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Updated: 05 अक्टूबर, 2015 06:35 PM
राहुल मिश्र
राहुल मिश्र
  @rmisra
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आजादी के बाद ही आरक्षण की व्यवस्था की गई. यहां जाति के आधार पर वंचित वर्ग को सामाजिक और आर्थिक बराबरी देने के लिए यह व्यवस्था लागू हुई. लेकिन इसका जिस तरह राजनीतिकरण किया गया है, उससे साफ है कि इस देश में किसी को भी आरक्षण की सुविधा मिल सकती है. इसके लिए सबसे जरूरी है आरक्षण की मांग करना. यह मांग लोकसभा चुनाव या फिर किसी राज्य में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले की जाए तो इंटरनेट की भाषा में कहें तो ट्रेंड करने की गुंजाइश बढ़ जाएगी. उदाहरण चाहिए, गुजरात के हार्दिक पटेल से लेकर राजस्थान के गूजर और जाट तक हैं. वैसे, फिलहाल राजस्थान सरकार ने जो प्रस्ताव दिया है, उससे तो वहां आरक्षण मौजूदा 50 फीसदी की सीमा को पार कर 68 फीसदी हो जाएगा.

बहरहाल, देश में शेड्यूल कास्ट और शेड्यूल ट्राइब के लिए आरक्षण का प्रावधान संविधान लागू होने के साथ कर दिया गया था. हालांकि, इसे लागू करने के लिए अंग्रेजी हुकूमत की बनाई गई एससी/एसटी सूची का इस्तेमाल कर लिया गया. संविधान ने इस संभावना पर गौर किया था कि कुछ लोग (जातियां) आरक्षण का लाभ पाने की सूची में जगह नहीं बना पाए होंगे, लिहाजा एक एससी/एसटी कमीशन का भी प्रावधान किया गया. इस कमीशन का काम लाभ ले रहे जातियों की समय-समय पर समीक्षा करते रहने के साथ-साथ नए लोगों को जोड़ने या फिर लाभ पा रहे लोगों को सूची से बाहर करने का है. आजादी के बाद कुछ दशकों में जहां आरक्षण 22 फीसदी से बढ़कर 49.5 फीसदी हो गया वहीं इस कमीशनों पर भी काम का दबाव पड़ा जिसके चलते एससी/एसटी कमीशन को तोड़ते हुए एससी कमीशन और एसटी कमीशन बना दिया गया.

शुरुआती दशकों में जब आरक्षण का लाभ लोगों तक पहुंचा, आरक्षण पाने की उत्कंठा को भी वेग मिलने लगा. राजनीतिक दलों को भी समझ आने लगा कि वोट बैंक इन्हीं मांगों के इर्द-गिर्द बसाया जा सकता है. बहरहाल, साल 1979 में आरक्षण नीति में बड़े बदलाव की शुरुआत हुई. तत्कालीन केन्द्र सरकार ने भारतीय समाज में सामाजिक और शिक्षा के मापदंड में पिछड़े हुए लोगों का आंकलन करने के लिए मंडल कमीशन का गठन किया. इस कमीशन को 1,257 जातियां मिली जिन्हें आरक्षण का लाभ दिया जा सकता था और इन्हें अन्य पिछड़ी जातियां या ओबीसी कहा गया. साल 1980 में मंडल कमीशन ने केन्द्र सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंप दी और आरक्षण की सीमा को तत्कालीन 22 फीसदी से बढ़ाकर 49.5 फीसदी करने की सिफारिश कर दी. हालांकि, इस कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने में लगभग 2 दशक का समय लग गया.

ओबीसी के लिए आरक्षण लागू करने के बाद एससी कमीशन और एसटी कमीशन की तर्ज पर ओबीसी कमीशन भी बना दिया गया. जहां मंडल कमीशन ने मात्र 1,257 जातियों को आरक्षण के लिए उपयुक्त पाया था, वहीं देखते ही देखते ओबीसी कमीशन के सामने भी आरक्षण की नई मांगों का अंबार लग गया. आंकड़ों के मुताबिक 2006 तक इस कमीशन की सिफारिशों के चलते ओबीसी लिस्ट लगभग 60 फीसदी बड़ी हो गई, यानी 1000 से ज्यादा नई जातियां इस लिस्ट में शामिल कर दी गईं.

कुल मिलाकर देखा जाए, तो देश में किसी भी जाति विशेष के लिए आरक्षण की मांग करने की मनाही नहीं हैं. लिहाजा, आपको बताने का यह मुफीद मौका है कि आरक्षण की रेस में आपके भी शामिल हो जाने का यही सही मौका है. वैसे भी, चुनाव का समय तो आरक्षण की नयी-नवेली मांग पेश करने का सबसे मुफीद मौका है ही. आखिर पिछले छह दशकों में हमने जिस तरह से इसका राजनीतिकरण किया है, उससे कम-अज़-कम यह भ्रम तो टूट ही गया है कि आरक्षण कुछ वक्त के लिए और कुछ खास लोगों के लिए की गयी व्यवस्था है.

आज, आपको अधिक कुछ तो करना नहीं है....बस, एक ट्रैक सूट पहनिए और आरक्षण की रेस में हो जाइए शामिल.

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लेखक

राहुल मिश्र राहुल मिश्र @rmisra

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में असिस्‍टेंट एड‍िटर हैं

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