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'डिजिटल बाबा' के मन की बात: चरित्र प्रमाण-पत्र के लिए क्या एक साधु को शादी कर लेनी चाहिए?
आसाराम और राम रहीम जैसे कथित संतों के चरित्रहीनता का खुलासा होने के बाद अब लोग साधु-संतों को शक की नजरों से देखने लगे हैं. अधिकतर लोगों को लगता है कि बाबा यदि जवान है, अविवाहित है, तो चरित्रहीन जरूर होगा. ऐसे में क्या चरित्र प्रमाण-पत्र पाने के लिए एक साधु को शादी कर लेना चाहिए, ये ज्वलंत सवाल है.
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सोचा था पूरी जिंदगी अकेले जीते हुए समाज के उत्थान में उदात्त विचार के प्रचार-प्रसार में खुद को लगाए रखते हुए अपने इस जीवन यात्रा को सम्पन्न कर लूंगा. लेकिन अब ये जीवन बड़ा कठिन लगने लगा है. वजह मेरी उम्र है. चूंकि मैं इस वक्त 34 साल का हूं. अविवाहित हूं. इसलिए लोगों को लगता है कि बाबा चरित्रवान नहीं हो सकता. उनके अनुसार काम वासना पर किसी का नियंत्रण नहीं हो सका है, इसलिए मैं चरित्रहीन हूं. मन कई बार हमको समझा चुका है कि खुद को चरित्रवान सिद्ध करना है तो चुपचाप विवाह कर लो. विवाहित होते ही मुझे इस बात का सर्टिफिकेट मिल जाएगा कि मैं किसी स्त्री को ललचाई नजरों या भोग लोलुपता की इच्छा से नहीं देखूंगा.
बात तो एकदम सही लगती है कि हमारा विवाह होते ही विवाहित-अविवाहित अधिकतर लोग हमको उत्तम कोटि का मनुष्य मान लेंगे. अतः हम निर्णय कर रहे हैं कि हम विवाह करेंगे पर किससे करें? उसी देह से जो एक समय के बाद कब साथ छोड़ दे इस विषय में कुछ भी तय नहीं किया जा सकता. शादी करने के बाद पत्नी कुछ महीनों या वर्षो में मर गई तो फिर क्या करूंगा? इसके बाद दो विकल्प हैं. पहला पुनर्विवाह करना और दूसरा सन्यास लेना. पहला विकल्प यदि चुन भी लें तो क्या गारंटी की दूसरी पत्नी शादी के बाद जीवनभर साथ देगी? आजकल तो लोग मरने से पहले साथ छोड़ कर भाग जाते हैं. दूसरा विकल्प यदि चुनना है, तो सन्यासी जीवन तो मैं आज भी जी रहा हूं.
समाज में लोग साधु और संतों को अब शक की नजरों से देखने लगे हैं.
ऐसे में आज जो जीवन जी रहा हूं, उसे छोड़कर विवाह करना और वैवाहिक जीवन से हताश-निराश होकर फिर से सन्यासी होना तो महामूर्खता ही होगी. अब कुछ लोग ये भी कहेंगे कि विवाह करके पत्नी के साथ समागम सुख हासिल कर संभव है कि स्त्री देह के सन्निकर्ष की जो लालसा है वो समाप्त हो जाएगा. इंद्री जन्य विषय वासनाओं को भोग करने के बाद सच्चा वैराग्य हासिल हो जाएगा. लेकिन मेरे ख्याल से ये गलत है. लोग उम्र के आखिरी पड़ाव तक इंद्रिय सन्निकर्ष और मैथुनी भोगो में लिपटे रहते देखे जा रहे हैं. जवान हो या अधेड़ अपनी पत्नी को छोड़ कर अन्य स्त्री के पीछे, स्त्रियां अन्य पुरुषों के पीछे भाग रही हैं. इस तरह के लोगों को हम बहुत करीब से देख रहे हैं. ऐसे लोगों को भयंकर पीड़ा से गुजरते हुए हमने देखा है. इतना सबकुछ देखने समझने के बाद विवाह कर लूं, ये तो असम्भव है. मेरे हिसाब से वैरागी मन का वैरागी रहना ही उत्तम है.
ये वैरागी मन कब अपनी बनाई दुनिया को आग लगा कर पहाड़ों की चोटी की ओर प्रस्थान कर जाए कुछ पता नहीं है. मेरे जीवन में एक दिन यह होना सुनिश्चित है. वैसे शाम को बर्तन धुलते वक्त मन में कई बार ख्याल आता है कि यदि हम विवाहित होते तो जीवन संगिनी दैनिक दिनचर्या के सारे काम कर लेती. समय पर बर्तन धुल देती. सुबह नाश्ता तैयार कर देती. समय पर लंच डिनर मिल जाता. जीवन कितना आसान हो जाता. मेरा समय बचता हम और अधिक तल्लीन हो कर अपने अध्ययन आध्यात्मिक चिंतन-मनन में खुद को लगा पाते, लेकिन इस कपोलकल्पित दुनिया के लालच से मैं तुरंत बाहर आ जाता हूं. उसका कारण ये है कि आज के समय में ऐसा साथी मिलना असम्भव है.
मैं सोचता हूं कि जीवन संगिनी बर्तन धोने के लिए, घर साफ करने के लिए, कपड़ा धुलने के लिए, घर मे तैनात कोई कर्मचारी नहीं है. घर के सारे आवश्यक कार्य जो अमूमन स्त्रियां ही करती हैं, उसमें पुरुषों की बराबर की साझेदारी होनी चाहिए. उनको भी वो हर काम करना चाहिए, जो स्त्रियों का काम माना जाता है. काम लिंगभेद पर आधारित नहीं होना चाहिए. मैं स्वतः साझेदारी की प्रकृति युक्त मनुष्य हूं. मेरी साझेदारी हमारे कुटिया में आने वाले अतिथि जन के साथ रहती है. घर के रोजमर्रा के काम तो हो ही जाएंगे जरूरी ये है कि जीवन को सार्थक करने वाले कार्य मे जीवन साथी का भरपूर साथ मिले. जैसे जो भी धन अर्जित हो. उससे भविष्य निधि के बारे में न सोच कर उसका उपयोग सामाजिक सरोकार में करें.
इतना ही नहीं स्वयं सन्तान को जन्म देने की जगह उन सन्तानों को आश्रय प्रदान करें जिनको दैहिक रूप से कोई साथ देने वाला उनके जीवन मे नही हैं. जीवन में कितना धन है इस बात पर ध्यान न देकर ये विचार करें कि हमारा जीवन कितना सुंदर सार्थक है. हम अपना एक-एक पल खुद के साथ साथ औरों के जीवन को सुखमय बनाने में कितना समर्पित कर रहे हैं. आज के दौर में ऐसा साथी मिलना अत्यंत दुर्लभ है पर जीवन मे कभी कोई ऐसा मिला और मेरा विचार ऐसे ही बरकरार रहा फिर हम भी अपने जीवन में साथी को शामिल करेंगे.
पिछले 14 वर्षों में शुरू के 7 वर्ष तक इस तरह हमने कभी नहीं सोचा पर 5 वर्ष पूर्व से हमारे जीवन मे इस तरह की सम्भावना को हमने अनुभव किया है. सच ये भी है कि आजतक मेरा जो जीवन रहा है वो कृपा साध्य है. उसमें पुरुषार्थ कहीं-कहीं प्रतीत होता है. बस भगवान राम की कृपा है कि आज हम इस जीवन यात्रा में शामिल हैं.
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