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मुजफ्फरपुर में हुई मौतों का असली गुनहगार मिल गया है!
सैकड़ों बच्चों की मौत के मातम में डूबा मुजफ्फरपुर इन मौतों के असली गुनहगार को जानकर सिर धुन लेगा, लेकिन सबसे बड़ी विडंबना यही है कि शायद ही वो उसे ज्यादा दिनों तक याद रख पाए.
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'अगस्त महीने में तो बच्चे मरते ही हैं', ये बयान तो आपको याद ही होगा. जब से मुजफ्फरपुर में बच्चों की मौत की खबरें सुन रहा हूं, तब से यही सोच रहा हूं कि बच्चे तो अगस्त में मरते थे न. फिर जून में ही ये सब कैसे हो गया? खैर, जितना दुखी हूं, उतना ही गुस्सा भी आ रहा है. पर दुखी होना और गुस्से में पूरे सिस्टम को गालियां देना तो बस अपना पल्ला झाड़ना हुआ. ऐसे में जरूरी है कि घटना के असली दोषियों को पकड़ा जाए. तो कौन है असली दोषी? लीची? लीची, जिसको सुबह-सुबह खाली पेट खाने से कुपोषित बच्चे गंभीर रूप से बीमार हो गए? या कुपोषण, जो इस चमकी बुखार की जमीन तैयार करता है. या वो अस्पताल जो डॉक्टरों और दवाओं की कमी से जूझ रहे हैं, या पूरा का पूरा स्वास्थ्य विभाग ही जिम्मेदार है? अच्छा चलिए मीडिया को ही इसका जिम्मेदार मान लेते हैं, कि अगर वो समय रहते मामले को हाईलाइट करता तो सरकार और स्वास्थ्य विभाग पर दबाव पड़ता, और इतनी मौतें न होतीं. पर आप खुद बताइये, वर्ल्ड कप में भारत-पाकिस्तान का क्रिकेट मैच चल रहा हो तो मीडिया किसको कवर करे? वैसे भी लोग क्रिकेट के लिये कुछ भी छोड़ देते हैं. चलिए फिर, इसका मतलब है कि क्रिकेट जिम्मेदार है इन मौतों का. थोड़ा अजीब निष्कर्ष है न?
मुजफ्फरपुर में हुई मौतों के बाद बड़ा सवाल यही है इन मौतों का जिम्मेदार कौन है ?
शायद आप सोच रहे हों कि क्रिकेट की क्या गलती? मीडिया को तो रिपोर्टिंग करनी थी न. लेकिन आप समझिये, देश में आज मीडिया भी एक उद्योग है. और पत्रकार भी दरअसल अपनी कंपनी का एक कर्मचारी है. उसका काम अपनी कंपनी के लिए रेवेन्यू जुटाना है, जिसके लिए उसे टीआरपी चाहिए. अब मीडिया को जिस खबर में टीआरपी नहीं मिलेगी, वो उसकी रिपोर्टिंग और प्रसारण में क्यों इंट्रेस्ट लेगा? घाटा खाकर पत्रकारिता करना अब मीडिया का स्वभाव नहीं रहा. पर असली समस्या ये नहीं है, असली दिक्कत तो ये है कि देश में कोई खेल सैकड़ों बच्चों की मौत से ज्यादा तवज्जो कैसे पा रहा है?
ज़ाहिर है इस घटना की बड़ी जिम्मेदारी उन लोगों की भी है जिन्होंने मनोरंजन को मानवता से ज्यादा महत्त्व दिया. पर बात यहीं खत्म नहीं हो जाती. इस घटना के लिए सबसे ज्यादा गालियां नेताओं को दी गयी. पूरे देश ने नेताओं के भ्रष्टाचार को इसके लिए जिम्मेदार माना. पर लोगों की इस हरकत को भी मैं अपना पल्ला झाड़ना ही कहूंगा. आप खुद सोचिये, अभी-अभी लोकसभा चुनाव निपटे हैं.
करोड़ों रुपये घूस देकर पार्टी का टिकट खरीदा गया होगा और उससे ज्यादा रूपये खर्च करके चुनाव जीता गया होगा. इतने खर्च के बाद अगर कोई नेता पद पाता है, तो सबसे पहले वो चुनावों में किये अपने इन्वेस्टमेंट की वसूली करेगा या ईमानदारी से काम करेगा? आप लोग बातों को यथार्थ के धरातल पर समझियेगा. यहां मैं वही बातें लिख रहा हूं जो ज्यादातर जगहों पर हो रही हैं.
तो अगर करोड़ों खर्च कर के चुनाव लड़ने और जीतने की रवायत बनी है तो क्यों बनी है? और ये रुपये किस पर खर्च हुए होंगे? ज़ाहिर है मतदाताओं को लुभाने में खर्च हुए होंगे. चुनाव आयोग ने इसी लोकसभा चुनाव में सैकड़ों करोड़ की नगदी और बड़ी मात्रा में शराब पकड़ी, जो मतदाताओं में बंटने वाली थी.
वॉल्टेयर का कथन था कि कोई समाज जैसे अपराधी डिज़र्व करता है, वो खुद गढ़ लेता है. उसी तरह कोई समाज जैसे नेता डिजर्व करता है, उसे मिल जाते हैं. इस देश में स्वास्थ्य, शिक्षा और सुशासन खुद जनता की ही प्राथमिकता सूची में कभी नहीं रहा. देश के 70 सालों के लोकतांत्रिक इतिहास में आज तक कोई चुनाव इन मुद्दों को केंद्र में रखकर नहीं लड़ा गया.
तो समझने की बात है कि मीडिया की तरह ही राजनीतिक दल और नेता भी जनता का रुख देखकर चलते हैं. जैसे मीडिया को पता है कि बच्चों की मौत की खबर से ज्यादा टीआरपी उसको क्रिकेट से मिलेगी, उसी तरह नेताओं को भी पता है कि स्वास्थ्य और शिक्षा के मुद्दों से ज्यादा वोट उसे जाति और धर्म के मुद्दे से मिल जाएंगे.
और तो और, कोई बड़ी बात नहीं है कि मुजफ्फरनगर में मृत बच्चों के माता-पिता ने भी स्वास्थ्य और शिक्षा को महत्त्व न देकर अपने जाति और धर्म के नेता को 'अपना' समझकर उसे वोट दिया हो. मेरा अनुमान है कि अब तक आप मुजफ्फरपुर के असली दोषियों को पहचान गए होंगे. न पहचान पाए हों तो आईना देख लीजिए.
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