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Updated: 29 अगस्त, 2021 07:22 PM
देवेश त्रिपाठी
देवेश त्रिपाठी
  @devesh.r.tripathi
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निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय,

बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय.

वैसे तो रामचरितमानस को गोस्वामी तुलसीदास ने 'स्वांत: सुखाय' लिखा था. लेकिन, भारत में ऐसा कहा जाता है कि अच्छी बात कहीं भी मिल जाए, तो उसे ग्रहण करने या मानने में कोई बुराई नहीं होनी चाहिए. हालांकि, ये सब अच्छी-अच्छी बातें देश में इतिहास हो चुकी हैं. अब बात इतिहास की छिड़ी है, तो बताना जरूरी हो जाता है कि इन दिनों भारत का इतिहास टॉप ट्रेंड में बना हुआ है. और, इसकी वजह बने हैं बॉलीवुड के मशहूर गीतकार मनोज मुंतसिर. दरअसल, हुआ कुछ इस तरह कि बॉलीवुड के एक बड़े फिल्म निर्देशक कबीर खान ने एक इंटरव्यू में मुगलों को भारत का राष्ट्र निर्माता बता दिया था. बात आई-गई हो गई. लेकिन, इसके कुछ समय बाद गीतकार मनोज मुंतशिर ने इस मामले पर एक वीडियो के जरिये सवाल उठा दिया. सवाल ये था कि आप किसके वंशज है? अब वंशजों की बात हो और मुगलों का जिक्र न आए, ये हमारे देश में फिलहाल तो हो ही नहीं सकता.

खैर, मनोज मुंतशिर ने अपने इस वीडियो में मुगलों को 'ग्लोरीफाइड डकैत' बता दिया. और, इसे लेकर भारत का कथित बुद्धिजीवी और इस्लामिस्ट वर्ग भड़क गया. कहा जाने लगा कि मनोज मुंतसिर ने मुगलों को डकैत बताकर नफरती बयान दिया है. इस पूरे वीडियो को इस तरह से से पेश किया गया कि ये मुस्लिमों के खिलाफ लोगों में नफरत फैलाने वाला बयान है. वैसे, भारत के इस कथित बुद्धिजीवी वर्ग का बहुत सिंपल सा एजेंडा है, जो चीज उनके विचारधारा यानी आईडियोलॉजी को सूट नहीं करती है, उसे पुरजोर तरीके से खारिज करो. किसी के विरोधी विचार को इतनी नफरत और हिकारत भरी नजरों से देखो कि पब्लिक में माहौल बन जाए कि ये आदमी (जो सच भी बोल रहा हो) एक नंबर झूठा है. तो, फिलहाल मनोज मुंतसिर के साथ यही हो रहा है. तमाम इतिहासकार अपने ज्ञान का भंडार मनोज पर उड़ेल रहे हैं. लेकिन, ये वही लोग हैं, जिन्होंने राम मंदिर फैसले पर खूब नाक भौं सिकोड़ी थी. और, अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी पर हिंदी मुसलमान की ओर से सलाम पेश किया था.

इनकी नजर में भगवान राम नायक नहीं खलनायक हैं, जिन्होंने सीता का परित्याग कर खुद को स्त्रीविरोधी साबित कर दिया. इतना ही नहीं, विचारधारा के वशीभूत हो, ये कथित बुद्धिजीवी वर्ग 'सच्ची रामायण' जैसी किताबें लिखकर खुद को प्रगतिवादी दिखाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. इन्होंने तो जैसे पैमाना ही सेट कर दिया कि जो जितना बड़ा राम विरोधी होगा, वो उतना बड़ा प्रगतिवादी माना जाएगा. वैसे, भारत में आलोचना को जीवन का एक हिस्सा माना जाता है. लेकिन, यही आलोचना अगर दूसरे वर्ग की होने लगे, तो इसे 'आलू-चना' साबित कर दिया जाता है. खैर, सबसे बड़ी बात ये है कि क्या इन तमाम बातों से ये तथ्य बदल जाएगा कि मुगल असल में तो 'बाहर से आए आक्रांता' ही थे. वैसे, तथ्य क्या हैं और क्या नहीं, यहां बहस का विषय ये भी नहीं है. बहस इस बात पर होनी चाहिए कि जब भारत में सभी लोगों को बोलने की आजादी यानी फ्रीडम ऑफ स्पीच मिली हुई है, तो ये अधिकार केवल इस कथित बुद्धिजावी और इस्लामिस्ट वर्ग के लिए ही संरक्षित क्यों मान लिया जाता है?

ये कथित बुद्धिजावी और इस्लामिस्ट वर्ग अपनी कुंठाओं को शांत करने के हिंदू धर्म की बुराई कर सकता है. भगवान राम का चरित्र हनन कर सकता है. लेकिन, अगर इसी बुद्धिजीवी वर्ग से अगर कुरान की उन आयतों का जिक्र कर दिया जाए, जिनमें गैर-मुस्लिमों के खिलाफ जिहाद छेड़ने की बात की गई है, तो ये आपको भक्त, संघी, ट्रॉल, कट्टर हिंदू जैसी उपाधियों से नवाज कर तुरंत ही बहस से एग्जिट मार जाते हैं. अगर इनसे ये पूछ लिया जाए कि चोल, गुप्त, मयूर, विजयनगर के इतिहास के बारे में इन इतिहासकारों ने क्या और कितना लिखा है, तो इन्हें सांप सूंघ जाता है. दरअसल, आज के भारत यानी 2014 में मोदी सरकार आने के बाद के वाले देश की बात करेंगे, तो आपको पता चलेगा कि इस वीडियो में उन्होंने 'असहिष्णुता' के वो सभी तार छेड़ दिए हैं, जिन्हें छूना भी आज की तारीख में किसी गुनाह से कम नहीं है. और, देश में ऐसा माहौल बनाने का श्रेय इसी बुद्धिजीवी और इस्लामिस्ट वर्ग को जाता है.

2014 के बाद से हर छोटी-बड़ी आपराधिक घटना को धर्म के चश्मे से देखा जाने लगा है.2014 के बाद से हर छोटी-बड़ी आपराधिक घटना को धर्म के चश्मे से देखा जाने लगा है.

2014 के बाद से हर छोटी-बड़ी आपराधिक घटना को धर्म के चश्मे से देखा जाने लगा है. हर घटना को धार्मिक रंग देकर इस बुद्धिजीवी और इस्लामिस्ट वर्ग ने खुद ही नफरत की खेती की. ऐसा नहीं है कि ये घटनाएं हाल के दिनों में ही बढ़ी हो, इससे पहले भी ऐसी घटनाएं होती रही हैं. लेकिन, 2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद 'असहिष्णुता' के नाम पर देश के बहुसंख्यक वर्ग की आलोचना शुरू कर दी गई. नैरेटिव सेट करने के लिए माहौल बनाने के नाम पर इस वर्ग ने अवार्ड वापसी से लेकर बहुसंख्यक आबादी को 'धार्मिक उन्मादी' साबित करना शुरू कर दिया गया. दरअसल, आज के समय में लोगों के अंदर भरा ये गुस्सा इन कथित बुद्धिजीवियो और इस्लामिस्टों की देन है. और, लोगों का ये गुस्सा अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ नहीं है, बल्कि इन कथित बुद्धिजीवियो और इस्लामिस्टों के खिलाफ है. इन लोगों की सेलेक्टिव सोच के खिलाफ है.

एक सिक्के के हमेशा से ही दो पहलू रहे हैं. एक आगे होता है, तो दूसरा उसके पीछे छिप जाता है. हम भारत के लोग बहुत भावुक होते हैं. जाति और धर्म की राजनीति को पोषित करने वाले राजनीतिक दलों ने इस भावुकता का बखूबी फायदा उठाया है. और, इसे लगातार बढ़ाया ही है. कहना गलत नहीं होगा कि फ्रीडम ऑफ स्पीच के नाम पर बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक वर्ग को निशाना बनाने की प्रवृत्ति को जब तक भारत में अपराध घोषित नहीं किया जाएगा, तब तक इस समस्या का समाधान निकलना मुश्किल नजर आता है. वैसे, इन तमाम बातों को आप स्वांत: सुखाय मान सकते हैं.

लेखक

देवेश त्रिपाठी देवेश त्रिपाठी @devesh.r.tripathi

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं. राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

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