नौकरी का झांसा देकर सुरक्षाकर्मियों ने इन्हें बना दिया नक्सली
नौकरी पाने के लिए बस इतना करना था कि खुद को नक्सली बताकर सीआरपीएफ के समक्ष आत्मसमर्पण कर दे, जिसके लिए हथियार मुहैया कराने का काम बोदरा करता.
-
Total Shares
28 मार्च, 2014 झारखंड के खूंटी जिले का रहने वाला, बी.कॉम द्वितीय वर्ष का छात्र 21 वर्षीय पामेश प्रसाद रांची के लोवर बाजार पुलिस थाने में दिनेश प्रजापति के खिलाफ शिकायत दर्ज करवाता है. प्रजापति दिग्दर्शन इंस्टीट्यूट नामक एक स्थानीय कोचिंग संस्थान का मालिक है. शिकायत में उस पर आरोप लगाया जाता है कि उसने पामेश से अर्धसैनिक बल में भर्ती करने का वादा करके उसे ठग लिया. प्रसाद का दावा है कि प्रजापति ने उससे मई 2012 में दो लाख रु. लेकर अपने एक दोस्त रवि बोदरा से मिलवाया. कहते हैं कि बोदरा सैन्य गुप्तचर विभाग में मुखबिर रह चुका है.
प्रसाद का आरोप था कि बोदरा ने उसे केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) में ''आत्मसमर्पण नीति'' के तहत मिलने वाली नौकरियों की जानकारी दी. उसे नौकरी पाने के लिए बस इतना करना था कि खुद को नक्सली बताकर सीआरपीएफ के समक्ष आत्मसमर्पण कर दे, जिसके लिए हथियार मुहैया कराने का काम बोदरा करता. इसके बाद उसे कुछ महीने जेल में बिताने पड़ते जिसके बाद उसे सुधरे हुए चरमपंथी के रूप में केंद्रीय बल में भर्ती मिल जाती. प्रसाद ने इस बात पर भरोसा किया और उसे रांची के पुराने जेल परिसर स्थित सीआरपीएफ की अत्याधुनिक कोबरा बटालियन के शिविर में कैद कर दिया गया.
इस ''खुली जेल'' में प्रसाद की तरह ही सैकड़ों अन्य युवा कैद थे जिनमें अधिकतर आदिवासी थे. सभी यहां इस आस में कैदी जीवन बिता रहे थे कि एक दिन वे अपने बदहाल वजूद से ऊपर उठकर वर्दी पहन लेंगे और अपनी जिंदगी संवार लेंगे. लेकिन वादे के मुताबिक नौकरी नहीं मिलने की संभावना के मद्देनजर वह ''खुली जेल'' से भाग गया. उसके बाद सीआरपीएफ के एक वरिष्ठ अधिकारी को कुछ गड़बड़ी की आशंका हो गई थी और उसने इसे खत्म करने का सोच लिया था. जिन लोगों ने उसे धोखा दिया था, उन्हें सबक सिखाने की प्रसाद की कोशिशें कहीं दो साल बाद जाकर कामयाब हुईं, जब तत्कालीन आदिवासी मुख्यमंत्री ने राज्य की अड़ियल पुलिस को ऐसी शिकायतों की जांच करने के लिए किसी तरह राजी कर लिया.
6 अप्रैल, 2014: झारखंड पुलिस ने बोदरा को हिरासत में लिया और उसी लोवर बाजार पुलिस थाने में उसका इकबालिया बयान दर्ज किया. उसने स्वीकार किया कि उसने आत्मसमर्पण करवाने में मध्यस्थ की भूमिका निभाई थी और वह अपने परिचित वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों तथा सीआरपीएफ के अफसरों के निर्देश पर काम कर रहा था. बोदरा को गिरफ्तार कर लिया गया, प्रजापति ने अदालत में सरेंडर किया और मई 2014 में इस मामले में चार्जशीट दायर की गई. तब झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने इस मामले में सीबीआइ जांच की मांग की. इसके बाद चुप्पी पसर गई. किसी भी पुलिसवाले या सीआरपीएफ के जवान या अधिकारी से पूछताछ नहीं की गई. इस बात की कोई जांच नहीं हुई कि बोदरा हथियार कहां से लाता था, जैसा कि आत्मसमर्पण करने वालों ने बताया था. उसने लोगों को ठग कर जो पैसा बनाया, उसकी भी जांच नहीं हुई. सीबीआइ जांच की मांग बस एक मांग बनकर रह गई है.
इस चुप्पी में झारखंड के 514 अभागे युवकों की जिंदगी की कहानी छिपी है जिनमें से अधिकतर गरीब आदिवासी हैं. इनके अतीत में कानून तोड़ने की बात कहीं नहीं आती. बोदरा को पैसे देने के लिए इन्होंने उधार मांगा, अपने परिवार से पैसे लिए, जमीन गिरवी रखी, नक्सली होने का ठप्पा अपने ऊपर लगवाया और करीब दो साल तक रांची के पुराने जेल परिसर में कैद रहे-इन सभी को यह उम्मीद थी कि इसके बाद इन्हें सीआरपीएफ में एक सिपाही की मामूली-सी नौकरी मिल जाएगी, ये भी वर्दी पहन सकेंगे और इस तरह झारखंड के कुछ सर्वाधिक पिछड़े इलाकों की बदहाली से मुक्त हो सकेंगे. इसके साथ ही यह कहानी रातोरात उग आए उन बिचैलियों की भी है जो सत्ता प्रतिष्ठान में बैठे भ्रष्ट तत्वों के साथ सांठगांठ करके नाम और दाम के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा का मखौल धड़ल्ले से उड़ाते हैं.
उम्मीद और यश की चाह में
पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के बाहरी इलाके में ईंट-भट्टे पर सुंदरा कुजूर काम करते हैं. यह जगह रांची स्थित कोबरा बटालियन के शिविर से 400 किलोमीटर दूर है जहां वे एक साल से ज्यादा समय आत्मसमर्पित वामपंथी चरमपंथी (एलडब्ल्यू) के रूप में बिता चुके हैं. मामला दूरी का नहीं, दोनों जगहों के फर्क का है जो बताता है कि कुजूर के जीवन में पिछले तीन साल में कितने उतार-चढ़ाव आए हैं.
जनवरी 2013 में कुजूर अपने गांव का उम्मीद भरा नौजवान था और गांववालों को भी उससे आशा थी. रांची के नामकुम ब्लॉक स्थित अनजान-से जमगाई नामक गांव का रहने वाला कुजूर सीआरपीएफ की आधुनिक कोबरा बटालियन के शिविर में इस उम्मीद में पहुंच गया कि उसे वहां एक सिपाही की नौकरी मिल जाएगी. वहां उसे पता चला कि उसकी तरह वहां 500 और लोग हैं जिनमें अधिकतर रांची और पड़ोस के खूंटी तथा गुमला जिले के हैं. इनमें से हरेक ने बोदरा को ढाई लाख रु. तक की रकम जैसे-तैसे जुगाड़ करके इस उम्मीद से दी थी कि सीआरपीएफ और यहां तक कि शायद झारखंड पुलिस भी ''सीधी भर्ती'' योजना चलाएगी जिसमें नौकरियां सिर्फ आत्मसमर्पण किए हुए नक्सलियों को ही दी जाएंगी.
इस सिलसिले की शुरुआत अप्रैल 2011 में होती है और सिर्फ डेढ़ साल के भीतर इसके झांसे में 514 युवक आ जाते हैं. हर एक को सरेंडर करने से पहले राइफल, पिस्तौल या बम दिया गया. इसके बाद इन्हें सीआरपीएफ के शिविर में ले जाया गया. शिविर का जीवन इनके लिए बेहतर था. अफसरों की अर्दलीगिरी करने के अलावा इन्हें खुद को चुस्त-दुरुस्त रखने के लिए सिर्फ वर्जिश करनी होती थी. ये जब कभी चाहते अपने गांव जा सकते थे और कभी-कभार तो सीआरपीएफ की गाड़ी ही इन्हें घर तक छोड़ आती थी. शिविर में मिली हरी जैकेट पहन कर वे जब अपने गांव जाते तो लोग उन्हें आश्चर्य से देखते थे. इसके चलते और ज्यादा युवा शिविरों की ओर खिंचते चले आए. सिर्फ एक शर्त थी-नक्सली बन कर सरेंडर करो और इससे शायद ही किसी को कोई दिक्कत थी. आखिरकार एक स्थायी सरकारी नौकरी के लिए यह कीमत कोई बहुत बड़ी तो नहीं ही थी.
कहते हैं कि गुमला जिले के पलको निवासी 24 वर्षीय कुलदीप बारा ने जो एक लाख रु. की रकम बोदरा को चुकाई थी, उसे उसके माता-पिता ने स्थानीय सूदखोर से लिया था. उसने खुद को पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएलएफआइ) का काडर बताते हुए उस दुनाली बंदूक के साथ आत्मसमर्पण किया जो उसे दी गई थी. कुजूर की तरह वह भी रांची की पुरानी जेल में रहा. रांची के रातू के रहने वाले देवदत्त गोपे ने एक लाख रु. दिए. खटगा के सुखदेव मुंडा ने डेढ़ लाख रु. दिए. तोरपा के नथनियेल तिर्की ने 1.8 लाख रु., लोलजिमी के रोशन गुडिय़ा ने 55,000 रु. और कर्रा के विल्सन होरो ने 2 लाख रु. की रकम अदा की. यह सूची और लंबी हो जाती अगर एम.वी. राव रांची में सीआरपीएफ के इंस्पेक्टर जनरल (आइजी) का पदभार नहीं संभालते. पदभार ग्रहण करने के महीने भर के भीतर राव ने झारखंड के तत्कालीन पुलिस प्रमुख जी.एस. रथ को लिखते हुए सवाल उठाया कि 514 व्यक्तियों को रांची की पुरानी जेल में क्यों रखा गया है जो सीआरपीएफ का शिविर है.
राव ने 3 अक्तूबर, 2012 को जो पत्र लिखा उसकी प्रति इंडिया टुडे के पास है (देखें चित्र). उन्होंने लिखा था, ''जेल परिसर के अपने दौरे में यह मेरे संज्ञान में आया है कि इन कथित 514 आत्मसमर्पित नक्सलियों में से कुछ के ही खिलाफ वास्तविक मुकदमे हैं. ऐसा लगता है कि बाकी को नक्सल गतिविधियों में उनकी संलिप्तता-भागीदारी की जांच किए बगैर ही यहां लाया गया है. इसीलिए नक्सल गतिविधियों में इनकी संलिप्तता को केस दर केस जांचना होगा वरना इसकी पूरी संभावना है कि कुछ अनैतिक तत्व निर्दोष-मामूली अपराधियों से फर्जी आत्मसमर्पण करवा कर सरेंडर नीतियों के तहत लाभ पर दावा करने की कोशिश करके स्थिति का दोहन कर रहे हैं.''
इस पत्र में राव ने यह भी कहा कि सरेंडर नीति राज्य सरकार का मामला है, सीआरपीएफ जैसे अर्धसैनिक बल का नहीं, इसलिए सीआरपीएफ को काउंटर इनसरजेंसी अभियानों पर ही अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए. यह पत्र इस मामले में चौंकाने वाला है कि यह न सिर्फ बोदरा और सीआरपीएफ की मिलीभगत से चलाए जा रहे महज एक रैकेट की ओर इशारा करता है बल्कि फर्जी नक्सलियों के आत्मसमर्पण की झूठी कहानी को गढ़ने में झारखंड पुलिस और सीआरपीएफ के बीच एक संभावित सांठगांठ पर भी उंगली उठाता है.
सपने का अंत
क्या झारखंड में फर्जी नक्सलियों के आत्मसमर्पण का घोटाला एक रोजगार घोटाला था जिसे सीआरपीएफ और झारखंड पुलिस के कुछ तत्वों ने रचा लेकिन वह सामने आ गया? इस मामले पर करीबी निगाह रखने वाले झारखंड के एक वरिष्ठ आइपीएस अधिकारी ऐसा ही मानते हैं. उस अधिकारी ने बताया, ''वे निश्चित तौर पर सरेंडर के आंकड़ों को बढ़ाकर गृह मंत्रालय के अपने वरिष्ठों की सराहना पाने की कोशिश में लगे होंगे. यह निर्दोष युवाओं के साथ किया गया फर्जीवाड़ा था, यह बात साफ है. केंद्रीय अर्धसैनिक बल आत्मसमर्पण कर चुके चरमपंथियों को रोजगार नहीं दे सकते. इसके अलावा अभियान न चलने की परिस्थिति में सीआरपीएफ या कोई भी अर्धसैनिक बल सरेंडर को स्वीकार भी नहीं कर सकते.''
वे कहते हैं, ''सीआरपीएफ के इंस्पेक्टर जनरल के बतौर राव जब चाहते, इन लोगों को कोबरा बटालियन के शिविर से बाहर कर सकते थे, लेकिन उन्होंने अपनी चिंता जाहिर करने के लिए झारखंड के डीजीपी को पत्र भेजना उचित समझा. इसका सीधा-सा मतलब है कि उन्हें इन लड़कों को निकालने के लिए झारखंड पुलिस की मंजूरी दरकार थी.''
इस घोटाले का कार्यकाल वही है जब पी. चिदंबरम और सुशील कुमार शिंदे केंद्रीय गृह मंत्री थे. दोनों ही वामपंथी अतिवाद की समस्या से निबटने के लिए कटिबद्ध थे और उन्होंने झारखंड में विशेष दिलचस्पी दिखाते हुए राज्य सरकार से कहा था कि वह नक्सलियों को आत्मसमर्पण के लिए प्रेरित करे. पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज, झारखंड के शशिभूषण पाठक कहते हैं, ''हमारे पास यह मानने के कारण मौजूद हैं कि सीआरपीएफ और राज्य पुलिस के आला अधिकारियों ने केंद्रीय गृह मंत्रालय के समक्ष 500 से ज्यादा माओवादियों को सरेंडर कराने के एक आयोजन की योजना बनाई थी. चूंकि वे असली माओवादियों का इंतजाम नहीं कर पाए, लिहाजा इन्होंने निर्दोष आदिवासियों को फंसाकर उनके हाथों में बंदूक थमा दी और उनके ऊपर वामपंथी चरमपंथी होने का ठप्पा लगा दिया.'' ऐसे ही युवकों में शामिल रहे कुजूर इस दावे का समर्थन करते हैं. वे कहते हैं कि उन्हें बताया गया था कि उनके लिए एक भव्य आत्मसमर्पण कार्यक्रम का आयोजन किया जाएगा.
राव के पत्र का जो असर होना था, वह हुआ. झारखंड के गृह विभाग ने कोबरा के कैंप में कैद 514 लोगों के रिकॉर्ड जांचने का आदेश दे डाला! यह पाया गया कि इनमें से सिर्फ छह के किसी-न-किसी तरह माओवादियों से संबंध थे और जिन्हें सरेंडर नीति के तहत लाभ के योग्य माना जा सकता था. बाकी 508 लोगों को शिविर छोड़कर जाने को कह दिया गया.
रांची पुलिस ने जब पामेश प्रसाद की शिकायत दर्ज की और हेमंत सोरेन ने सीबीआइ जांच की मांग की, उसके बाद राज्य सरकार ने विधानसभा में स्वीकार किया कि 514 युवाओं के साथ ठगी हुई है. सोरेन ने इंडिया टुडे को बताया, ''झारखंड के निर्दोष युवकों के साथ एक फर्जीवाड़ा हुआ. एक एफआइआर दर्ज की गई, लेकिन चूंकि इसमें कुछ अर्धसैनिक बल के अधिकारियों की भी मिलीभगत की ओर इशारा हो रहा था लिहाजा मैंने मुख्यमंत्री रहते हुए पिछली मई में सीबीआइ जांच की सिफारिश कर डाली. अब मुझे बताया जा रहा है कि सीबीआइ इस जांच को करने से कतरा रही है. इस मामले में गहन पड़ताल की तत्काल आवश्यकता है.''
उसके बाद से इस मामले पर कायम चुप्पी ने ताजा आशंकाओं को जन्म दे दिया है. इस मामले की जांच सीबीआइ से कराने के लिए न्यायिक आदेश दिए जाने के संबंध में झारखंड हाइकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव कुमार झारखंड पुलिस पर इस मामले को दबाने में दिलचस्पी लेने का आरोप लगाते हैं. वे कहते हैं, ''उन्होंने मोहरों को तो पकड़ लिया है लेकिन उन आला अफसरों को पकडऩे के लिए कुछ नहीं किया जिनके बगैर यह सरेंडर घोटाला मुमकिन हो ही नहीं सकता था.''
यह तथ्य कि सरेंडर को असली दिखाने के लिए युवाओं को हथियार उपलब्ध कराए गए, एक और गंभीर सवाल खड़ा करता है. राजीव कुमार कहते हैं, ''इसका मतलब साफ है कि कम-से-कम 514 बंदूकें और कुछ हजार कारतूसों का इंतजाम किया गया. क्या सीआरपीएफ और झारखंड पुलिस मिलकर बंदूकों की तस्करी करने में लगे हैं?'' राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस मामले का पिछले साल स्वतः संज्ञान लेते हुए रांची में एक जांच दल भेजा था ताकि पीड़ितों के बयान दर्ज किए जा सकें.
आरोप-प्रत्यारोप
इस मामले की जांच कई हफ्तों तक करने के बाद जब इंडिया टुडे ने सीआरपीएफ और झारखंड पुलिस के अफसरों से इस पर राय लेने के लिए संपर्क किया, तो प्रतिक्रिया मंी उन्होंने अगर दूसरे के सिर पर दोष नहीं मढ़ा तो कम-से-कम खुद को इस घोटाले से दूर रखा. अब हैदराबाद में पदस्थ एम.वी. राव ने अपने उस पत्र का विवरण देने से इनकार कर दिया जिसने घोटाले पर से परदा उठाने का काम किया था. झारखंड के तत्कालीन डीजीपी जी.एस. रथ, जिन्हें राव ने पत्र भेजा था, मामले से अनभिज्ञता जाहिर की. रथ ने इंडिया टुडे को बताया, ''मुझे अब कुछ भी याद नहीं आता. मैं अब सेवानिवृत्त हो चुका हूं.''
राव से पहले सीआरपीएफ के आइजी डी.के. पांडे थे जिनके कार्यकाल में बोदरा ने अपनी योजना शुरू की थी. आज वे झारखंड पुलिस के महानिदेशक हैं. उनकी तरफ से राज्य के अतिरिक्त डीजीपी एस.एन. प्रधान ने बात की और कहा कि राज्य में ''सरेंडर घोटाला'' नाम की कोई चीज नहीं थी बल्कि यह ''भटके हुए युवाओं को मुख्यधारा में लाने का एक ईमानदार प्रयास था ताकि उनका इस्तेमाल ग्रामीण युवाओं को प्रेरित करने के लिए किया जा सके. इसमें कोई सरेंडर का मामला नहीं था.''
सीआरपीएफ के मौजूदा आइजी राकेश कुमार मिश्र का कहना है कि यह बताना राज्य पुलिस की जिम्मेदारी है कि कैसे 514 ''आत्मसमर्पित नक्सलियों'' को रांची की पुरानी जेल में रखा गया था. मिश्र ने कहा, ''वह बेशक उनकी नीतिगत पहल का हिस्सा रहा होगा. सीआरपीएफ की कोबरा बटालियन को इन लोगों की मौजूदगी के बारे में पता था क्योंकि संयोग से हमारी एक कंपनी को राज्य सरकार ने वहां रहने की सुविधा दे दी थी. हमारे लोग और वे लोग एक ही प्रवेश द्वार का इस्तेमाल करते थे. यही वजह थी कि राव ने झारखंड के तत्कालीन डीजीपी को पत्र लिखकर अपनी चिंता जाहिर की थी.'' उन्होंने बताया कि कोबरा बटालियन किसी की चौकीदारी नहीं करती है और सीआरपीएफ का आत्मसमर्पण करवाने से कोई लेना-देना नहीं है.
गुमला जिले के रेवादा निवासी 25 वर्षीय करम दयाल तिग्गा के लिए इन तमाम आरोप-प्रत्यारोपों का कोई अर्थ नहीं है. कुल 514 लोगों के बीच सबसे गरीब युवकों में एक तिग्गा का कहना है कि उसने बोदरा को 50,000 रु. दिए थे ताकि वह सरेंडर कर सके और उसके बदले उसने नौ महीने शिविर में बिताए. वह कहता है, ''हमें नक्सली बना दिया गया, इसलिए गांववाले हमें पसंद नहीं करते. स्थानीय थाना हमें चरित्र प्रमाण पत्र नहीं देगा. स्थानीय ब्लॉक अधिकारी या कारोबारी इकाइयां हमें रोजगार नहीं देंगी. दूसरी ओर झारखंड के बड़े ग्रामीण भूभाग पर नियंत्रण रखने वाले नक्सली भी हम पर अविश्वास करते हैं. वे हमारे परिवारों पर शक करते हैं और अक्सर हमें गंभीर नतीजों की धमकी देते हैं. हम नक्सलियों और पुलिस के बीच में फंस गए हैं.''
कुजूर की चिंताएं ज्यादा भारी हैं. उन्हें जल्द से जल्द 40,000 रु. कमाने हैं ताकि वे उस खेत को वापस हासिल कर सकें जो उनके परिवार ने उन्हें पैसे देने के लिए गिरवी रख दिया था. कैंप में जाने के अपने फैसले पर अफसोस जताते हुए वे याद करते हैं, ''वे वर्दी में होते थे, सरकारी वाहनों में घूमते थे. हम उन पर विश्वास न करते तो क्या करते.'' चिलचिलाती गर्मी में ताजा बनी ईंटें भट्ठी में लाद कर ले जाते हुए उनके मन में अपने उन दोस्तों की तरह डर भी है जो अपना घर छोड़कर मजदूर बन गए हैं. कुजूर कहते हैं, ''हर कोई जानता है कि हमने शस्त्रों के साथ सरेंडर किया था. वे जब चाहें हमें पकड़ सकते हैं.''
कुलदीप बारा उन कुछेक लोगों में हैं जो अपने साथ हुए नुक्सान को भूल जाना चाहते हैं. बारहवीं तक पढ़ने के बाद एक आइटीआइ से डिग्रीधारी बारा को उम्मीद है कि उन्हें रोजगार मिल जाएगा और वे कर्ज चुका पाएंगे. वे साफ कहते हैं, ''मुझे सरकार से कुछ नहीं चाहिए. न तो न्याय और न ही उन लोगों के लिए सजा जिन्होंने हमें ठगा. मेरे पास पूरी जिंदगी पड़ी हुई है और मेरे माता-पिता मेरे समर्थन में हैं. बस मेरे नाम पर से नक्सली होने का ठप्पा हटा दीजिए और स्थानीय थाने से एक चरित्र प्रमाण पत्र लाकर दे दीजिए क्योंकि उसके बगैर कोई भी हमें नौकरी नहीं देगा.''
यह ऐसी मांग है जिसके बारे में शायद ही किसी को उम्मीद है कि पूरी हो पाएगी, जब तक कि इस मामले में कोई अदालती हस्तक्षेप न हो या केंद्र सरकार दखल न दे. खासकर इसकी संभावना कम लगती है क्योंकि राज्य में भी अब बीजेपी की ही सरकार है. चूंकि शक की सुई केंद्रीय और राज्य की पुलिस दोनों की ओर है, लिहाजा एक तटस्थ और केंद्रीय जांच एजेंसी ही पीड़ितों को इंसाफ दिलवा पाने में समर्थ होगी. गंवाने के लिए वक्त बहुत कम है. भट्ठे में ईंट उठाने का काम अब कुजूर जैसे लोगों को नहीं, उन बलों को करना चाहिए जिनकी जिम्मेदारी नक्सलियों से लड़ने की है.

आपकी राय