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Updated: 25 अगस्त, 2019 01:22 PM
अरविंद मिश्रा
अरविंद मिश्रा
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आरक्षण का मुद्दा हमारे देश में कोई नया नहीं है. यह एक ऐसा विषय है जिस पर गाहेबगाहे बहस होते ही रहती है लेकिन कभी-कभी यह ऐसे समय पर उभरकर आता है जब इसकी महत्ता कुछ ज्यादा हो जाती है. अब चूंकि हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं ऐसे में राजनैतिक पार्टियों के लिए यह एक संजीवनी से कम नहीं है. और इस बार यह संजीवनीदायक मौका देने का श्रेय संघ प्रमुख मोहन भागवत को जाता है.

हालांकि यह मुद्दा इतना बड़ा नहीं था. बस बात सिर्फ इतनी सी ही थी कि संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण के विषय पर यह कहा था कि जो आरक्षण के पक्ष में हैं और जो इसके खिलाफ हैं उन्हें सौहादर्पूर्ण वातावरण में बैठकर विचार करना चाहिए. लेकिन यह महत्वपूर्ण इसलिए हो गया क्योंकि यह संघ प्रमुख के द्वारा बोला गया.

mohan bhagwatआरक्षण के मुद्दे पर मोहन भागवत के बोलते ही विपक्ष इसपर बहस पर उतर आया

जब संघ प्रमुख ने आरक्षण पर समीक्षा की बात की तो विपक्षी पार्टियां जिसके पास कोई मुद्दा नहीं था एकदम से सक्रिय हो गईं और मोदी सरकार पर चौतरफा हमला बोल दिया. कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी से लेकर मायावती और तेजस्वी यादव जैसे नेताओं ने मोदी सरकार को घेरते हुए आरक्षण विरोधी ठहराने में कोई समय बर्बाद नहीं होने दिया.

लेकिन सवाल यह है कि क्या संघ प्रमुख मोहन भागवत के इस बयान ने मुद्दाविहीन विपक्षी पार्टियों को बैठे-बैठाए भाजपा के खिलाफ एक मौका दे दिया है? क्या भाजपा को आने वाले राज्यों के विधानसभा चुनावों में इसका नुकसान हो सकता है? ऐसा इसलिए क्योंकि 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के वक़्त भी मोहन भागवत के आरक्षण की समीक्षा करने के वक्तव्य से भाजपा को काफी नुकसान का सामना करना पड़ा था.

अगर हम बात महाराष्ट्र की करें जहां विधानसभा चुनाव होना है तो वहां हाल में ही फडणवीस सरकार ने मराठों के लिए शिक्षा में 12 और सरकारी नौकरियों में 13 फीसदी आरक्षण लागू किया है. ऐसे में यहां विपक्षी पार्टियों को इस मुद्दे पर कोई खास फायदा होने का अनुमान नहीं है. यहां बाढ़ से तबाही और किसानों की दुर्दशा को चुनावी मुद्दे के रूप में प्रमुखता से उठाये जाने की संभावना है.

झारखण्ड में भी भाजपा सरकार ने 10% आरक्षण आर्थिक रूप से कमज़ोर अगड़े वर्ग को दिया है और यहां 50 प्रतिशत से ज़्यादा आरक्षण की व्यवस्था है. ऐसे में यहां भी पहले से कमज़ोर विपक्षी पार्टियों को न के बराबर ही लाभ हो सकता है. लेकिन आदिवासी पिछड़ों की बहुतायत वाले इस राज्य में भाजपा को डैमेज कंट्रोल करना पड़ सकता है.

हरियाणा में भी विधानसभा चुनाव होना है जहां जाट आरक्षण का मुद्दा हमेशा से सुर्खियों में तो रहा लेकिन कानूनी दांव-पेंच में फंस कर रह गया. इस बार भाजपा को घर संभालने के लिए ज्यादा मेहनत करनी पड़ सकती है.

ऐसे में मोहन भागवत की आरक्षण पर चर्चा ने मुख्य रूप से राजनीतिक रूप धारण कर लिया है. लेकिन सबसे बड़ा सच यह है कि जातीय आरक्षण जैसे मुद्दे पर बगलें झांकने वाली राजनीतिक पार्टियां वोट बैंक छिटकने के डर से मुद्दे को छूना भी पसंद नहीं करती हैं. जबकि चर्चा का विषय यह था कि आरक्षण का लाभ किसे मिलना चाहिए और किसे नहीं? अगर खुले दिमाग से सोचा जाए तो संघ प्रमुख की बात में कुछ भी गलत नहीं था. लेकिन इतना तो तय है कि आरक्षण की व्यवस्था जिन कारणों से की गई थी वो उस मंज़िल तक नहीं पहुंच पायी और इसकी जगह राजनीतिक फायदों ने ले ली. और एक सत्य यह भी है कि हमारे देश में जातिगत आरक्षण व्यवस्था की समीक्षा की मांग उठती रहती है और आर्थिक आधार पर आरक्षण देशहित में एक सार्थक कदम साबित हो सकता है.

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अरविंद मिश्रा अरविंद मिश्रा @arvind.mishra.505523

लेखक आज तक में सीनियर प्रोड्यूसर हैं.

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