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Updated: 14 अगस्त, 2020 04:40 PM
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वसुंधरा राजे (Vasundhara Raje) राजस्थान की राजनीति में फिर से रिंग मास्टर की तरह उभरने लगी हैं. फिलहाल वो भले ही नेतृत्व न कर रही हों, लेकिन उनकी सक्रियता राजस्थान की राजनीति में उनके बढ़ते हस्तक्षेप का संकेत तो दे ही रही है. राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत (Ashok Gehlot) ने भले ही अपने राजनीतिक फायदे के लिए चाल चली है - और भले ही सचिन पायलट को अशोक गहलोत और गांधी परिवार से लेकर बीजेपी (BJP) तक ने मोहरे के रूप में इस्तेमाल किया हो, लेकिन अब तो ऐसा लगता है जैसे चीजें वसुंधरा राजे के मनमाफिक होने लगी हों.

राजस्थान में महीने भर से चल रही राजनीतिक उठापटक में भी वसुंधरा राजे और अशोक गहलोत दोनों ही पर एक दूसरे के मददगार बने रहने के इल्माम लगते रहे हैं. वैसे भी दोनों ही नेताओं को एक दूसरे का शुक्रगुजार तो होना ही चाहिये. अशोक गहलोत अगर अभी तक अपनी कुर्सी और गांधी परिवार में पैठ बनाये रखने में कामयाब रहे हैं, तो वसुंधरा का राजनीतिक स्टैंड उनके काम ही आया है - और वसुंधरा अगर दिल्ली तक अपना दबदबा नये सिरे से दिखा सकी हैं तो ये मौका भी अशोक गहलोत ने ही मुहैया कराया है.

सवाल ये है कि राजस्थान की हालिया राजनीतिक जंग में सबसे ज्यादा फायदे में और घाटे में कौन रहा है? अशोक गहलोत और सचिन पायलट की लड़ाई ने वसुंधरा राजे को वो सुनहरा मौका उपलब्ध कराया है जिसकी उनको शिद्दत से जरूरत रही होगी - और सबसे बड़ा नुकसान तो बीजेपी के हिस्से में लग रहा है.

वसुंधरा ने मौके का पूरा फायदा उठाया है

अशोक गहलोत को तो खुश होना चाहिये. विधानसभा का सत्र बुलाये जाने के बाद उनकी मन की मुराद पूरी होने जा रही है - बहुमत हासिल करने की. आखिर वो तो इसी काम के लिए सत्र बुलाये जाने के लिए राजभवन तक विधायकों को ले जाकर धरने पर बिठा दिये थे. जब तक राज्यपाल कलराज मिश्र ने विधानसभा का सत्र बुलाये जाने की राज्य सरकार की मांग मंजूर नहीं कर ली, अशोक गहलोत बेहद आक्रामक हो चुके थे.

अब तो अशोक गहलोत को बहुमत साबित करने के लिए कोई बहाना भी नहीं खोजना पड़ेगा - क्योंकि बीजेपी ने कांग्रेस सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने का पहले ही ऐलान कर दिया है. आखिर अशोक गहलोत चाहते तो यही थे, ये बात अलग है कि ऐसा पहले चाहते थे ताकि सचिन पायलट और उनके गुट के विधायकों के खिलाफ एक्शन लेने का बहाना मिल जाये. लेकिन मुरादों का कहा क्या जाये - मांगी किसी दौर में जाती हैं, पूरी कभी और होती हैं.

अब तो शुक्रगुजार होना चाहिये वसुंधरा राजे का जो चर्चित एहसानों का बदला राजनीतिक तरीके से चुकाने जा रही हैं - राजस्थान विधानसभा में विपक्ष की नेता भले ही वसुंधरा नहीं बल्कि गुलाब चंद्र कटारिया हों, भले ही प्रदेश बीजेपी की अध्यक्ष सतीश पूनिया हों - लेकिन वसुंधरा ने दिल्ली में डेरा डाल कर बीजेपी नेतृत्व को एक बार फिर ये एहसास तो करा ही दिया है कि उनकी मर्जी के बगैर राजस्थान की राजनीति में पत्ता नहीं हिल सकता. अगर हिला भी तो एक दो पत्ते भले टूट कर गिर जायें, लेकिन वो क्षेत्रीय स्तर पर कमजोर पड़ चुके पुराने बरगद की तरह ही मजबूत बनी रहेंगी.

ashok gehlot, sachin pilotअशोक गहलोत और सचिन पायलट के झगड़े का बीजेपी से भी ज्यादा फायदा तो वसुधार राजे ने उठा लिया है

जो वसुंधरा राजे धौलपुर से जयपुर आने को तैयार न थीं. कट्टर राजनीतिक विरोधी ही सही, जब तक केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत को कानूनी तरीके से टारगेट नहीं किया गया, वसुंधरा राजे चुपचाप पड़ी रहीं. जब लगा कि हरकत में आने का समय आ चुका है तो ट्विटर पर एक गोलमोल बयान जारी कर रस्मअदायगी कर दी थी. वसुंधरा के खामोश रहने को बीजेपी नेतृत्व से उनके मतभेदों से जोड़ कर देखा जा रहा था, लेकिन वो मौका भी आ ही गया जब संवाद स्थापित हुआ और फिर क्या था - वसुंधरा राजे सीधे दिल्ली पहुंच गयीं और डेरा डाल कर सीनियर बीजेपी नेताओं से मुलाकातों का सिलसिला शुरू कर दिया.

वसुंधरा राजे को तो कब से ऐसे मौके का इंतजार रहा जब वो अपनी बात डंके की चोट पर कह सकें. जब वो अपनी बात कहें तो बीजेपी नेतृत्व ध्यान से सब कुछ सुने. वसुंधरा और जेपी नड्डा की मुलाकात इस हिसाब से तो काफी अच्छी रही. वसुंधरा ने मुलाकात में बताया कि किस तरह जयपुर में उनके खिलाफ बीजेपी के ही नेता गुटबाजी कर रहे हैं और उनके पीछे बयानबाजी हो रही है. ये भी बताया कि किस तरह सतीश पूनिया ने राजस्थान बीजेपी की नयी टीम बनायी और उनके समर्थकों को जगह देना तो दूर चुन चुन कर विरोधियों को फ्रंट सीट पर बिठा दिया है. वसुंधरा राजे ने जेपी नड्डा के साथ साथ अपनी शिकायतें पूर्व बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के यहां भी दर्ज करायी और संगठन मंत्री बीएल संतोष के सामने भी.

फर्ज कीजिये अगर अशोक गहलोत ने राजनीतिक पैंतरेबाजी नहीं की होती तो क्या वसुंधरा राजे को ये मौका मिल पाता?

दिल्ली तो वसुंधरा को बुलाया ही जा रहा था, लेकिन वो अपनी शर्तों पर पहुंचीं - और अपनी ही शर्तों पर जयपुर लौटीं. अपनी ही शर्तों पर बीजेपी विधायक दल की बैठक में शामिल भी हुईं. उनकी मौजूदगी में अशोक गहलोत सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने का फैसला हुआ. मतलब., फैसले में उनकी भी मंजूरी है. जब तक वसुंधरा राजे इस तरह एक्टिव नहीं हुई थीं, बीजेपी के किसी भी नेता ने ऐसी मांग तक भी नहीं की थी.

वसुंधरा को भी सिर्फ अशोक गहलोत से ही मदद नहीं मिली बल्कि सचिन पायलट जैसे किरदार का होना भी फायदे में ही रहा. बदले में सचिन पायलट को भी फायदा ये हुआ कि खुद की ताकत की पैमाइश का बेहतरीन मौका भी मिला. अब वो चाहें तो आगे के लिए अच्छी तैयारी कर सकते हैं. सतीश पूनिया ने तो यहां तक कह दिया था कि अगर जरूरत पड़ी तो सचिन पायलट को मुख्यमंत्री भी बनाया जा सकता है.

जब वसुंधरा राजे को बीजेपी के ही किसी नेता की बढ़ती ताकत मंजूर नहीं तो किसी बाहरी को कैसे बर्दाश्त कर सकती हैं. सतीश पूनिया, राजेंद्र राठौड़ और गजेंद्र सिंह शेखावत जैसे नेताओं को भी लगा होगा कि सचिन पायलट से तो अच्छा रहेगा वसुंधरा राजे को ही झेल लें. वसुंधरा राजे के मुकाबले सचिन पायलट को तो लंबे वक्त तक झेलने के लिए तैयार होना पड़ता. सचिन पायलट के चलते ही वसुंधरा विरोधी नेताओं को अपने खिलाफ नरम कर पाने में सफल रहीं और बीजेपी आलाकमान को अपनी बात मनवाने के लिए दबाव भी बना सकी हैं.

बीजेपी के अविश्वास प्रस्ताव लाये जाने का ये कतई मतलब नहीं कि अशोक गहलोत सरकार तत्काल गिरने ही जा रही है. अभी तक नंबर अशोक गहलोत के पक्ष में मजबूत है. ऐसा भी सोचना ठीक नहीं होगा कि अब वसुंधरा राजे ने कांग्रेस सरकार हर हाल में गिराने का फैसला ही कर लिया है. तत्काल मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल करने भी वसुंधरा के लिए जरूरी दबदबा कायम करना है - जयपुर में भी और दिल्ली में भी. ऐसा इसलिए ताकि आने वाले चुनावों में दिल्ली में बैठे बैठे कोई उनको दरकिनार करने की हिम्मत न जुटा सके.

वैसे भी कोरोना संक्रमण काल में कौन ऐसी जिम्मेदारी लेना चाहेगा जिसमें कुछ भी कर लेने का बाद कामयाब होने की संभावना बेहद कम हो. अगर वसुंधरा बचे हुए समय के लिए कुर्सी पर बैठने में कामयाब हो भी जाती हैं तो अगली पारी की गारंटी भी खत्म समझ लेना होगा. राजस्थान में तो बारी बारी सत्ता की परंपरा रही है - फिर आगे के लिए जानबूझ कर वसुंधरा राजे जोखिम क्यों उठायें?

वसुंधरा की हनक तो कायम है

मजबूत जनाधार वाले क्षेत्रीय नेता केंद्रीय नेतृत्व पर भारी पड़ते ही हैं. ऐसे मामलों में पार्टी का कांग्रेस है या बीजेपी फर्क नहीं पड़ता. कांग्रेस में पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और हरियाणा के जाट नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा उदाहरण हैं तो बीजेपी में कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा से बेहतर मिसाल भला और कौन हो सकता है. जिस बीजेपी में 75 पार वाले नेताओं को या तो राजभवनों में ठिकाना मिलता हो या फिर मार्गदर्शक मंडल में बीएस येदियुरप्पा डंके की चोट पर ऑपरेशन लोटस की बदौलत सीएम की कुर्सी संभाल रहे हैं. विरोध तो हर नेता को झेलना पड़ता है और येदियुरप्पा ने तो ज्यादा ही झेला है, लेकिन हाल फिलहाल नेताओं की बयानबाजी के बीच प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष को आगे आकर बोलना पड़ा कि कर्नाटक में नेतृत्व परिवर्तन होने की कोई भी संभावना नहीं है.

विकल्प तो शिवराज सिंह का मध्य प्रदेश में बीजेपी के पास भी न था, लेकिन वसुंधरा राजे ने तो येदियुरप्पा की तरह ही दिल्ली को एक बार फिर से बता दिया है कि वो येदियुरप्पा से किसी भी मामले में कम नहीं पड़ेंगी और उम्र भी उनके मुकाबले काफी कम है. येदियुरप्पा 78 साल के हैं तो वसुंधरा राजे अभी 67 साल की ही हैं. अब तक तो यही देखने को मिला है कि मोदी-शाह दोनों के ही मामलों में कोई मनमानी नहीं कर पाये हैं. बाकी राज्यों में न सही लेकिन कर्नाटक और राजस्थान में तो क्षेत्रीय नेता बीजेपी आलाकमान पर भारी ही पड़े लगते हैं.

यूपी में हाल फिलहाल योगी आदित्यानाथ की लोकप्रियता का ग्राफ जरूर ऊपर जाने लगा है, वरना, बाकी राज्यों में बीजेपी मुख्यमंत्रियों की हैसियत करीब करीब बराबर ही है. कोई संघ की पृष्ठभूमि तो कोई नेतृत्व की पंसद की बदौलत भले ही कुर्सी पर बैठा हुआ हो, लेकिन वसुंधरा और येदियुरप्पा की तरह आंख दिखाने की स्थिति में कोई भी नहीं है - चाहे वो हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर हों, उत्तराखंड में त्रिवेंद्र सिंह रावत हों, हिमाचल प्रदेश में जयराम ठाकुर हों, त्रिपुरा में बिप्लब देब हों, मणिपुर में बीरेन सिंह, गुजरात में विजय रुपानी, असम में सर्बानंद सोनवाल या फिर गोवा में प्रमोद सावंत हों - हाल तो वैसा ही है जैसे राणा की पुतली फिरी नहीं कि चेतक को मुड़ जाना ही होता है.

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