मैं बूढ़ी नहीं होना चाहती!
कैंसर से लड़ रहे सत्तर साल के विनोद खन्ना की मौत पर सोशल मीडिया शोककुल हो उठा. मैं सोचती हूं, लोग दुखी क्यों हैं? वो कैन्सर से लड़ रहे थे. उन्हें तो मुक्ति मिली है.
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पिछले दिनों मेरे बर्थडे पर जो बधाइयां मिलीं उनमें से कुछ में सौ, कुछ सौ से भी अधिक उम्र तक जीने की दुआएं थीं. मैं डर जाती हूं. ये दुआ नहीं बद्दुआ है. क्या करूंगी सौ साल तक जीकर. ज़िंदगी तभी तक जी जाती है जब तक हौसला रहता है. सौ साल तक पहुंचते-पहुंचते ना आंख की रौशनी बचती है ना कान की सुनने की शक्ति. चबा कर खाने हिम्मत रखने वाले सारे दांत मैदान छोड़ कर भाग चुके होते हैं. रिश्ते याद नहीं रहते सिर्फ "राम का नाम" याद रहता है. भजन, आरती, चालीसा यादों से डिलीट हो चुके होते हैं.
सौ साल तक जीने की दुआ देने वाले स्वयं भी सौ साल तक जीने की इच्छा रखने वाले होते हैं. लेकिन मैंने कहा "मैं साठ साल से ज़्यादा नहीं जीना चाहती". क्यों? ‘क्योंकि मैं बूढ़ी नहीं होना चाहती.’ आजकल मार्केट में तरह-तरह की सर्जरी आ गई हैं. कौन कहता है बूढ़ी होने?
मैं शायद अपनी बात समझा नहीं पाई. मुझे याद आता है नानी ने कहा- तुमको देखने का बहुत मन है कब आओगी? ‘तुम्हारे श्राद्ध का भोज खाने आउंगी.’
‘बड़ी होकर बिगड़ गई हो. मैं तो तुम्हारे बच्चे की शादी देखकर ही मरूंगी.’
नानी की हालत ठीक नही थी. लेकिन वो और जीना चाहती थीं. नाती पोते की भी शादी हो गई थी. घर में तीसरी पीढ़ी आ गई थी. नानी सालों से बिस्तर पर पड़ी हुई थीं, लेकिन उनके जीने की ललक खत्म नहीं हुई थी. इंसान क्यों सिर्फ जीना चाहता, मरना क्यों नहीं चाहता? मौत से क्यों डरता है जबकि मौत में मां की गोद सा सुकून होता है.
कैंसर से लड़ रहे सत्तर साल के विनोद खन्ना की मौत पर सोशल मीडिया शोककुल हो उठा. मैं सोचती हूं, लोग दुखी क्यों हैं? ये तो खुशी की बात है. वो कैन्सर से लड़ रहे थे. उन्हें तो मुक्ति मिली है. उन्होंने अपने जीवन में सब देख लिया जो देखना चाहते थे. सब भोग लिया जो भोगना चाहते थे, फिर ऐसा क्या भोगना बाकी रह गया जिसके लिये शोक में डूबा जाए.
पिछले साल मेरी एक फ़्रेंड की मम्मी की जब कैंसर से लड़ते-लड़ते मौत हो गई तो उसने कहा ‘वैसे तो मौत का समय निश्चित नहीं होता लेकिन एक तो उम्र हो गई थी दूसरा कैंसर, इससे बेहतर तो मौत है.’
मैं साठ साल से ज़्यादा जीना नही चाहती. इसलिये नहीं कि मेरी झुर्रियां आ जाएंगी बल्कि इसलिये कि तब मैं किसी और पर आश्रित हो जाउंगी. आश्रित जीवन एक तरह का अभिशाप है स्वयं के लिये भी और जिसपर आश्रित होते हैं उनके लिये भी.
जैसे जन्म की उम्र होती है वैसे ही मौत की उम्र होनी चाहिए. जितनी पीड़ादायक समय से पहले की मौत होती है उतनी ही पीड़ादायक समय के बाद की मौत होती है. दादी के अंतिम दिनों में वो मुझे पहचान भी नहीं पाई थीं. मैंने जींस पहनी थी और उन्होंने कहा तुम साड़ी में बहुत अच्छी लग रही हो. उनकी उम्र लगभग सौ या सौ से ज़्यादा हो गई थी. सारा दिन बिस्तर पर पड़ी रहती थीं. नित्य क्रिया के लिये उन्हें बच्चों का डाइपर पहना कर रखा जाता था और खाने में भी बच्चों का सेरेलैक खिलाया जाता था.
मुझे लगता है ऐसी ज़िंदगी जीने से क्या फायदा, लेकिन मौत अपने हाथ नहीं होती है. उम्र हो जाने पर भी जीने की जिजीविषा और मौत से डर समय के साथ और बढ़ता जाता है. पहले बच्चें बड़े हो जायें, फिर बच्चों की शादी हो जाये. फिर उनके बच्चे हो जायें. फिर वो बड़े हो जाएं. फिर उनकी शादी हो जाए. फिर उनके बच्चें भी देख लूं.
पहले जब संयुक्त परिवार हुआ करता था तब जैसे बच्चे घर में पल जाते थे वैसे बुजुर्ग भी संभाल लिये जाते थे. आजकल बच्चे क्रच में पलते हैं और अपने यहां ओल्ड एज होम का हेल्थी कल्चर शुरू भी नहीं हुआ है. लेकिन ओल्ड एज होम घर और परिवार वालों का विकल्प हो सकता है बुढ़ापे से निजात नहीं.
कुछ साल पहले मेरी सासु मां की सहेली की अचानक ही मौत हो गई. सासु मां ने कहा ‘अभी क्या हुआ था 60-65 साल की उम्र होगी बस. भरा पूरा घर है, और अभी ही.’ मैं "अभी ही" का मतलब समझ गई. सासु मां का मतलब था उन्हें तो नाती पोतों के भी बच्चे देख कर जाना चाहिये था. जबकि मेरी नजर में ऐसी ही मौत सम्मानित मौत है. आप लाचार नहीं होते, आप किसी पर आश्रित नहीं होते. अगर चलते-फिरते ही मौत हो जाये तो इससे बेहतर कोई मौत नहीं.
लेकिन फिर बात वही आ जाती है जन्म और मृत्यु उसके हाथ है.
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