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यूनिफार्म सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता क्यों जरूरी है?
यूनिफार्म सिविल कोड का बहुसंख्यकों द्वारा समर्थन किया जा रहा है वहीं देश के अल्पसंख्यक इसके विरोध में हैं. भले ही बिल विवादों के घेरे में हो लेकिन माना जा रहा है कि आज नहीं तो कल केंद्र सरकार यूनिफार्म सिविल कोड लाने की पहल कर सकती है.
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हाल के दिनों में यूनिफार्म सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता को लेकर राजनैतिक माहौल गर्म है. एक ओर जहां देश की बहुसंख्यक आबादी सामान नागरिक संहिता लागू करने की बात कर रही है. तो वहीं अल्पसंख्यक वर्ग इसका विरोध कर रहा है. उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने समान नागरिक संहिता का मसौदा तैयार करने के लिए एक समिति का गठन करने की बात कही है. तो वहीं उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और असम के मुख्यमंत्री भी कॉमन सिविल कोड लाने की वकालत कर रहे हैं. चूंकि समान नागरिक संहिता भाजपा के प्रमुख एजेंडे का हिस्सा है और केंद्र सरकार अनुच्छेद 370 और तीन तलाक जैसे विवादित मुद्दों को खत्म कर चुकी है. तो ऐसे में ये माना जा रहा है कि आज नहीं तो कल केंद्र सरकार यूनिफार्म सिविल कोड लाने की पहल कर सकती है. आइये जानते है क्या है समान नागरिक संहिता जिसपर इतनी राजनीति हो रही है?
माना जा रहा है कि आज नहीं तो कल केंद्र सरकार यूनिफार्म सिविल कोड लाने की पहल कर सकती है
समान नागरिक संहिता
यूनिफार्म सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता में देश के हरेक नागरिक के लिए एक समान कानून होता है. चाहे वह किसी भी धर्म या जाति का क्यों न हो. समान नागरिक संहिता का मतलब धर्म और वर्ग से ऊपर उठकर पूरे देश में एक समान कानून लागू करने से है. समान नागरिक संहिता में शादी, तलाक, जमीन जायदाद के बटवारे और उत्तराधिकार-गोद लेने जैसे सामाजिक मुद्दे सभी एक कानून के अंतर्गत आ जाते हैं. इसमें धर्म के आधार पर कोई अलग कोर्ट या अलग व्यवस्था नहीं होती है. जबकि अभी देश में सभी धर्मो के लिए अलग अलग नियम हैं. सम्पति, तलाक़ और विवाह के नियम हिन्दुओं ,मुस्लिमो और ईसाइयो के लिए अलग हैं. भारत में गोवा एकमात्र ऐसा राज्य है जहा सामान नागरिक सहिंता लागू है .
कानून क्या कहता है
भारत एक धर्म निरपेक्ष देश है संविधान बनाते समय ही इसका जिक्र कानून में कर दिया गया था. संविधान में यूनिफार्म सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता की चर्चा अनुच्छेद 44 में की गई है . राज्य के नीति-निर्देशक तत्त्व से संबंधित इस अनुच्छेद में कहा गया है कि ‘राज्य, भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा’.
समान नागरिक संहिता के पक्ष में तर्क
समान नागरिक संहिता के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क यह दिया जाता है कि इससे समाज में एकरूपता लाने में मदद मिलेगी . समान नागरिक संहिता लागू हो जाने से विवाह, गोद लेने की व्यवस्था, तलाक़ के बाद महिलायों को उचित भरण पोषण देने में समानता लाई जा सकेगी . संविधान के अनुच्छेद 44 में नागरिक संहिता की चर्चा की गई है. इससे साफ़ है कि संविधान निर्माता यह चाहते थे कि देश में यूनिफार्म सिविल कोड लागू हो . संविधान में मूल अधिकारों में विधि के शासन की अवधारणा विद्यमान है लेकिन इन्हीं अवधारणाओं के बीच लैंगिक असमानता जैसी कुरीतियां भी व्याप्त हैं. विधि के शासन के अनुसार, सभी नागरिकों हेतु एक समान विधि होनी चाहिये. लेकिन समान नागरिक संहिता का लागू न होना एक प्रकार से विधि के शासन और संविधान की प्रस्तावना का उल्लंघन है.
समान नागरिक संहिता के विपक्ष में तर्क
देश में समान नागरिक संहिता का विरोध करने वाले अल्पसंख्यक समुदाय विशेषकर मुस्लिम समाज का सबसे बड़ा तर्क ये है की यह संविधान के अनुच्छेद 25 का उल्लंघन है जिसमे कहा गया है कि संविधान ने देश के सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार है. यह देश विविधा भरी संस्कृति को लेकर चलने वाला है यहां अलग अलग जगहों पर कई परस्पर विरोधी रीती रिवाज़ प्रचलित है ऐसे में सब पर एक कानून थोपना संविधान में खिलवाड़ करने जैसा है.
संविधान भारत में विधि के शासन की स्थापना की बात करता है. जब आपराधिक मामलों में सभी समुदायों के लिए एक कानून का पालन होता है तब सिविल मामलों में सभी के अलग कानून क्यों? आज़ादी के बाद से ही देश में समय - समय पर कायदे और कानून में बदलाव होते रहे हैं. लोगो की जरूरतों और परिस्थतियों को ध्यान में लेकर ऐसे बदलाव किये जा रहे हैं. देश का कानून किसी भी धर्म जाति समुदाय से ऊपर है. जब हिंदू बिल लाया गया था तब भी इसका भी खूब विरोध हुआ था. केवल विरोध को ध्यान में रखा जाता तो ना दहेज़ विरोधी कानून पास हो पता और ना ही सती प्रथा का अंत हो पता. इसलिए देश के सभी समुदायों का ध्यान रखते हुए समान नागरिक संहिता कानून लागू करने की दिशा में सकारात्मक कदम बढ़ाना चाहिए.
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