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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 09 जनवरी, 2022 05:26 PM
अनुज शुक्ला
अनुज शुक्ला
  @anuj4media
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आगामी यूपी विधानसभा चुनाव के जातीय-धार्मिक समीकरण में इस बार ब्राह्मण और मुसलमान मतदाताओं को किंग मेकर माना जा रहा है. कभी भी इन दो समुदायों के सामने राजनीतिक चयन को लेकर किंतु परंतु जैसी स्थितियां नहीं थीं. मायावती के 'ब्राह्मण भाईचारा मुहिम' को छोड़ दिया जाए तो तीन दशक से ब्राह्मण लगभग भाजपाई बना रहा है और मुसलमान भाजपा विरोधी. यानी जो भाजपा के खिलाफ मजबूत दिखा- मुसलमान उसके पीछे खड़ा हो गया. हालांकि अब जब इनके निर्णायक होने का दावा किया जा रहा है- कम से कम दोनों वर्गों से एक भी ऐसा नेता नजर नहीं आ रहा जो यूपी में व्यापक अपील रखता हो. भाजपा, सपा, बसपा और कांग्रेस- किसी भी पार्टी में नहीं.

संख्याबल और मजबूत राजनीतिक विरासत होने के बावजूद दोनों समुदायों के सामने नेतृत्व का संकट साफ़ दिख रहा है. कुछ सालों पहले तक ब्राह्मणों और मुसलमानों में व्यापक नेतृत्व का संकट कभी नहीं दिखा. मंदिर आंदोलन से पहले ब्राह्मण कांग्रेस के साथ था. यूपी कांग्रेस में कमलापति त्रिपाठी से नारायण दत्त तिवारी और जितेन्द्र प्रसाद तक ताकतवर ब्राह्मण नेताओं की लंबी शृंखला नजर आती है. हिंदुत्व के नारे से ललचाकर ब्राह्मणों ने कांग्रेस का साथ छोड़ा था. भाजपा में भी ब्राह्मणों का नेतृत्व करने वाले नेताओं की कमी नहीं रही.

अटल बिहारी वाजपेयी, मुरली मनोहर जोशी से लेकर ब्रह्मदत्त द्विवेदी और कलराज मिश्र तक- हमेशा ख़ासा असर रखने वाले दिग्गज दिखते हैं. यह सिर्फ चेहरा भर नहीं थे बल्कि ब्राह्मणों की राजनीतिक सियासत को प्रभावित करते थे.

narendra-modi-up-650_010922041204.jpgकाशी में नरेंद्र मोदी.

यूपी सरकार में ब्राह्मण प्रतिनिधित्व देने के बहाने दिनेश शर्मा की डिप्टी सीएम के रूप में ताजपोशी की गई. टिकट पर कई ब्राह्मण विधायक भी चुनकर आए और कई को मंत्री भी बनाया गया. यहां तक कि दूसरी पार्टियों के ब्राह्मण नेताओं को भी शामिल किया जा रहा है. कांग्रेस से जतिन प्रसाद को लाया गया. लोकसभा में भी अच्छा ख़ासा प्रतिनिधित्व है और मोदी कैबिनेट में भी महेन्द्रनाथ पांडे जैसे कई ब्राह्मण चेहरे हैं. लेकिन सवाल बना हुआ है कि क्या भाजपा में ब्राह्मणों का कोई ऐसा नेता है जिसकी अपील व्यापक रूप से दिखती हो या असरदार मानी जाए? यूपी से लेकर बीजेपी की केंद्रीय इकाई तक ऐसा कोई चेहरा नहीं मिलता. महाराष्ट्र में नितिन गडकरी और देवेंद्र फडणवीस के रूप में दो ताकतवर नेता मौजूद हैं पर भाजपा ने उन्हें ब्राह्मण चेहरे का रूप देने की बजाय महाराष्ट्र में राजनीतिक जरूरतों की वजह से एक 'न्यूट्रल' चेहरा बनाए रखा है.

साल 2020 में बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान देवेंद्र फडणवीस को ऐन चुनाव से पहले बिहार की जिम्मेदारी दी गई. हालांकि उन्हें ब्राह्मण चेहरे की बजाय एक ऐसे नेता के रूप में लाया गया था जो पार्टी के बिहार अभियान को 'महाराष्ट्र बनाम बिहार' का रूप दे सकें. उनका इस्तेमाल ऐसे ही हुआ भी. यह इत्तेफाक नहीं है कि भाजपा के साथ ब्राह्मणों का एक तगड़ा वोटबैंक भले जुड़ा रहा बावजूद केंद्र से लेकर यूपी तक पार्टी ने ब्राह्मण चेहरों को बड़ा बनाने से परहेज किया है. मोदी-योगी के कार्यकाल में कम से कम ब्राह्मण नेतृत्व के बहाने उन्हें लुभाने की योजनाएं तो नहीं ही दिखती?

पार्टी के अग्रिम मोर्चों पर भी ब्राह्मण चेहरे यूपी अभियान से गायब हैं. डिप्टी सीएम केशव मौर्य समेत भाजपा के कुछ नेताओं के ट्विटर हैंडल पर जो पोस्टर साझा किए जा रहे हैं उसमें यूपी से योगी आदित्यनाथ, स्वतंत्र देव सिंह और केशव मौर्य के चेहरे को ही तरजीह मिल रही है. स्वतंत्र प्रदेश अध्यक्ष हैं. केशव मौर्य डिप्टी सीएम हैं और पिछड़ी जाति से आते हैं. दिनेश शर्मा भी डिप्टी सीएम हैं पर पोस्टर्स से गायब हैं.

keshaw-maurya_650_010922040952.jpgकेशव मौर्या का ट्वीट.

धर्मेंद्र प्रधान को चुनाव की बड़ी जिम्मेदारी दी गई है. वे भी पिछड़ी जाति से ही हैं. पार्टी के अन्य बड़े पिछड़े नेताओं को भी चुनाव में बड़ी सांगठनिक जिम्मेदारी दी गई है. दलित चेहरों का भी इस्तेमाल हो रहा. आईपीएस असीम अरुण को भी दलित चेहरा के तौर पर ही स्थापित करने की कोशिशें दिखती हैं. जिस वक्त सपा और बसपा ब्राह्मणों को लुभा रही हैं- भाजपा ब्राह्मणों से परहेज करती नजर आ रही है. क्या दिनेश शर्मा को सिर्फ शो पीस बनाकर रखा गया?

काफी हद तक ऐसा लगता है. भाजपा में कई दूसरे ब्राह्मण नेता थे जिन्हें सात साल में एक बड़े चेहरे की शक्ल दी जा सकती थी. लेकिन ब्राह्मण चेहरे के रूप में एक ऐसे नेतृत्व को प्रतिनिधित्व दिया गया जिसके जनाधार पर सवाल बना रहेगा. उनकी सक्रियता संदिग्ध दिखी. साफ़ है कि वे शोपीस भर थे. या उन्होंने पांच साल मिला मौका गंवा दिया. अब पूर्वांचल और अवध के इलाकों में यही चीज भाजपा के गले की फांस बनता जा रहा है. अयोध्या से गोरखपुर तक एक ऐसी पट्टी बन रही है जिसमें दूसरी पार्टियों के ब्राह्मण उम्मीदवार भाजपा को तगड़ा नुकसान पहुंचाते दिख रहे हैं. भाजपा के पास हिंदुत्व और स्थानीय रणनीतियों के अलावा कोई ऐसा चेहरा नहीं है जो ब्राह्मण मतदाताओं को दूसरी पार्टियों में जाने से पूरी तरह से रोक सके.

बसपा-सपा और कांग्रेस के हालात भी लगभग ऐसे ही हैं. बसपा में सतीश चंद्र मिश्रा हैं. कांग्रेस में प्रमोद तिवारी हैं. ब्राह्मणों में इन नेताओं का जनाधार क्या है- शायद ही बताने की जरूरत पड़े. समाजवादी पार्टी में जनेश्वर मिश्र के बाद बड़ा चेहरा नहीं दिखा. माता प्रसाद पांडे, शिवाकांत ओझा के साथ सपा ने हरिशंकर तिवारी जैसे नए चेहरों को जोड़ा है. हो सकता है कि ये नेता अपने-अपने निर्वाचन क्षत्रों में असर डाले. लेकिन एक जातीय नेता की हैसियत से दूसरे निर्वाचन क्षेत्रों शून्य ही माने जाएंगे. अब तक तो इसका असर यही दिखा है. सपा को तो जरूरत भी समझ में नहीं आई होगी कि कही उसे ब्राह्मणों के दरवाजे इस तरह खड़ा होना पड़ेगा.

up-polls-2022-650_010922041042.jpgअखिलेश ब्राह्मणों को लुभाने की कोशिश में हैं.

लगभग यही स्थिति मुसलमान नेतृत्व को लेकर भी है. एक वक्त में नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने बसपा में मुस्लिम चेहरा की हसियत हासिल कर ली थी लेकिन उनके जाने के बाद दूसरा कोई नजर नहीं आता. अगर कोई दिखे तो मैं भी जानकारी पाना चाहूंगा. सपा में भी आजम खान के बाद कोई नेता नहीं दिखता. सपा में मुस्लिम नेतृत्व का संकट कुछ इस तरह है कि आजम खान की अनुपस्थिति में भरपाई के लिए अबू आसिम आजमी को महाराष्ट्र से लाया गया है. हालांकि अबू मूलत: यूपी के हैं पर उनकी राजनीतिक जमीन महाराष्ट्र और मुंबई में है. मुसलमान चेहरों के मामले में यूपी कांग्रेस दूसरी पार्टियों से संपन्न तो दिखती है पर बीजेपी से सीधी टक्कर ना ले पाने की स्थिति में मुस्लिम मतों को प्रभावित करने के लिहाज से उसके होने ना होने का कोई मतलब नहीं है.

अब ब्राह्मण और मुसलमान मतदाताओं को लेकर नेतृत्व का संकट क्यों है- इसका क्लू आर्टिकल की पहली लाइन में ही दे दिया गया था. 2017 में यूपी चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव तक ब्राह्मण और मुसलमान मतदाताओं का राजनीतिक चयन पहले से निर्धारित ही था. पिछले चार दशक की जातीय सियासत देखें तो सवर्णों में सबसे ज्यादा आवागमन ठाकुरों ने ही किया है. वे कभी कांग्रेस में खड़े रहे तो कभी वीपी सिंह के पीछे जनता दल में गए. बीजेपी में आए और सपा में भी भरोसेमंद रहे. ठाकुरों का एक पैर हमेशा भाजपा से बाहर ही रहा है. यहां तक कि ठाकुरों की तरह सपा ने बहुत वक्त तक वैश्य विरादरी का एक बड़ा तबका अपने साथ जोड़े रखा. ब्राह्मण भाजपा का भरोसेमंद बना रहा- इस वजह से ठाकुरों और वैश्यों को पार्टी से बनाए रखने की कोशिशों पर ज्यादा ध्यान दिया गया. अच्छे वक्ता राजनाथ सिंह को प्रदेश अध्यक्ष और मुख्यमंत्री बनाकर दमदार ठाकुर नेता बनाया गया. राम प्रकाश गुप्त को भी कुछ समय तक मुख्यमंत्री बनाकर वैश्यों को ललचाने की कोशिश की गई.

हालांकि पहले अटल बिहारी वाजपेयी जैसे कद्दावर चेहरे की मौजूदगी में भाजपा को कभी जरूरत नहीं पड़ी. दूसरा प्रदेश अध्यक्ष और दूसरी भूमिकाओं में कलराज मिश्र के बने होने से चीजें संभली रहीं. पार्टी को वोटबैंक पर भरोसा था. यह तब तक बना रहा जब तक मायावती ने ब्राह्मण कार्ड नहीं खेला. मायावती ने स्थानीय स्तर पर ब्राह्मणों को जमकर टिकट दिया और एक नया समीकरण बनाने में कामयाब हुईं. बावजूद जहां बसपा के ब्राह्मण उम्मीदवार नहीं थे, मतदाता भाजपा के साथ ही जुड़े रहे. मोदी के उभार के बाद हिंदुत्ववाद की जो नई बयार बही उसने भी ब्राह्मणों को भाजपा से ही जोड़े रखा. ये बड़ा सच है कि मोदी की ताजपोशी के बाद भाजपा ने ब्राह्मणों को खूब टिकट दिए हैं, मंत्री बनाया है- लेकिन जानबूझकर किसी ब्राह्मण नेता को प्रमोट नहीं किया है. यही भाजपा का नया जातीय फ़ॉर्मूला है.

yogi-aditynath-650_010922041117.jpgयोगी आदित्यनाथ.

चूंकि योगी की आक्रामक छवि भाजपा के काम आ रही थी इस वजह से एक साथ दो बड़े सवर्ण नेताओं को प्रमोट कर पार्टी किसी तरह के लेबल से बचना चाहती थी. वैसे भी योगी काफी हद तक पूर्वांचल के कुछ जिलों को छोड़कर ब्राह्मण मतदाताओं पर असर रखते हैं. हां, टिकट और प्रतिनिधित्व जरूरत से ज्यादा दिया लेकिन एक फर्क भी बनाए रखा. पार्टी ने गैरयादव पिछड़े चेहरों को आगे किया. सात साल से भाजपा के लिए यह समीकरण काम कर रहा है. बनियों और ब्राह्मणों की पार्टी कही जाने वाली भाजपा अब लेबल से करीब करीब मुक्त हो चुकी है. नए समीकरण केंद्रीय स्तर पर लाभदायक भले हैं पर यूपी में स्थानीय जरूरतों को नुकसान पहुंचा रहे हैं. सपा ब्राह्मणों को लुभा रही है. बसपा भी. आतंरिक संकेत है कि दोनों पार्टियां ब्राह्मणों को बड़े पैमाने पर टिकट देने जा रही हैं. उन सीटों पर जहां ब्राह्मणों के झुकने से नतीजों को बदला जा सकता है.

सपा भी भाजपा की तरह मुस्लिम लेबल से बच रही है. अब उसकी कोशिश आजम जैसा चेहरा बनाने की नहीं है. पार्टी को भरोसा है कि भाजपा को हराने के लिए मुसलमान उसके पास आएगा ही. पार्टी वही रणनीति अपना रही जो भाजपा ने ब्राह्मणों के लिए अपनाया था. सपा मुस्लिम लीडरशिप नहीं तैयार करेगी. लेकिन दो चीजें चुनाव बाद होने जा रही हैं. एक सपा से अलग मुस्लिम लीडरशिप तैयार होगी और भविष्य में भाजपा किसी तेजतर्रार और स्वीकार्य ब्राह्मण नेतृत्व को आगे बढ़ाए. सीएम योगी के खासम खास और युवा विधायक शलभमणि त्रिपाठी खुश हो सकते हैं.

लेखक

अनुज शुक्ला अनुज शुक्ला @anuj4media

ना कनिष्ठ ना वरिष्ठ. अवस्थाएं ज्ञान का भ्रम हैं और पत्रकार ज्ञानी नहीं होता. केवल पत्रकार हूं और कहानियां लिखता हूं. ट्विटर हैंडल ये रहा- @AnujKIdunia

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