह की जाए.
इजाडोरा डंकन ने अपनी आत्मकथा में लिखा था कि संसार की सब मांओं को धरती के सबसे कोनों पर छोड़ दिया जाना चाहिए. संसार की सबसे अच्छी किताबें, सबसे सुंदर संगीत, सबसे उन्नत कलाएं, उनके लिए होनी चाहिए. मैं जानती हूं कि ये बहुत रूमानी बात है. हम औरतें उस मुल्क में रहती हैं, जहां इस बात की भी परवाह नहीं की जाती कि किसी और वक्त न सही, लेकिन प्रेग्नेंसी के समय तो औरत से कोई तेज आवाज में बात न करे. उस पर गुस्सा न दिखाए. होने वाली मांओं को संसार की सबसे सुंदर किताबों और संगीत के बीच छोड़ देने की बात आप भी भूल भी जाएं तो भी कम से कम एक प्रेग्नेंट आकिटेक्ट औरत को साइट पर दस घंटे खड़े रहने की बिलकुल जरूरत नहीं है. बल्कि उससे ऐसी अपेक्षा की जाए तो उसे विरोध करना चाहिए. उसे बेशक ये कहना चाहिए कि वो मर्द नहीं है. उससे इस अवस्था में भी मर्दों जैसे काम की उम्मीद करना औरत की श्रेष्ठता को नहीं, बल्कि उस पुरुष समाज की कुटिलता और बेईमानी को साबित करता है.
फेमिनिज्म के विचार, आजादी और बराबरी के आइडिया को भी आखिरकार आपने अपने पक्ष में, शोषण के और औजार के रूप में भुना लिया है. होना तो ये चाहिए था कि हर होने वाली मां फूलों वाली राजकुमारी होती. उसके आसपास के सब लोग उसे प्यार करते. दफ्तर में भी हर कोई उससे मुहब्बत और नर्मी से पेश आता. काम गलत हो जाए तो भी कोई आवाज ऊंची नहीं करता. उसे खुश रखना हम सबकी जिम्मेदारी होती. लेकिन ऐसा नहीं होने वाला है. ये मुझे भी पता है और इस शहर, इस मुल्क के सारे दफ्तरों में इस वक्त अपने गर्भ में नए जीवन को धारण किए काम कर रही सारी औरतों को भी. तो आपसे ऐसी तो कोई उम्मीद नहीं है हमें. लेकिन हां, इस वाहियात विज्ञापन पर भी मैं ताली नहीं बजाने वाली.
मैं नया मनुष्य गढ़ रही हूं. ये सबसे बड़ा काम है. मैं बाकी के काम क्यों करूं ऐसे समय में. मैं भारी काम क्यों करूं. मैं क्यों दिन-रात भागती-दौड़ती फिरूं ताकि मैं मर्दों के बराबर हो जाऊं. बिलकुल नहीं. मैं मर्द नहीं हूं, मैं औरत हूं. मैं मैं हूं. मैं तुम नहीं हूं. हम तो ये सोच रहे हैं कि हमारी आजादी की लड़ाई को भी आपने कैसे हमारे ही खिलाफ इस्तेमाल कर लिया.
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