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Updated: 25 नवम्बर, 2015 02:19 PM
अभिषेक पाण्डेय
अभिषेक पाण्डेय
  @Abhishek.Journo
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एक शिक्षित लड़की दो परिवारों को साक्षर बनाती है, मां के रूप में बच्चे की पहली शिक्षिका होती है, मां, पत्नी और बहन के रूप में जिंदगी की हर जंग में कदम-कदम पर पुरुष का साथ निभाती है. शायद इसीलिए इस देश में उसके रूप को देवी मानकर उसकी पूजा की जाती है, उन्हें घर की लक्ष्मी माना जाता है. लेकिन क्या हकीकत में भी एक स्त्री को यह सम्मान मिलता है? तो जवाब है, नहीं. यह देश आज भी बुढ़ापे का सहारा बनने और अपने वंश को आगे ले जाने के नाम पर बेटों को तवज्जो देता है.

पहले कहा जाता था कि निरक्षरता के कारण ही लोग बेटियों को गर्भ में मारते हैं और बेटे की चाहत रखते हैं. लेकिन हाल ही में आए आंकड़े दिखाते हैं कि भले ही भारत की साक्षरता में पिछले एक दशक के दौरान 11 फीसदी से ज्यादा की बढ़ोतरी हुई हो लेकिन लड़कियों के प्रति इस देश की सोच वहीं की वहीं रह गई है. यानी लोगों में आज भी बेटों की चाहत बरकरार है. बेटियां पैदा करना आज भी उनके लिए मजबूरी ही है. आइए जानें बेटियों के प्रति अपनी सोच न बदल पाने वाले हमारे समाज का सच.

बेटों को तवज्जो देने का सिलसिला जारी हैः 

लोगों की साक्षरता और सम्पन्नता बढ़ने के बावजूद उनकी सोच नहीं बदली है. हाल ही में आए परिवार के आकार और लिंगानुपात के आंकड़ों के मुताबिक बेटा पाने की चाहत में लोग गर्भ में पल रहे बच्चे के लिंग की जांच करवाने और बार-बार गर्भधारण जैसे तरीके अपना रहे हैं. 

इसके मुताबिक बड़े परिवारों में लिंगानुपात में कम अंतर नजर आया. इससे पता चलता है कि जिन परिवारों में बेटे कम थे या नहीं थे वहां बार-बार प्रेग्नेंसी को चुना गया. या यूं कहें कि तब तक बार-बार गर्भधारण किया जाता है जब तक कि बेटा पैदा न हो जाए. यही वजह है कि ऐसे परिवारों की संख्या 9 लाख थी जिनमें सभी 6 लड़कियां थीं जबकि सभी 6 बेटों वाले परिवारों की संख्या महज 3 लाख ही थी.

वहीं जिन महिलाओं के एक ही बच्चे थे उनमें से 2.2 करोड़ महिलाएं ही बेटियों की मां थीं जबकि ऐसी 2.85 करोड़ महिलाओं के पास बेटे थे. जिससे पता चलता है कि लड़कियों की तुलना में कहीं ज्यादा संख्या में लड़के पैदा हुए. इतना ही नहीं जिन महिलाओं के दो बच्चे थे उनमें से 2.6 करोड़ महिलाओं के दो बेटों थे जबकि इससे लगभग आधी संख्या यानी कि 1.33 करोड़ महिलाएं ही ऐसी थी जिनके दो बेटियां थीं. कुछ यही हाल उन परिवारों का भी है जिनके तीन बच्चे हैं. ऐसे परिवारों में भी सभी तीन लड़के या दो लड़के और एक लड़कियों की संख्या उन परिवारों से ज्यादा थी, जहां तीनों लड़कियां थीं या दो लड़कियां और एक लड़का था.

लिंग जांच न करवाने वाले बड़े परिवारों में तो और भी चौंकाने वाली बात सामने आती है. इन परिवारों में बेटों की चाह में बार-बार गर्भधारण करने का चलन दिखता है. यही वजह है कि जिन परिवारों में 6 बच्चे थे उनमें छह लड़कों की बजाय छह लड़कियों के होने की संभावना ज्यादा थी. डेटा के मुताबिक परिवार के बड़े होने पर लड़कियों के बचने की संभावनाएं घटती जाती हैं. जिन परिवारों में एक ही बच्चा है उनमें लड़कियों के लड़के मुकाबले बचने की संभावनाएं ज्यादा होती है, क्योंकि लड़कियों की प्राकृतिक शिशु मृत्युदर लड़कों से कम होती है. दो बच्चों वाले परिवारों में लड़कियों के बचने की संभावनाएं काफी घट जाती है लेकिन 6 बच्चों के परिवारों में तो लड़कियों के बचने की संभावनाएं सबसे कम होती हैं.

शायद यही वजह है कि तमाम प्रयासों के बावजूद अब भी देश में महिला और पुरुष लिंगानुपात में जबर्दस्त अंतर है. खासकर 0-6 वर्ष की उम्र के बच्चों का लिंगानुपात वर्ष 2001 के प्रति एक हजार लड़कों पर 923 लड़कियों के मुकाबले घटकर वर्ष 2011 में प्रति एक हजार लड़कों पर 919 रह गया. जिससे पता चलता है कि भारतीयों की पढ़ी-लिखी आबादी भी बच्चियां पैदा करने से न सिर्फ हिचकता है बल्कि उन्हें गर्भ में मारा भी जा रहा है. यूनीसेफ के आंकड़ों के मुताबिक भारत में हर रोज लड़कों की तुलना में 7 हजार लड़कियां कम पैदा होता हैं, जबकि ब्रिटिश मेडिकल जनरल लैंसेट के मुताबिक देश में हर साल 5 लाख लड़कियों को गर्भ में ही मार दिया जाता है.

मतलब जमाना बदल गया, लोगों का जीवन स्तर बेहतर हो गया, भारत आर्थिक तरक्की कर गया लेकिन लोगों की सोच पुरातन ही रही और इसीलिए आज भी वह पुत्री नहीं पुत्र रतन धन ही पाना चाहते हैं!  

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लेखक

अभिषेक पाण्डेय अभिषेक पाण्डेय @abhishek.journo

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं.

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