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Updated: 25 मई, 2022 10:21 PM
देवेश त्रिपाठी
देवेश त्रिपाठी
  @devesh.r.tripathi
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देश में होने वाली जनगणना के 2024 तक पूरा होने की उम्मीद है. इस साल की शुरुआत में जनगणना को जातीय आधार पर करने के लिए सियासी दलों ने खूब हो-हल्ला मचाया था. लेकिन, मुसलमानों की ओर से की जाने वाली जातिगत जनगणना की मांग पर चुप्पी साधे रखी थी. इन सबके बीच जातीय जनगणना किए जाने को लेकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 27 मई को सर्वदलीय बैठक बुलाई है. क्योंकि, बिहार में एक लंबे अरसे से आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव जातीय जनगणना की मांग करते रहे हैं. जातीय जनगणना की मांग करने वाली आरजेडी को उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की तरह ही बिहार में 'यादव' जाति की पार्टी कहा जाता है. लेकिन, जातीय जनगणना के इस फेर में असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा की मुस्लिम समाज को लेकर कही गई एक बात बहुत जरूरी नजर आती है.

दरअसल, हिमंत बिस्वा सरमा ने टाइम्स नाऊ को दिए इंटरव्यू में कहा था कि 'हिंदुओं की जाति व्यवस्था के बारे में हर चुनाव में बात होती है. चुनावी विश्लेषणों में हर सीट पर हिंदुओं में ब्राह्मण, राजपूत, क्षत्रिय, दलित, आदिवासी की बात होती है. लेकिन, मुस्लिम समाज में भी ये बंटवारा है. और, लोग इसके बारे में नहीं लिखते हैं. और, इसकी वजह से मुस्लिम समाज में जो दबे-कुचले लोग हैं. वो हमेशा ऐसे ही बने रहते हैं. मुस्लिम समाज में भी जातियां और अलग-अलग समुदाय हैं. लेकिन, सबको केवल मुसलमान के तौर पर पेश किए जाने की वजह से मुस्लिम समाज के कमजोर तबके यानी गरीब और दलित को उचित सम्मान नहीं मिल पाता है. संपन्न मुस्लिम इस कमजोर तबके के हक दबा जाते हैं. दलित और आदिवासियों की बात उठाए जाने पर ही आज इन सभी के जीवन में काफी हद तक सुधार आया है. तो, मुस्लिम समाज के उस तबके की बात क्यों नहीं की जाती हैं?'

हिमंत बिस्वा सरमा की कही ये बात मुस्लिम समाज की हालिया स्थिति पर सटीक बैठती है. हिंदुओं की तरह ही मुस्लिम समाज में भी तमाम जातियां भरी पड़ी हैं. इसके बावजूद मुसलमानों को लेकर होने वाली तमाम चर्चाओं में इस समुदाय को को सिर्फ मुस्लिम समाज बताकर पेश किया जाता है. जबकि, पसमांदा मुसलमान लंबे समय से अपनी जातियों की अलग जनगणना की मांग कर रहे हैं. सरमा की मानें, तो असम में मुस्लिम समुदाय के देशज यानी स्थानीय लोग तीन प्रतिशत हैं. जो खुद ही जातिगत जनगणना की मांग कर रहे हैं. इस स्थिति में सवाल उठना लाजिमी है कि असम से उठी जातीय जनगणना में मुसलमानों की जातियां गिनने की मांग क्या पूरे देश में लागू होगी?

 Caste Census Bihar Pasmanda Muslimदेशी और विदेशी मुसलमानों में बंटे मुस्लिम समाज में 90 फीसदी आबादी पसमांदा (जो पीछे रह गए) की है.

मुसलमानों को एक क्यों नहीं माना जाए?

साउथ एशिया के मुस्लिम समाज सीधे तौर पर दो हिस्सों में बंटा हुआ है. इनमें से एक अशराफ (शरीफ के लिए अरबी भाषा का शब्द) कहलाते हैं. जो मुस्लिम अरब अप्रवासियों के वंशजों के तौर पर जाने जाते हैं. और, दूसरे गैर-अशराफ हैं. आसान शब्दों में कहा जाए, तो जिन्होंने हिंदू धर्म छोड़कर इस्लाम अपनाया है. अशराफ समूह भी चार समूहों में बंटा हुआ है. जिनमें से एक सैय्यद हैं. जिन्हें इस्लाम के आखिरी पैगंबर मोहम्मद की बेटी फातिमा और उनके पति अली का वंशज माना जाता है. 

दूसरा समूह शायख्स का है. जो अरबी और पर्सियन अप्रवासियों के वंशज माने जाते हैं और इनमें इस्लाम अपनाने वाले कुछ राजपूतों को भी रखा जाता है. तीसरा समूह है पश्तूनों का. अफगानिस्तान और उत्तर-पश्चिम पाकिस्तान में पश्तो भाषा बोलने वाले जनजातियों को इसमें रखा जाता है. अशराफ समूह में मुगल सबसे आखिरी में आते हैं. तुर्की मूल के वो लोग जो अपनी फौज के साथ भारत आए.

वहीं, गैर-अशराफ समूह की बात की जाए, तो मुस्लिम जातियां इसमें तीन स्तर की होती हैं. सबसे ऊपर हिंदुओं की ऊंची जातियों से इस्लाम कबूल करने वाले लोग आते हैं. मुख्य तौर से इसमें राजपूत आते हैं. जिन्हें शायख्स समूह में स्वीकार नहीं किया गया. इसके बाद आते हैं कारीगर जाति के समूह. इनमें आमतौर पर जुलाहे आते हैं. और, सबसे निचले स्तर पर दलित समुदाय से इस्लाम कबूल करने वाले आते हैं. 

सामाजिक न्याय की राह ताकते पसमांदा मुसलमान?

देशी और विदेशी मुसलमानों में बंटे मुस्लिम समाज में 90 फीसदी आबादी पसमांदा की है. मुस्लिम समाज के दलित और पिछड़े वर्ग से आने वालों मुसलमानों को पसमांदा कहा जाता है. भारत में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, जमीयत-उलेमा-ए-हिंद जैसे मुसलमानों के तमाम प्रतिनिधि संगठनों और राजनीति में अशराफ यानी विदेशी मुस्लिमों का ही बोलबाला है. दलित और पिछड़े वर्ग से आने वाले ये पसमांदा मुसलमान भारत के अलग-अलग राज्यों में हैं. और, खास तौर से बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, पश्चिम बंगाल और दिल्ली में बड़ी संख्या में पाए जाते हैं. अंसारी, रायनी, कुरैशी, मंसूरी, इदरीसी, सलमानी जैसे उपनामों वाले ये पसमांदा, मुस्लिम समाज में सबसे निचले दर्जे के माने जाते हैं. मुस्लिम समुदाय में जातियों का इतना गहरा असर है कि अशराफ समूह के लोगों और गैर-अशराफ के बीच रोटी-बेटी का भी संबंध नहीं है. आसान शब्दों में कहा जाए, तो मजहबी से लेकर सामाजिक मामलों तक में इन मुसलमानों के साथ भेदभाव किया जाता है.

एलीट मुसलमानों ने पनपने ही नहीं दिया कोई 'आंबेडकर'

कहना गलत नहीं होगा कि राजनीति से लेकर सामाजिक मामलों में अशराफ समूह के एलीट मुस्लिमों के बोलबाले ने पसमांदा मुसलमानों के बीच लीडरशिप पैदा ही नहीं होने दी. जिस तरह से संविधान निर्माता भीमराव आंबेडकर ने दलितों-आदिवासियों के साथ पिछड़ी जातियों के लिए आवाज उठाई. और, संविधान के जरिये उनके अधिकार दिलाया. ठीक इसी तरह पसमांदा मुसलमानों को भी एक आंबेडकर की जरूरत है. इन पिछड़े और गरीब मुसलमानों को मजहब के नाम पर भड़का कर राजनीति के ऊंचे पदों पर बैठे अशराफ मुसलमान इसका फायदा उठाते हैं. लेकिन, ये कमजोर तबका जैसा था, वैसे ही हालातों पर बैठा हुआ है. मुस्लिम समाज के इन दलित और पिछड़े वर्ग के मुसलमानों का भी आरोप है कि अशराफ जातियों ने बरसों से उन्हें कमजोर किया है.

जातीय जनगणना से मुस्लिमों को भी मिले उनके अधिकार

माना जा रहा है कि बिहार में जेडीयू और भाजपा के बीच जातीय जनगणना को लेकर एक राय बन सकती है. क्योंकि, भाजपा और जेडीयू दोनों ही राजनीतिक दलों को आरजेडी के जातीय जनगणना को लेकर चलाए गए अभियान से एकमुश्त तरीके से निजात मिल जाएगी. और, इस फैसले से आरजेडी के खाते में जाने वाला फायदा जेडीयू से होते हुए भाजपा के खाते में भी आएगा. लेकिन, अहम सवाल यही है कि क्या बिहार में जातीय जनगणना कराने जा रहे नीतीश कुमार मुस्लिमों की जातियां भी शामिल करेंगे?

लेखक

देवेश त्रिपाठी देवेश त्रिपाठी @devesh.r.tripathi

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं. राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

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