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Updated: 13 अगस्त, 2022 08:32 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार का साथ छूटने के बाद दोनों की राजनीतिक सेहत पर अलग अलग प्रभाव महसूस किया जा रहा है. नीतीश कुमार खुद तो मुख्यमंत्री बने हुए हैं, लेकिन ये समझना मुश्किल हो रहा है कि 'क्या अपने बचे हुए कार्यकाल तक कुर्सी पर वैसे ही बने रहेंगे?'

प्रधानमंत्री मोदी को लेकर ऐसा ही सवाल नीतीश कुमार भी पूछ चुके हैं - '14 में जो आये थे, वे 24 के बाद रह पाएंगे या नहीं?'

नीतीश कुमार ने सिर्फ ये सवाल ही नहीं उठाया है, बल्कि पूरे विपक्ष को एकजुट होने के लिए भी कहा है. 2014 से 2017 के बीच भी नीतीश कुमार विपक्षी नेताओं को ऐसी सलाह देते रहते थे. कांग्रेस को लेकर तब तो नीतीश कुमार की राय ममता बनर्जी से अलग हुआ करती थी, बदले हालात में क्या रुख अपनाते हैं देखना होगा.

नीतीश कुमार कहा करते थे कि विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते कांग्रेस ही मोदी विरोधी मोर्चे का नेतृत्व करे, जबकि ममता बनर्जी कांग्रेस को किनारे रख कर विपक्ष को एक साथ होने की पक्षधर हैं. ममता बनर्जी अब भी कांग्रेस को लेकर अपने रुख पर टिकी हुई लगती हैं.

2024 में प्रधानमंत्री मोदी को चैलेंज करने की तैयारी में जुटे दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का विपक्ष से नाता सिर्फ राष्ट्रपति चुनाव तक सीमित देखा जाता है. मोदी विरोध के नाम पर वो वोट विपक्ष के उम्मीदवार को ही देते हैं, लेकिन बाकी मामलों में वो दूरी बनाये रखते हैं.

अरविंद केजरीवाल को भी ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और आंध्र प्रदेश के सीएम जगनमोहन रेड्डी के राजनीतिक स्टैंड के आस पास देखा जा सकता है, लेकिन थोड़ा सा फर्क है. जैसे नवीन पटनायक और जगनमोहन रेड्डी साथ न होकर भी बीजेपी की सरकार का सपोर्ट करते नजर आते हैं, अरविंद केजरीवाल भी विपक्ष के साथ न होकर मोदी विरोध की अलख जगाये रखते हैं.

विपक्षी खेमे में नीतीश कुमार की पांच साल बाद एंट्री हुई है और आते ही वो अपनी तरफ से कुछ ऐसा मैसेज देने की कोशिश कर रहे हैं जैसे नये सिरे से 'आरंभ है प्रचंड...'

लेकिन बाकी बातें तब पूरी तरह गौण हो जाती हैं जब देश का मिजाज अलग नजर आता है - और देश का मिजाज तो मोदी के साथ अब भी पहले की ही तरह कायम है. इंडिया टुडे के 'मूड ऑफ द नेशन' सर्वे में मोदी एक मोदी एक बार फिर चुनौती देने वाले सारे राजनीतिक विरोधियों से आगे हैं - और विरोधियों की कौन कहे, जो उनके उत्तराधिकारी बनने का सपना देख रहे होंगे वे भी काफी दूर नजर आते हैं.

ये तो ऐसा लगता है जैसे रेस में नीतीश कुमार भी उतर चुके हैं, लेकिन अभी खुद उनको अपनी जगह बनानी है - क्योंकि बिहार में महागठबंधन में वापसी भी तो शर्तों के साथ ही हुई है. सशर्त पुनर्गठबंधन में बनी आपसी सहमति के तहत नीतीश कुमार को 2024 तक बिहार की राजनीति तेजस्वी यादव के हवाले करनी होगी. हालांकि, सशर्त गठबंधन पर भी शर्तें लागू लगती हैं क्योंकि ये तो तभी संभव हो पाएगा जब बीजेपी रोड़ा नहीं बनेगी या कोई बाधा नहीं खड़ा करेगी. सवाल ये है कि बीजेपी ऐसा क्यों नहीं करेगी?

नीतीश कुमार के खिलाफ बिहार के नेताओं संजय जायसवाल और गिरिराज सिंह ने तो पहले ही मोर्चा खोल दिया था, अब बीजेपी प्रवक्ता संबित पात्रा भी आ गये हैं. कह रहे हैं - बिहार में जंगलराज लौट आया है.

'देश का मिजाज' कैसा है

देश के मिजाज की बात करें तो लोग विपक्ष की तरफ उम्मीद भरी नजरों से देख तो रहे हैं, लेकिन भरोसे पर निराशा हावी लगती है. नीतीश कुमार ने पाला बदल कर सत्ता की राजनीति के आंकड़े जरूर बदल दिये हैं, लेकिन बस उतना ही जितना नंबर उनके साथ था - और यही वजह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले एनडीए में सांसदों की संख्या कम लगने लगी है.

narendra modi, nitish kumar2024 में प्रधानमंत्री बनने के लिए लोगों मेें मोदी जैसा भरोसा कायम करना होगा

इंडिया टुडे और सीवोटर के सर्वे में 1,22, 016 लोगों को शामिल किया गया था. ये सर्वे फरवरी, 2022 से लेकर 9 अगस्त, 2022 तक किया गया - 9 अगस्त की तारीख फिर से महत्वपूर्ण इसलिए हो गयी क्योंकि उसी दिन तय हो गया था कि नीतीश कुमार बीजेपी का साथ छोड़ कर लालू यादव की पार्टी आरजेडी से हाथ मिला रहे हैं.

सर्वे का अनुमान है कि नीतीश कुमार के महागठबंधन में चले जाने से एनडीए को 21 सीटों का नुकसान हो सकता है. मतलब, अगर आज की तारीख में लोक सभा के लिए चुनाव हों तो एनडीए की सीटें 307 से घट कर 286 हो जाएंगी. 9 अगस्त से पहले जहां यूपीए को 125 सीटें मिलतीं, वहीं 543 में से अब उसे 146 सीटें मिलने की संभावना जतायी जा रही है. सर्वे में अन्य दलों के हिस्से में 111 सीटें दर्ज की गयी हैं, लेकिन वे 9 अगस्त के घटनाक्रम से अप्रभावित हैं.

फिर भी मोदी जैसा कोई नहीं: नीतीश कुमार के पाला बदल लेने से यूपीए की सीटों में इजाफा जरूर हो रहा है और एनडीए का नुकसान स्वाभाविक है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीतिक सेहत पर भी कोई फर्क पड़ रहा हो ऐसा कोई संकेत नहीं नजर आ रहा है.

मूड ऑफ द नेशन के मुताबिक, प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी को जहां आधे से ज्यादा लोग पसंद कर रहे हैं, बाकी नेताओं में से कोई भी दहाई के अंक तक नहीं पहुंच पा रहा है. सर्वे के मुताबिक देश के प्रधानमंत्री के लिए टॉप 5 नेताओं की लिस्ट में विपक्ष ही नहीं बीजेपी के सबसे ताकतवर नेता अमित शाह और लोकप्रिय लीडर योगी आदित्यनाथ भी कहीं टिक पा रहे हों, लगता नहीं है.

1. नरेंद्र मोदी सर्वे में शामिल 53 फीसदी लोगों को प्रधानमंत्री के रूप में पसंद हैं.

2. राहुल गांधी सर्वे में शामिल 09 फीसदी लोगों को प्रधानमंत्री के रूप में पसंद हैं.

3. अरविंद केजरीवाल सर्वे में शामिल 06 फीसदी लोगों को प्रधानमंत्री के रूप में पसंद हैं.

4. योगी आदित्यनाथ सर्वे में शामिल 05 फीसदी लोगों को प्रधानमंत्री के रूप में पसंद हैं.

5. अमित शाह सर्वे में शामिल महज 03 फीसदी लोगों को प्रधानमंत्री के रूप में पसंद हैं.

टॉप 5 की लिस्ट में नीतीश कुमार का नाम इसलिए नहीं है, न ही ममता बनर्जी या कोई और नेता शामिल है. हो सकता है नीतीश कुमार भी कुछ दिनों बाद कहीं न कहीं जगह बना लें, लेकिन क्या वो भी मोदी के आस पास पहुंच पाएंगे? और अगर नहीं पहुंच पाते तो चैलेंज करने का मतलब एक मजबूत विरोध प्रदर्शन से ज्यादा तो माना नहीं जाएगा.

लोकतंत्र की सेहत के हिसाब से विपक्ष के नेताओं का मिल कर या अकेले चैलेंज करना अच्छा है - क्योंकि मजबूत विपक्ष की लोकतंत्र में जरूरी भूमिका होती है. अभी विपक्ष की भूमिका न के बराबर लगती है.

मोदी के लिए अब भी मोदी ही चुनौती हैं

विधानसभा और लोक सभा चुनाव में कम ही चीजें एक जैसी होती हैं. मुद्दे तो बिलकुल ही अलग होते हैं. यही वजह है कि प्रधानमंत्री मोदी कड़ी मशक्कत के बावजूद कई बार बेअसर भी साबित होते हैं. 2021 का पश्चिम बंगाल चुनाव और 2022 का पंजाब विधानसभा चुनाव मिसाल हैं.

लेकिन लोक सभा में मोदी लहर 2014 से अब तक कायम है - और ताजा सर्वे की मानें तो अब भी कायम है. चूंकि सामने कोई बड़ी चुनौती नहीं नजर आ रही है और देश का मिजाज भी कुछ वैसा ही मालूम पड़ता है - 2024 के चुनावी समीकरणों को समझें तो प्रधानमंत्री मोदी के लिए मामला वॉक ओवर जैसा तो नहीं, लेकिन ग्रीन कॉरिडोर जैसा जरूर लगता है.

ये तो मान कर चलना होगा कि मोदी के लिए मोदी ही चुनौती हैं. अब भी. अगर कुछ गलत किया तो खुद ही रेस में पिछड़ जाएंगे. लेकिन चैलेंज करने की शर्त है कि चैलेंजर को भी मोदी जैसा ही बनना होगा.

सबसे बड़ी बात है कि लोगों के लिए मोदी सबसे भरोसेमंद नेता बने हुए हैं - और मोदी जैसा भरोसा लोगों को कोई भी नेता नहीं दिला पा रहा है. कोई भी नेता अगर लोगों को मोदी जैसा भरोसा दिला पाता तो वे एक बार सोचते जरूर. उदाहरण के तौर पर अगर बिहार की ही बात करें तो नीतीश कुमार से ऊबे लोग तेजस्वी में विकल्प तो देख ही रहे थे. ये बात अलग है कि नीतीश कुमार के साथ चुनावी रैलियों के मंच पर उतर कर प्रधानमंत्री मोदी ने विकल्प के प्रभावों को कम कर दिया.

लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर तो ऐसा कोई भी अब तक नजर नहीं आता. न कोई एक नेता ही, न ही नेताओं का कोई समूह ही जो ये भरोसा दिला सके कि प्रधानमंत्री पद को लेकर उनके बीच कोई झगड़ा नहीं है. लोगों ने सत्ता दे दी तो वे किसी एक नेता पर आम राय बना लेंगे.

कभी घोषित तो कभी अघोषित मेन चैलेंजर तो मोदी के सामने राहुल गांधी ही हैं. 2014 को अलग रखें तो पांच साल बाद भी लोगों को राहुल गांधी पर भरोसा नहीं हुआ. तब वो कांग्रेस पार्टी की कमान भी संभाले हुए थे. फिर भी बहुमत के सामने विकल्प के तौर पर भरोसा नहीं दिला सके और अपनी सीट भी गवां बैठे.

राहुल गांधी ने फिलहाल महंगाई और बेरोजगारी जैसा बेहद गंभीर मुद्दा उठाया है, लेकिन मुश्किल ये है कि वो मुद्दे पर फोकस ही नहीं कर पाते. ज्यादा जोर मोदी विरोध पर रहता है. जांच एजेंसियों के एक्शन खास कर प्रवर्तन निदेशालय पर लगता है - और वो लोगों को ये नहीं समझा पाते कि वो मोदी के खिलाफ विकल्प भी हो सकते हैं.

अरविंद केजरीवाल की बात करें तो अभी दिल्ली बहुत दूर लगती है. कोशिशें तो खूब कर रहे हैं. मौजूदा राजनीति में हिंदुत्व के प्रभाव को देखते हुए ट्रैक भी सही पकड़ रखे हैं, लेकिन राष्ट्रीय विकल्प के तौर पर लोगों के बीच जगह नहीं बना पाये हैं. हिंदी तो अच्छी बोलते हैं, भाषण भी अच्छा देते हैं, लेकिन अभी उनको उन राज्यों में ही मौका मिल रहा है जहां बीजेपी दावेदार नहीं है. ये बात दिल्ली पर तो लागू नहीं हो सकती, लेकिन पंजाब या दूसरे राज्यों पर तो ये है ही. दिल्ली की सभी सात लोक सभा सीटें बीजेपी के पास है, एमसीडी में भी बीजेपी ही काबिज है, लेकिन दिल्ली में वो सरकार नहीं बना पा रही है. शायद इसलिए कि आम आदमी पार्टी की नींव दिल्ली में ही पड़ी है - और ये उसका मजबूत पक्ष है.

नये चैलेंजर बन कर उभरे नीतीश कुमार के पास सुशासन का मॉडल तो है, राजनीतिक तौर पर काफी अनुभवी भी हैं, लेकिन लोगों को लगने लगा है कि वो सत्ता के लालची हो गये हैं - अब न तो उनका कोई सिद्धांत है, न ही उनकी कोई विचारधारा रह गयी है.

ममता बनर्जी अब तक बहुमत की पसंद नहीं सकी हैं. हिंदी भी नहीं आती कि अपनी बातें समझा सकें. एनडीए और यूपीए दोनों के साथ काम कर चुकीं ममता को लेकर भी लोगों की सोच नीतीश कुमार जैसी हो सकती है. राष्ट्रपति चुनाव और उपराष्ट्रपति चुनाव में उनकी भूमिका ने सस्पेंस और बढ़ा दिया है - और ये सारे फैक्टर मोदी की राह बेहद आसान कर देते हैं.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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