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Updated: 04 अप्रिल, 2017 06:09 PM
पारुल चंद्रा
पारुल चंद्रा
  @parulchandraa
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अपने गुरूओं के बाद जिनके राग आलाप सुनसुनकर कितनों ने ही अपने सुर पक्के किए, उनके लिए किशोरी अमोनकर का दुनिया को अलविदा कहना किसी सदमे से कम नहीं है. संगीत जगत की सबसे बुरी खबर यही है कि किशोरी अमोनकर अब हमारे बीच नहीं रहीं. अपने जीवन के 84 साल शास्त्रीय संगीत को समर्पित करने के बाद वो दुनिया छोड़कर चली गईं.  

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धमनियों में सिर्फ संगीत बहता था

किशोरी अमोनकर हिंदुस्तान के प्रसिद्ध घरानों में से एक जयपुर-अतरौली घराना या 'अल्लादिया खान घराना' से ताल्लुक रखती थीं. उनकी मां मोगूबाई कुर्दीकर ने 10 सालों तक अल्लादिया खान साहब से प्रशिक्षण हासिल किया था. किशोरी अमोनकर ने अपनी मां से इस घराने की विशेषताएं जैसे छोटी बंदिशें, खुली आवाज की गायकी और वक्र तानों की बारीकियां सीखीं. वो सिर्फ इसी घराने से बंधी नहीं रहीं बल्कि कई घरानों में उन्होंने संगीत साधना की. उनकी गायन शैली पर सभी घरानों की झलक दिखाई देती थी.

वो गायकी के साथ प्रयोग किया करती थीं. लेकिन उन्हें रागों से छेड़छाड़ कतई पसंद नहीं थी. उनकी अपनी एक अलग गायन शैली थी. वो चाहे ख्याल हो, ठुमरी हो, भजन हों या फिर फिल्मी गीत ही क्यों न हो, किशोरी अमोनकर की गायकी हर विधा को निखार देती थी. ख्याल गायकी में उन्हें महारथ हासिल थी.

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सादगी और एकांत बहुत भाता था

किसी भी कलाकार के लिए एकांत जरूरी होता है खासकर रियाज के वक्त. गायकी में गंभीरता जरूरी है और इस गंभीरता के प्रति किशोरी अमोनकर इतनी गंभीर थीं कि उनका व्यक्तित्व भी इससे अलग नहीं रह पाया. अकेलापन उन्हें सुकून देता था. उनकी गायकी में उनका पूरा व्यक्तित्व रचा बसा था. वो समय खराब करने में यकीन नहीं रखती थीं, और शायद इसीलिए इंटरव्यू देना उन्हें पसंद नहीं था. कहती थीं इससे रियाज में खलल पड़ता है. उनकी तस्वीरें देखिए, उनका व्यक्तित्व किसी के भी जहन पर अलग छाप छोड़ता है. उनकी सादगी, सरलता और सुरों की गंभीरता सिर्फ संगीत के प्रति उनकी जुनून और साधना दिखाती है.

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रागों के समय को लेकर बेहद गंभीर थीं

काम और संगीत के प्रति उनकी गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता  है कि वो रागों को उनके पारंपरिक समय पर ही गाती थीं, यानी राग उसी वक्त गाया करती थीं जिस वक्त के वो राग होते थे. किशोरी जी का मानना था कि शाम को कॉन्सर्ट होने की वजह से ऐसे तमाम राग नहीं गाए जाते, जो सुबह के होते हैं. इसलिए अगर उन्हें सुबह का कोई राग गाना होता तो वो कॉन्सर्ट का समय सुबह का ही रखती थीं. सुबह 6 बजे के कॉन्सर्ट करने की शुरुआत किशोरी अमोनकर ने ही की.   

फिल्मों से रहीं दूरी

किसी भी अच्छे गायक का सपना होता है फिल्मों के लिए प्लेबैक करना. लेकिन शास्त्रीय संगीत में पारंगत किशोरी अमोनकर ने फिल्मों से दूरी हमेशा बनाए रखी. उन्होंने 1964 में वी.शांताराम की फिल्म 'गीत गाया पत्थरों ने' के लिए गाया और उनके 26 सालों के बाद फिल्म 'दृष्टि' के लिए संगीत दिया और गाया भी. उनका कहना था कि जब उन्होंने  'गीत गाया पत्थरों ने' के लिए गीत गाया तो उनकी मां बहुत नाराज हुईं. उन्होंने धमकी दी कि फिल्मों में गाया तो मेरे दोनों तानपूरे को कभी हाथ मत लगाना. और शायद इसीलिए उन्होंने फिल्मों को मोह छोड़ दिया और शास्त्रीय संगीत का दामन हमेशा थामे रखा.

मान सम्मान से कहीं ऊपर थीं किशोरी ताई-

किशोरी ताई को संगीत कला अकादमी समेत, पद्मविभूषण तक कई सम्मान प्राप्त हुए. संगीत नाटक अकादमी सम्मान, (1985), पद्मभूषण (1987), संगीत सम्राज्ञी सम्मान(1997), पद्मविभूषण (2002), संगीत संशोधन अकादमी सम्मान(2002), संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप(2009), लेकिन उनके लिए ये सम्मान मायने नहीं रखते थे. वो उन सम्मानों से नहीं बल्कि शंकराचार्य के उन्हें 'गान-सरस्वती' कहे जाने पर ज्यादा अभिभूत महसूस करती थीं.

gaansaraswati_040417024824.jpgगान सरस्वती महोत्सव में किशोरी अमोनकर का सम्मान

किशोरी अमोनकर के राग आज हर शास्त्रीय संगीत प्रेमी की प्लेलिस्ट में मिलेगें, लेकिन अफसोस कि अब वो सीमित ही रहेंगे हैं. रूह को सुकून देने वाली वो आवाज अब हमेशा के लिए खामोश हो गई. भारतीय शास्त्रीय संगीत का सबसे चमकता सितारा डूब गया. उनका जाना न सिर्फ जयपुर घराने बल्कि पूरे संगीत जगत की सबसे बड़ी क्षति है, जिसे अब शायद ही कोई पूरा कर सके.

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लेखक

पारुल चंद्रा पारुल चंद्रा @parulchandraa

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं

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