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Updated: 11 मार्च, 2018 04:55 PM
प्रीति 'अज्ञात'
प्रीति 'अज्ञात'
  @preetiagyaatj
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इसे सुनते ही आपके कानों से मवाद बहने लगेगा, हृदय चीत्कार करेगा, भावनाएं बेदम, आहत हो सर पीटेंगी, पर यदि आपने एक सच्चे भारतीय परिवार में जन्म लिया है तो भैया हर हाल में आपको ये सब सुनते-सुनते ही बड़ा होना पड़ेगा और वो भी साल के पूरे 350 दिन. वरना या तो आप भारतीय नहीं या आपके कान ही नहीं! अब आप सोच रहे होंगे कि 350 दिन क्यों? तो बात ये है भई कि 15 दिन इसलिए कम किये क्योंकि हमारे यहां राष्ट्रीय त्यौहार, होली, दिवाली, क्रिसमस, ईद, राखी आपका या घर के अन्य सदस्य का जन्म दिवस, मां-पापा की विवाह की वर्षगांठ पर भारी छूट मिलती है और माहौल को बिना डांट-डपट, टोका-टाकी वाला बनाए रखने की भीषण कोशिश की जाती है. हमारी परंपरा, प्रतिष्ठा और अनुशासन के उच्च कोटि वाले गुणधर्मों को ध्यान में रखते हुए प्रयासवश परन्तु अनौपचारिक तौर पर ये सभी दिवस भाईचारे से रहने के उत्तम दिवस मान्य किए गए हैं. इसके साथ-साथ अचानक ही अतिथियों के आकस्मिक आगमन के दिनों को भी इसी उच्च श्रेणी वाले विशिष्ट पारिवारिक सौहार्द्र उत्सव में स्थान दिया गया है. वो क्या है न कि हम बड़े भावुक, संवेदनशील और मुहब्बत पसंद बन्दे हैं जो संयोगवश ऐन वक़्त पर हंसमुख भी हो जाते हैं. आइए आपकी ज़िन्दगी के उन पृष्ठों को पलटते हैं जो इस समय आपके बच्चों का वर्तमान बन, आपके माध्यम से उनके नाजुक मन पर कुंडली मारे फ़ुफ़कार रहे हैं.

परिवार, ज्ञान, भारत, परंपरा

1. ताजमहल पे रूमाल रख देने से तुम्हारा हो जायेगा?

यही वह क्रूर एवं मारक डायलॉग है, जिसने बचपन से लेकर आज तक होने वाले हर भीषण embarrassment, बोले तो शर्मिंदगी में अहम भूमिका निभाई है. बात चाहे खिड़की की हो या डायनिंग टेबल की! जब भाई-बहन आपस में जगह के लिए लड़ रहे हों और उनमें से एक कहे कि थोड़ी देर पहले यहां वो ही बैठा/बैठी था, तो धिक्कार है उन माता-पिता की परवरिशपंती पर; ग़र उन्होंने यह कुख़्यात संवाद आपके ही मुंह पर न दे मारा हो! दुर्भाग्यवश दुःख का अनुपात तब और भी बढ़ जाता है जब वे इसकी उदाहरण सहित विवेचना भी कर बैठते हैं.

2. अच्छा, तुम्हारा दोस्त कुंए में कूदने को कहेगा, कूद जाओगे?

यही वह ब्रह्मवाक्य है जिसने आपके किशोर और उन्मुक्त हृदय की आवारागर्दी की उत्कृष्ट तमन्ना छीन ली थी. तभी तो आप इससे बाल्यकाल से घृणा करते आए हैं. उस समय संभवत: पैर पटककर, आंसुओं को भीतर-ही-भीतर गटकते हुए कमरे से बाहर निकल जाते होंगे! बस, एक बात मैं आज तक नहीं समझ सकी कि ये पिघलते शीशे से शब्द सुनते समय सब जमीन की तरफ मुंडी करके उसे इतनी बेदर्दी से घूरते क्यों है? अरे, इस पावन धरा का क्या दोष.. वह आप जैसे पापियों को बर्दाश्त कर तो रही है. अब क्या खोदकर अपनी क़ब्र उधर ही बनाओगे? नहीं, न! फिर मुंह लटकाकर नाख़ून से काहे खुरच रहे? क्या उंगलियों में फावड़े लगे हैं? जाओ, अगली बार सॉलिड बहाना लेकर पापा से कुच्चन पूछने का अभ्यास करो!

3. अभी बच्चे हो / कब तक बच्चे बने रहोगे?

यही वह परस्पर विरोधाभासी वाक्य-युग्म है जिसने आपका जीना मुहाल कर रखा था और अब आप श्रवण कुमार की तरह इसी पावन परंपरा को स्थापित करने के भरसक प्रयासों में लगे हुए हैं. मम्मी-पापा भी बड़े situational जीव बन जाते हैं न! जब अपना काम (मसलन सब्ज़ी लाना, बर्तन, सफाई) करवाना हो तो "कब तक बच्चे बने रहोगे?" और हम कहें कि दोस्तों के साथ सनीमा देखने चले जाएं तो "न, बिलकुल नहीं! अभी बच्चे हो!" हम खामखां नागरिक शास्त्र की पुस्तक से रट लिए थे कि अठारह वर्ष में वयस्क हो जाते हैं. भैया, हिन्दुस्तान में तो कभी न होते जी! यहां तो कॉलेज भी जाओ तो पूरा कुनबा विदा देने आता है.

4. हम जब तुम्हारी उम्र के थे तो फलां ये ढिमका वो

अरे कम ऑन! आप तैरकर जाते थे, क्योंकि तब पुल नहीं थे. आप 10 पैसे की पॉकेट मनी से गुजारा कर लेते थे, क्योंकि तब महंगाई नहीं थी न! वैसे भी आपके पास विकल्प ही क्या थे?

एक दिन उत्तम मां का फ़र्ज़ निभाते हुए हमने भी अपने बेटे को यही डायलॉग सरका दिया जो मेरे माता-पिता मुझ पर बरसाते थे- "तुम्हें पता है, अब्राहम लिंकन स्ट्रीटलैम्प में पढ़ते थे और एक तुम हो." बेटे से जवाब मिला "अरे मम्मी, पर वो दिन में क्यों नहीं पढ़ते थे?" हैं!!! मैं समझ ही न पाई कि बेटे की होशियारी पर मुग्ध होऊं या तात्कालिक अपमान महसूस करूं! हमने तो इस एंगल से सोचा ही नहीं कभी. अभी इस झटके से उबरे भी नहीं थे कि बेटी बोली, "अरे भैया वो न शो ऑफ कर रहे होंगे." क़सम से मैं उस बेईज्ज़ती को अब तक न भूल सकी.

5. जरा एक गिलास पानी मुझे भी देना

आप चाहे कितना ही दबे पांव जाओ और अपनी सांस तक भी इस बात के लिए साधे रखो, चुपचाप फ्रिज़ खोलो या घड़े से पानी लो पर कोई न कोई कनखजूरा चिल्लाकर कह ही देगा, "जरा एक गिलास पानी मुझे भी देना" उस समय मुंह में गया पानी कुल्ले की तरह धचाक से बाहर निकलता है और exactly वही वाली फ़ीलिंग आती है जैसे किसी चोर को रंगे हाथों पकड़ लिया गया हो! उस समय चाहे जितनी भी चिढ़ मच रही हो पर कनपटी के पास किसी व्हाट्स एप्प सुविचार की तरह मां की यह बात तरन्नुम में आती ही है कि "बेटा, पानी के लिए दुश्मन को भी मना नहीं करते!" वैसे मेरा मानना है हमारे नौनिहालों और उनके जैसे समस्त आलसियों को पानी देने में कोई दिक़्क़त नहीं है. मौत तो इन्हें बोतल भरने में आती है!

6. बारहवीं में पढ़ लो, जीवन संवर जाएगा... वरना ठेला लेकर घूमना

इसे लेकर आज तक यह स्पष्ट नहीं हो सका है कि यह सही राह दिखाने के लिए कहा जाता है या हमारी औक़ात बताने के लिए! ऐसे कौन प्रोत्साहित करता है, भई! आप मन में यह सोचकर कोसने की प्रथम पायदान पर अपने चरण बस रखने ही वाले होते हैं कि किसी फ़ॉलोअप या ट्विटर थ्रेड की तरह उनके तरकश से निकला ये वाला अगला भावनात्मक तीर आपको छलनी कर देता है.... "बेटा, हमें समझाने वाला तो कोई था ही नहीं! बस, इसीलिए कह रहे हैं कि जो गलतियां हमने कीं, वो तुम न दोहराओ." इसके साथ ही उनकी मुखमुद्रा देवदास के अपग्रेडेड मातृ-पितृ वर्ज़न में बदल आपके मन-मस्तिष्क पर अचूक संवेदनात्मक प्रहार करती है. यक़ायक़ आप स्वयं को भावुक अवस्था में प्राप्त कर ग्लानिबोध से भर उठते हैं. उसी समय आप स्वयं को भारतीय प्रशासनिक सेवा के उच्च पद पर बैठाने का अनमोल स्वप्न लेते हैं जो कि नववर्ष के प्रण की तरह अगली सुबह क्षत-विक्षत अवस्था को प्राप्त होता है.बाक़ी फिर कभी... वरना आज ही घर से निकाल दिए जाएंगे. :(

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लेखक

प्रीति 'अज्ञात' प्रीति 'अज्ञात' @preetiagyaatj

लेखिका समसामयिक विषयों पर टिप्‍पणी करती हैं. उनकी दो किताबें 'मध्यांतर' और 'दोपहर की धूप में' प्रकाशित हो चुकी हैं.

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