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Updated: 24 जनवरी, 2020 11:02 PM
अनु रॉय
अनु रॉय
  @anu.roy.31
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कश्मीर जाना है... होश तो ठिकाने हैं? जिस किसी से ये कहा सबका यही रिएक्शन आया. किसी ने मजाक में कहा. तो किसी की आवाज़ में फ़िक्र थी. मगर मुझे और कहीं नहीं सिर्फ़ कश्मीर (Kashmir) जाना था. कश्मीर के किसी भी शहर में होना था गुज़रते साल के आख़िरी दिनों में और आने वाले साल के आग़ाज़ का सूरज वहीं देखना था. घरवाले जानते हैं कश्मीर को ले कर मेरी मुहब्बत को. अम्मा तो सबसे बेहतर. क्योंकि उन्होंने मुझे जन्म जम्मू मिलिट्री हॉस्पिटल में दिया था. तो उन्हें ये बात सबसे बेहतर पता है. वो जानती हैं पहाड़ों से मैं किस तरह जुड़ा हुआ महसूस करती हूं. पहाड़ मेरे लिए पिता जैसे हैं, जिसके साये में मैं ख़ुद को सबसे ज़्यादा महफ़ूज़ मानती हूं. फिर कश्मीर जाने से डर का क्या वास्ता. थोड़ी ज़िद करनी पड़ती है और लोग मान जाते हैं बात को, क्योंकि कहीं न कहीं बात भी अपने में मुहब्बत समेटे हुए होती है.

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दिसंबर के आख़िरी पांच दिन बाक़ी थे. न्यूज़ में श्रीनगर में हुई भयंकर बर्फ़बारी दिखा रहे थे. ख़बर पढ़ते हुए एक मोहतरमा बोल रही थीं कि, आने वाले दस दिन श्रीनगर के सबसे ठंडे दस दिन होने वाले हैं. टेम्प्रेचर माइनस सात के नीचे जाएगा. अम्मा की फ़िक्र बढ़ गयी थी लेकिन मुझे  उत्सुकता हो रही थी. बर्फ़ के नर्म फाहे महबूब की मीठी बोली से लगते हैं. मेहंदी हसन की ग़ज़ल भी कुछ-कुछ गिरते बर्फ़ सी मुलायम होती है.

मैं सबको भरोसा दिला कर और उत्सुकता को मन में दबा कर घर से निकली थी एयरपोर्ट पर कुछ और साथी मिलने वाले थे जिन्हें मैंने इस ट्रिप में अपने साथ घसीटा था. वैसे बर्फ़बारी की फ़िक्र से ज्यादा मेरे घरवालों और यार-दोस्तों को फ़िक्र कश्मीर के हालात को लेकर थी. सब जानते ही हैं कि अनुच्छेद 370 के हटने के बाद वहां के क्या हालात हैं. न इंटरनेट. न फ़ोन की सर्विस. कैसे वहां से कम्यूनिकेट करूंगी ये सोच कर थोड़ी परेशान मैं भी थी लेकिन वो परेशानी फ़्लाइट के टेक-ऑफ़ होते ही फुर्र हो गई.

नीला आसमान, बर्फ़ से ढकें पहाड़. नीचे नज़र डालें तो सिर्फ़ रुई के शक्ल वाले आवारा बादल. मुहब्बत हो जाए ऐसी फिजा. कश्मीर की घाटी शायद दिखने लगी थी. दिल दो धड़कन छोड़ कर धड़क रहा था. दिल में सिर्फ़ रोज़ा फ़िल्म का वो गाना चल रहा था जिसमें कहा गया था कि

ये खुली वादियां, ये खुला आसमां

आ गए हमकहां ए मेरे साजना!

गाना मेरे दिल में लूप में चल रहा था. लेकिन श्रीनगर एयरपोर्ट पर उतरते ही वो गाना बजना अचानक से रुक गया. एकदम छोटा सा एयरपोर्ट और इतनी भीड़ की सांस लेने में मुश्किल होने लगी. भीड़ भी वैसी नहीं जैसी हम अपने शहरों में देखते हैं. एयरपोर्ट पर थोड़ी देर पहले ही शायद कोई फ़्लाइट लैंड हुई थी. जिसमें से वो यात्री बाहर निकले थे जो ‘उमरा’ करने मक्का गए हुए थे. क़रीब सौ से ज़्यादा लोग रहे होंगे. सब ऊपर से नीचे तक लम्बा सा कुर्ता जिसे वहां के लोग ‘फिरन’ बोलते हैं, वो पहन रखा था. सिर पर टोपी और गर्दन में मफलर.

पता नहीं क्यों उस भीड़ को देख कर पहली बार डर सा लगा. लगेज कलेक्ट करने के लिए मैं उस भीड़ के पीछे कुछ दूर हट कर खड़ी हो गयी. फोन में नेटवर्क भी नहीं था. काफ़ी देर तक रुकने बाद भी नम्बर नहीं आया. लगेज उठाने के लिए तो मैं डरते हुए उस भीड़ की तरफ़ बढ़ी. उन लोगों के बीच अपनी जगह बना कर खड़ी हो गयी. वहां वो लोग अपनी भाषा में कुछ बोल रहे थे जो मुझे ज़रा भी समझ नहीं आ रहा था. मेरे सभी दोस्तों को उनके बैग मिल गए थे बस मेरा आना बाक़ी था. मैं चिढ़ के साथ डर भी रही थी.

पता नहीं डर की वजह क्या थी? क्या वहां के लोग जिनके लिए न्यूज़ में दिन-रात ज़हर उगला जाता है. जिन्हें पत्थरबाज़ के नाम से हम जानते हैं. या फिर उनकी लम्बी दाढ़ी और सिर पर वो टोपी जिसे देख कर हम मन में सोच लेते हैं कि ये ज़रूर कुछ न कुछ ग़लत करेगा या करता होगा. वैसे इसमें ग़लती मेरी नहीं थी, देश में जो हालात बनाए गए हैं ये उसका इम्पैक्ट था.

मैं यही सब सोच रही थी कि सामने से मुझे मेरा बैग आता हुआ दिखा. मैं उसे उठाने के लिए आगे बढ़ी ही थी कि मेरे बग़ल में खड़ा हुआ वो शख़्स, जिसकी दाढ़ी और टोपी देख कर मैं न जाने क्या-क्या सोच रही थी उसके कहा, 'बेटा आप ठहरो.' और बेल्ट पर से मेरे दोनों बैग उठा कर किनारे खड़ी मेरी ट्रॉली में ला कर रख दिया.

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मैंने मुस्कुरा कर शुक्रिया कहा तो बदले में उन्होंने सवाल पूछा, “न्यू ईयर मनाने आए हो.” जवाब हां में देकर उन्हें एक बार फिर से थैंक्स बोल कर एयरपोर्ट से बाहर निकल गयी जहां प्री-बुकिंग से बुक हुई टैक्सी इंतज़ार कर रही थी और वहीं हम से हमारे ड्राइवर सबीर पठान भी मिले.

इतने दिनों से उर्दू जो और जितनी सीखी थी वो सब जोड़-तोड़ कर सबीर को मैंने, ‘अस्सलाम अलैकुम' कहा तो उसका चेहरा खिल उठा और खिलखिलाता हुआ जवाब आया, ‘वालेकुम सलाम’. जवाब सुन कर इत्मिनान हुआ कि सही बोला था मैंने. आगे कोई बात होती इसके पहले ही गाड़ी को एयरपोर्ट के पहले चेक-पोस्ट पर रोका गया. सबीर ने अपने पेपर दिखाए तो गाड़ी छूटी. 'श्रीनगर एयरपोर्ट बीएसएफ़ के कंट्रोल में है न इसलिए पेपर दिखाना पड़ता है. वैसे कोई मसला नहीं है.'

मैं सबीर की बात कम सुन रही थी अब. मेरी नज़र हर तरफ़ बंदूक़ लिए तैनात जवानों को देख रही थी. श्रीनगर की जिस भी गली से हमारी गाड़ी गुज़र रही थी हर जगह सावधान की पोजिशन में बंदूक़ लिए अकेले खड़े आर्मी और बीएसएफ़ के जवान मुस्तैद दिख रहे थे. इक्का-दुक्का लोग सड़कों से गुजरते दिख रहे थे. वो जो सोच कर आयी थी ये शहर मुझे वैसा नहीं दिख रहा था. मुझे सब वीरान सा लग रहा था. मेरे महबूब शहर को तो ऐसा बिलकुल नहीं होना था. जो उत्साह था पता नहीं वो क्यों ख़त्म होता सा लगा.

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लेखक

अनु रॉय अनु रॉय @anu.roy.31

लेखक स्वतंत्र टिप्‍पणीकार हैं, और महिला-बाल अधिकारों के लिए काम करती हैं.

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