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Updated: 13 अप्रिल, 2020 06:05 PM
हिमांशु सिंह
हिमांशु सिंह
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नर्म अल्फ़ाज़, भली बातें, मुहज़्ज़ब लहजे

पहली बारिश ही में ये रंग उतर जाते हैं.

दुनिया में कोरोना की आमद के बाद से ही जावेद अख़्तर का ये शे'र मेरे मन में ताजा हो गया है. कोरोना आने के बाद से ये दुनिया अब पहले जैसी नहीं रह गयी है. कोरोना जाने के बाद भी ये दुनिया अब पहले जैसी नहीं हो पाएगी. कोरोना का जाना तो तय है, पर उसके बाद कभी किसी बशीर बद्र को,

कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से

ये नए मिज़ाज का शहर है, जरा फासले से मिला करो

टाइप शे'र कहने की जरूरत नहीं पड़ेगी. तो जाहिर है इस महामारी के निशान न सिर्फ हमारे ज़ेहन पर रहेंगे, बल्कि इसका व्यापक असर हमारे समाज, हमारी इकॉनमी, सरकार और बाकी दुनिया के आपसी संबंधों पर पड़ना तय है.

एक तरफ जहां इस बीमारी ने लोगों को स्वच्छता और सफाई का महत्त्व बताया है, वहीं 'हेल्थ इज़ वेल्थ' जैसी पुरानी धूल खा रहीं कहावतें ताजा हो गईं हैं.

Coronavirus, Lockdown, Disease, Corona warriorsकोरोना के इस दौर में वक़्त पुरानी गलतियों से सबक लेकर उनमें सुधर करने का है

ये मौका है ये जांचने का कि सही-गलत और अच्छे-बुरे के चुनाव के हमारे पैमाने कितने सही थे? हमारे असली हीरो कौन हैं? वो पुलिसवाले और स्वास्थ्य-कर्मचारी जो अपनी जान जोखिम में डालकर हमें बचा रहे हैं, और जिनका हम नाम तक नहीं जानते, या वो तथाकथित 'स्टार' और 'सेलिब्रिटी' जिन्हें मीडिया और फिल्मों ने जबरिया हमारा नायक बना कर हम पर थोप दिया है.

ये वक़्त है ये सोचने का कि जिन मंदिरों-मस्जिदों के लिए हम मरे जा रहे थे, उनकी असल उपयोगिता और महत्त्व क्या है? हमें यह भी तय करना होगा कि हम पाकिस्तान को कोरोना की मौत मरते देखना चाहते हैं, या हमें खुद को कोरोना से बचाने पर ज्यादा फोकस करना चाहिए.

अरबों डॉलर के हथियार खरीदने वाली सरकारें हमारे स्वास्थ्य बजट को कितना महत्त्व देती हैं? 26 जनवरी की परेड में मिसाइलें देखकर छाती फुलाने वाले हम देशभक्तों ने क्या कभी उस परेड में स्वास्थ्य और शिक्षा विभाग की झांकियों की कमी महसूस की?

यही वक़्त है जब हम मूल्यांकन करें कि स्वच्छ भारत अभियान जैसे प्रयासों को हमने कितनी गंभीरता से लिया?

खैर, इस लॉकडाउन ने हमारी आंखें पूरी तरह भले न खोलीं हों, पर हमारी असल जरूरतों से हमें वाकिफ जरूर कराया है. हमें बताया है कि हमारी असल जरूरत आईफोन नहीं, अन्न है, और उसे उगाने वाला किसान ही हमारा नायक है. खाना दुकान से नहीं, खेत से आता है; ये हमारी अब तक की समझ का बड़ा हासिल है.

मनोरंजन के नाम पर कूल्हे मटकाकर अरबों बटोर लेने वाले 'सुपरस्टार' हमारे नायक नहीं हैं, बल्कि सीमित संसाधनों और नाममात्र के प्रोत्साहन के बावजूद बीमारियों की वैक्सीन बनाने में जुटे गुमनाम वैज्ञानिक हमारे हीरो हैं.

कहना ये भी चाहता हूं कि साल में पांच किताबें लिखकर प्रेम का रोना रोने वाले और प्रेम की आड़ में अश्लीलता का मंचन करने वाले तथाकथित साहित्यकार अब हमारे नायक नहीं रहेंगे. बल्कि स्वार्थरहित होकर, इस महामारी को विषय बनाकर अपनी कला के माध्यम से जागरूकता फैलाने वाले नेहा सिंह राठौर जैसे गुमनाम लोक-कलाकार अब हमारे नायक होंगे, जिनकी कला असल समाजसेवा साबित हुई है.

ऐसे में तय है कि दुनिया अब पहले जैसी नहीं रह जायेगी. अमेरिकी नागरिकता पा जाना और छुट्टियां मनाने के लिए इटली जाना अब उतने सम्मान की बात नहीं होगी.

कामगार परदेस जाकर कमाने से बचेंगे और स्वरोजगार में मन लगाएंगे. शोध को बल मिलेगा और सरकारें शिक्षा और स्वास्थ्य को और ज्यादा महत्त्व देंगी.

शाकाहार को बढ़ावा मिलना इसका एक अन्य संभावित प्रभाव है. साथ ही चीन पूरी दुनिया के लिए और ज्यादा संदिग्ध हो जाएगा, जिसका भारत को कूटनीतिक लाभ अवश्य मिलेगा. उम्मीद है इस महामारी के बाद हमारी दुनिया थोड़ी और बेहतर हो जाएगी.

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लेखक

हिमांशु सिंह हिमांशु सिंह @100000682426551

लेखक समसामयिक मुद्दों पर लिखते हैं

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