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Updated: 02 अक्टूबर, 2017 11:16 PM
प्रिया त्रिपाठी
प्रिया त्रिपाठी
 
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वाराणसी. ये वो शहर है जहां मैं पैदा हुई थी. जिसने मुझे अपने जीवन के शुरूआती सालों में कुछ अच्छी यादें दीं. हर साल गर्मियों की छुट्टियों में यहां आना और अपने दादा दादी के साथ पूरे शहर की खाक छानना. शहर का हर कोना घूमना. हर वो जगह जिसके बारे में आप सुनते होंगे. बनारस के विश्व प्रसिद्ध घाटों से लेकर संकरी गलियों तक. ये सब जगहें एक उम्र तक मेरे लिए मस्ती, मजा और उत्साह से भरी होती थी. शहर के घाटों से गुजरना, खासकर अस्सी घाट के पास घूमना, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के कैंपस में जाना और होली के समय भांग के नशे में मदमस्त इस शहर का अपना ही एक रोमांच है. इस जगह का नशा ऐसा है कि जो भी एक बार यहां आता है वो फिर बार-बार आता है.

लेकिन बनारस की ये तस्वीर किसी पुरुष के नजरिए से है. इसी बनारस की कई कहानियां जो महिलाओं के दिलो में दफन हैं. महिलाओं की बातों को या तो किसी ने सुना नहीं या फिर उस पर ध्यान नहीं दिया? जब महिलाएं अपने हिस्सा का बनारस लोगों के सामने पेश करती हैं तो लोगों में खलबली मच जाती है. वो परेशान हो जाते हैं.

BHUबीएचयू में महिलाओं का प्रदर्शन जरुरी था

मैं बीएचयू में लड़कियों के विरोध प्रदर्शन से खुश हूं. बहुत खुश. इस विरोध प्रदर्शन ने एक हफ्ते तक विश्वविद्यालय को बंद करा दिया था. 16 साल पहले स्कूल समय पर पहुंचने के लिए मैं अपनी साइकिल बीएचयू कैंपस के रास्ते ही दौड़ाया करती थी. स्कूल पहुंचने तक रास्ते में कई तरह के स्टंट किया करती थी. गाने गाते-गुनगुनाते टेढ़े-मेढ़े रास्तों को तेजी से पार करती.

जून में एक ऐसी दोपहरी को मैं लंका में विश्वविद्यालय कैंपस से गुजरते हुए अपने वही ट्रिक्स दोहरा रही थी. मैं अपनी मस्ती में उड़ रही थी. तभी अचानक मुझे कानफाड़ू हॉर्न की आवाज सुनाई दी. मैं कुछ समझ पाती तब तक कहीं से एक हाथ आया और मेरे स्तन को जोर से दबा गया. मैं हक्का-बक्का रह गई और सड़क पर गिर पड़ी. जब तक मैं खुद को संभाल पाती वो बाइक दूर जा चुकी थी. लेकिन उनमें से एक ने इतनी देर में मुझे भरपूर गालियां दी और साइकिल धीरे चलाने का ज्ञान दे गया. 'धीरे चलो'. ये ऐसा ज्ञान है जो सदियों से औरतों को पुरूषों द्वारा दिया जा रहा है. घटना के 16 साल बाद मुझे पता है कि मैंने हर उस पुरूष को मुंहतोड़ जवाब दिया है जिसने मुझे 'धीरे चलने' का ज्ञान दिया है.

अपने स्त्रीत्व, भगवान और साइकिल चलाने के अपने प्यार के लिए मैं कुछ भी करूंगी, 'धीरे चलने' के अलावा. मुझे रोक सकते हो तो रोक कर दिखाओ. कई सालों बाद मैं अपने पार्टनर के साथ वापस इसी शहर में आई. फिर से शहर को करीब से देखा. घूमा. उसे वो कैंपस दिखाया जहां उस घटना के पहले तक मैं अपनी साइकिल को हवा में उड़ाया करती थी.

इस बार मुझे उम्मीद थी कि कैंपस में घूमना मेरे लिए सुरक्षित और खुशनुमा होगा. क्योंकि मेरे साथ में एक पुरुष चल रहा था. लेकिन मैं गलत थी. एक युवक ने फिर से मेरे साथ वही बेहुदगी की जो सालों पहले मेरे साथ इसी सड़क पर हुई थी. वही गालियां. वही फब्तियां. वही घटिया मानसिकता. 16 साल बाद एक बार फिर मैंने उसी घृणा, बेचारगी और हताशा को जिया.

विश्वविद्यालय कैंपस में गुजारे गए मेरे वो दो साल जीवन का सबसे निराशाजनक समय था. पितृसत्ता से भरी बनारस की सोच ने मुझे कई बार ये बताया, जताया कि महिलाओं के प्रति पुरुषों के इस घिनौने सोच को मैं सच मानकर, नियति मानकर स्वीकार कर लूं. यही कारण है कि स्कूल के तुरंत बाद वो शहर छोड़ देने के अपने फैसले पर मैंने कभी दोबारा विचार नहीं किया.

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हालांकि ये पूरा शहर साल के 365 दिन किसी न किसी भगवान के नाम पर जश्न मनाने में मशरूफ रहता है. लेकिन फिर भी दुनिया की कोई ताकत मुझे यौन उत्पीड़न से बचा नहीं पाई थी. सबसे बुरी स्थिति तब थी जब पुरुषों और महिलाओं ने इस तरह की घटनाओं को अपने सामान्य जीवन का हिस्सा मानकर स्वीकार कर लिया था. मेरे साथ छेड़छाड़, भरी दुपहरी में लोगों से भरी सड़क पर हुई थी. लेकिन मेरी मदद के लिए कोई सामने नहीं आया. यहां तक की जब स्कूल में मैंने अपने दोस्तों को इस बारे में बताया तो उनमें से कुछ मुस्कुरा रहे थे. ऐसे जैसे की कुछ हुआ ही न हो. कुछ गलत तो बिल्कुल नहीं. यहां तक की मेरा एक दोस्त जो वर्षों से यहां रह रहा था. उसने तो मुझे हमेशा लड़कियों के साथ एक ग्रुप में साइकिल चलाने की सलाह दे डाली. साथ ही मुझे कहा कि थोड़ा 'ओवर स्मार्ट' बनो.

एक दोस्त ने अपनी 'बहादुरी' का बखान करते हुए बताया कि पिछली शाम को जब कुछ लोगों ने उसका पीछा किया तो कैसे उसने अपनी स्कूटी की स्पीड बढ़ाकर उनसे पीछा छुड़ाया. उन्होंने मुझे विश्वविद्यालय हॉस्टल का उदाहरण दिया, जहां पुरुष महिलाओं पर अपनी अंडरवियर फेंकते हैं या फिर उनका दुपट्टा खींचते हैं.

तब हमें पता नहीं था कि अपनी इस भयावह हालत के बारे में किससे बात करें. किसके पास अपनी शिकायत लेकर जाएं. आखिर किसे बताएं कि हम क्या-क्या झेल रहे थे. विश्वविद्यालय में महिलाओं के लिए कोई हेल्पलाइन नहीं थी. जब भी इस मुद्दे पर हम किसी से बात करने की कोशिश करते हमें सावधान रहने के लिए कहा जाता क्योंकि "आदमी तो कभी नहीं बदल सकते (मेन विल बी मेन)"

हो सकता है जब "मेन विल बी मेन" की ये कहावत पहली बार प्रयोग की गई हो तब महिलाएं टैक्स नहीं भरती हों. ये भी हो सकता है कि संस्कार और नैतिकता का पूरा भार सिर्फ महिलाएं ही उठाती हो. लेकिन अब समय आ गया है कि इस प्रथा को खत्म किया जाए. इसलिए विश्वविद्यालय में छात्राओं के प्रदर्शन की खबर सुनते ही मैं खुशी से झूम उठी. मैं विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लेने वाली हर लड़की को बधाई देना चाहती हूं. साथ ही ये भी आशा करती हूं कि लड़कियों के साथ-साथ अब उनके माता-पिता भी इस विरोध प्रदर्शन में उनका साथ देंगे.

16 साल पहले जिस लड़की को सड़क पर गिरा दिया गया था, आज वो अपनी उसी साइकिल पर सवार है. फुल वॉल्यूम में गाने गा रही है. चीख रही है. चिल्ला रही है. लोगों को बता रही है कि मुझे पकड़ सकते हो तो पकड़ कर दिखाओ.

(DailyO से साभार)

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लेखक

प्रिया त्रिपाठी प्रिया त्रिपाठी

लेखक खुद को फेमिनिस्ट और नवोदित लेखक बताती हैं

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