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Updated: 04 जुलाई, 2015 04:28 PM
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राजनीति और धर्म के चश्मे को उतार फेंकिए, दुनिया थोड़ी कम धुंधली दिखेगी. कभी-कभी ही सही, सरकार भी इस चश्मे से परे कुछ फैसले लेती है. अब महाराष्ट्र सरकार के इस फैसले को ही देख लीजिए - ऐसे मदरसे, जिनमें गणित, विज्ञान और सामाजि‍क विज्ञान की पढ़ाई नहीं होती है, को स्कूल नहीं माना जाएगा और न ही इनमें पढ़ने वाले बच्चों को स्टूडेंट. कुछ पोंगा-पंथी लोग भले ही नाक-भौं सिकोड़ेंगे, धरना-प्रदर्शन करेंगे लेकिन यह शिक्षा और शिक्षार्थियों के लिए लाभ वाला फैसला ही साबित होगा.

2 लाख विद्यार्थियों के भविष्य का सवाल

महाराष्ट्र में लगभग 1900 मदरसे हैं. इनमें करीब 2 लाख बच्चे पढ़ते हैं. राज्य सरकार 4 जुलाई इससे संबंधी एक सर्वे कराने वाली है. सर्वे का लक्ष्य 'आउट ऑफ स्कूल चिल्ड्रन (शिक्षा से वंचित बच्चे या सिर्फ धार्मिक शिक्षा लेने वाले बच्चे)' की पहचान करना और उन्हें मुख्य धारा की शिक्षा व्यवस्था में लाना है. शिक्षा से वंचित रह गए बच्चों के आंकड़े जब आएंगे, तब आएंगे. फिलहाल सिर्फ मदरसों में पढ़ने वाले बच्चों की भी बात की जाए तो करियर के हिसाब से ये 2 लाख बच्चे भी गला-काट प्रतिस्पर्धा में कहीं नहीं टिक पाएंगे.

धार्मिक शिक्षा का खात्मा नहीं

राज्य सरकार ने मदरसों के लिए औपचारिक स्कूली विषयों को भी शामिल करना अनिवार्य कर दिया है. लेकिन सरकार के इस आदेश में कहीं भी ऐसा नहीं है कि धार्मिक विषयों की पढ़ाई पर पाबंदी लगाई गई है. महाराष्ट्र के सामाजिक न्याय राज्यमंत्री दिलीप कांबले ने कहा, 'हम चाहते हैं कि अल्पसंख्यक जीवन के हर क्षेत्र में आगे आएं. इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि जब वे विद्यार्थियों को धार्मिक शिक्षा दे रहे हैं तो साथ ही अन्य विषयों की भी शिक्षा दें.     

बीजेपी या कांग्रेस जैसा कोई एंगल नहीं

कुछ अन्य राज्यों की तरह महाराष्ट्र में कोई मदरसा बोर्ड नहीं है. इसके पहले भी महाराष्ट्र की किसी अन्य सरकार ने मदरसों को स्कूल की मान्यता नहीं दी थी. हां यह जरूर है कि 2013 में कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन सरकार ने मदरसों के आधुनिकीकरण की योजना शुरू की थी. हालांकि तब भी मदरसों को स्कूल नहीं माना गया था.

अनुदान चाहिए तो अन्य विषयों को भी करना होगा शामिल

इस निर्णय से पहले ही महाराष्ट्र की सरकार ने राज्य में चल रहे मदरसों को अपने निर्णय से वाकिफ करा दिया था. उन्हें स्पष्ट बता दिया गया था कि यदि वे सरकारी अनुदान लेना चाहते हैं तो वे उनको अपने पाठ्यक्रम में औपचारिक स्कूली विषयों को भी शामिल करना होगा.   स्वागत योग्य फैसला है. ऊर्दू, अरबी, फारसी, संस्कृत और गीता-कुरान पढ़ने में कोई बुराई नहीं, बशर्ते इसके लिए बाजार भी हो. बिना बाजार के पढ़े-लिखे बेरोजगार होने से अच्छा है अनपढ़ होना. तब कम से कम आपका स्वाभिमान जिंदा रहता है. पढ़े-लिखे बेरोजगारों को तो अपनी आत्मा तक का सौदा करना पड़ जाता है. संस्कृत विद्यालयों के साथ भी सरकार को कुछ ऐसे ही क्रांतिकारी कदम उठाने चाहिए... हालांकि देखना है वो कब होगा!

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लेखक

चंदन कुमार चंदन कुमार @chandank.journalist

लेखक iChowk.in में पत्रकार हैं.

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