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मायावती को ज्यादा फिक्र अपनी राजनीतिक विरासत की है या सत्ता में वापसी की?
मायावती (Mayawati) के रुख से पहले लगता था चंद्रशेखर आजाद (Chandra Shekhar Azad) को वो अपने लिए खतरा मानती हैं, लेकिन जिस तरीके से आकाश आनंद (Akash Anand) को प्रोजेक्ट किया है - लग रहा है सरकार बनाने से बड़ी चिंता बीएसपी का भविष्य है.
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मायावती (Mayawati) को पूरी उम्मीद है कि बर्थडे गिफ्ट के रूप में दलित और ब्राह्मण वोटर 10 मार्च को सत्ता सौंप देगा. अपने 66वें बर्थडे पर प्रेस कांफ्रेंस कर मायावती ने दावा किया कि यूपी के लोग बीएसपी को उसके पिछले शासन के कामकाज के आधार पर वोट देंगे.
बीएसपी नेता ने बताया कि उनका बर्थेडे लोग जनकल्याणकारी दिवस के तौर पर सादगी और संजीदगी से मना रहे हैं. साथ ही मायावती ने उत्तराखंड और पंजाब के लोगों से भी बीएसपी को वोट देने की अपील की है. पंजाब में बीएसपी ने अकाली दल के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन किया है.
जन्मदिन के मौके पर ही मायावती ने यूपी चुनाव के लिए बीएसपी के 53 उम्मीदवारों की पहली सूची जारी की. पहले चरण में 58 सीटों पर चुनाव होने हैं - बीएसपी के पांच उम्मीदवारों के नाम बाद में बताये जाएंगे.
मायावती के जन्मदिन पर उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति के कई रूप देखने को मिले - एक तो वो जो भीम आर्मी वाले चंद्रशेखर आजाद (Chandra Shekhar Azad) ने दिखाने की कोशिश की, दूसरी वो जो मायावती की तरफ से दिखाने की कोशिश हुई - और तीसरा वो रूप है जो तस्वीर मौजूदा दौर में उभर कर सामने आ रही है.
मायावती और अखिलेश यादव से पहले प्रेस कांफ्रेंस बुला कर भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर आजाद ने यूपी की राजनीति में अपनी मौजूदगी दर्ज कराने की कोशिश की - और ये जताने की भी कि दलितों के हितों के बारे में अगर कोई सोच रहा है तो कांशीराम के बाद सिर्फ वही हैं - चंद्रशेखर आजाद के निशाने पर तो समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव रहे, लेकिन मायावती ने उनकी प्रेस कांफ्रेंस में अपने लिए मैसज समझने की कोशिश की - और लगे हाथ ये भी बता दिया कि उनके बाद दलितों के नेता उनके भतीजे आकाश आनंद (Akash Anand) ही होंगे, इसलिए किसी और को सपने देखने की जरूरत नहीं है.
अभी से विरासत की फिक्र क्यों सताने लगी
कांशीराम की विरासत पर दावेदारी: अपनी प्रेस कांफ्रेंस में भीम आर्मी नेता चंद्रशेखर आजाद बार बार बीएसपी के संस्थापक कांशीराम का नाम ले रहे थे - और ये दावा भी कि वो तो कांशीराम को ही अपना आदर्श मानते हैं और उनकी वाली ही राजनीति करते हैं.
ऐसा करके चंद्रशेखर आजाद अपनी समझ से मायावती की दलित राजनीति को खारिज करने की कोशिश कर रहे हैं. वैसे भी कांशीराम के जमाने के बीएसपी कार्यकर्ता मायावती पर उनकी पॉलिटिकल लाइन से हट जाने के आरोप लगाते रहे हैं.
जब मायावती दलित राजनीति में ही दबदबे के लिए संघर्ष कर रही हों, उनकी सत्ता में वापसी को लेकर वोटर कैसे यकीन करे?
भला मायावती को कांशीराम की विरासत पर किसी और की दावेदारी कैसे मंजूर हो. आधिकारिक तौर पर तो मायावती ही कांशीराम की राजनीतिक उत्तराधिकारी हैं. यही वजह है कि मायावती शुरुआती दौर को छोड़ कर चंद्रशेखर आजाद को न सिर्फ खारिज करती रही हैं, बल्कि दलितों को ऐसे लोगों से गुमराह न होने की भी सलाह देती रही हैं.
जब सहारनपुर हिंसा के बाद पहली बार चंद्रशेखर आजाद का नाम आया तभी मायावती ने बीएसपी ज्वाइन कर लेने का ऑफर दिया था. तब मायावती ने नाम तो नहीं लिया, लेकिन 'कुछ उत्साही युवा' बोल कर चंद्रशेखर आजाद को ही मैसेज देने की कोशिश की थी. चंद्रशेखर आजाद को वो काफी छोटा ऑफर लगा था, लेकिन जब जेल से छूटे तो मायावती को बुआ कह कर मनाने की कोशिश की. मायावती से साफ बोल दिया कि वो किसी की बुआ नहीं हैं.
मायावती की फिक्र लालू जैसी है क्या: अब तक तो ऐसा ही लगता था जैसे चंद्रशेखर आजाद को मायावती अपनी राजनीति के लिए अलग से खतरा मानती हैं. अब ऐसा नहीं लगता. अब तो लगता है वो चंद्रशेखर को बीएसपी के भविष्य के लिए खतरा मानती हैं.
मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद को बीएसपी के भविष्य के रूप में पेश किया है. कुछ कुछ वैसे ही जैसे नीतीश कुमार ने प्रशांत किशोर को जेडीयू का उपाध्यक्ष बनाते हुए कहा था - पार्टी के भविष्य. और बचाव वैसे ही किया है जैसे ममता बनर्जी अपने भतीजे अभिषेक बनर्जी का करती रही हैं.
लेकिन मायावती का अंदाज थोड़ा अलग लगा. और ये भी लगा जैसे आकाश आनंद का खास तौर पर जिक्र वो चंद्रशेखर आजाद की महत्वाकांक्षा को देखते हुए कर रही हैं. मायावती ने वैसे तो अपनी भतीजे आकाश आनंद के साथ साथ बीएसपी महासचिव सतीश चंद्र मिश्र के बेटे कपिल मिश्र की भी तारीफ की, लेकिन विरासत का हक तो आकाश आनंद को ही मिलेगा.
मायावती ने कहा, 'लोग आकाश आनंद के भी चुनाव लड़ने की बात भी मीडिया में उछालते रहते हैं... वो मेरे निर्देशन में पार्टी के काम में लगा है... अगर मीडिया और विरोधी पार्टी आकाश आनंद के पीछे पड़ते रहे तो मैं उसे अपनी पार्टी में और बढ़ावा दूंगी.'
क्या मायावती को भी आकाश आनंद को लेकर वैसी ही चिंता सता रही है जैसी लालू यादव को फिक्र रही. कन्हैया कुमार के कांग्रेस में लिये जाने तक लालू यादव ने विरोध किया क्योंकि उनको डर रहा कि तेजस्वी यादव का क्या होगा?
क्या मायावती भी चंद्रशेखर आजाद को आकाश आनंद की राजनीतिक राह में रोड़ा मानने लगी हैं?
मायावती के नये कांशीराम: मायावती का कहना है, 'आकाश आनंद की तरह पार्टी से जुड़े मेरे बहुत भतीजे-भतीजियां हैं जिन्हें समय आने पर आगे बढाया जाएगा... लेकिन जातिवादी मीडिया आकाश आनंद को लेकर व्यंग्य करता है... आकाश आनंद के पीछे ज्यादा पड़े तो मान्यवर कांशीराम की तरह उसे और आगे बढाऊंगी.'
बड़ा सवाल मायावती की उस बात पर है जिसमें ऐसा लगता है जैसे वो आकाश आनंद को कांशीराम जैसा बनाने की बात कर रही हैं. मायावती लगता है भूल गयीं हैं कि कांशीराम को बनाया नहीं जा सकता है - कांशीराम खुद बनते हैं.
ये कांशीराम का दलित आंदोलन है जिसकी बदौलत दलित की बेटी बन कर मायावती राजनीति कर रही हैं - कांशीराम ने जो सांचा गढ़ा था उसमें कोई भी फिट हो सकता था. उस किरदार का नाम मायावती नहीं भी हो सकता था.
कहीं मायावती को ऐसा तो नहीं लगने लगा है कि वो कांशीराम से आगे निकल चुकी हैं - और फिर ये अहंकार हो गया है कि वो किसी भी कांशीराम बना सकती हैं?
वर्चस्व की लड़ाई में उलझी यूपी की दलित राजनीति
भीम आर्मी नेता चंद्रशेखर आजाद ने अपनी प्रेस कांफ्रेंस की शुरुआत में ही मायावती को बधाई भी दी और अपनी सदाबहार शिकायत भी दोहरायी. बोले, सबसे पहले तो वो मायावती से ही अपेक्षा रखे हुए थे, लेकिन बहनजी ने मुंह मोड़ लिया.
24 घंटे पहले ही चंद्रशेखर आजाद ने ट्विटर पर लिख कर बताया था कि उनको और दलित समाज को अखिलेश यादव से क्या अपेक्षा है - 'गठबंधन के अगुवा का दायित्व होता है कि वो सभी समाज के लोगों के प्रतिनिधित्व और सम्मान का खयाल रखे.'
भीम आर्मी का सपा से मोहभंग: मीडिया के सामने आकर चंद्रशेखर आजाद ने अखिलेश यादव पर अपना अपमान करने का आरोप लगाया. मायावती की ही तरह चंद्रशेखर आजाद ने अपने साथ साथ दलितों का अपमान भी करार दिया - और फिर ऐलान किया कि समाजवादी पार्टी के साथ उनका कोई चुनावी गठबंधन नहीं होने जा रहा है.
चंद्रशेखर आजाद ने बताया कि कैसे वो छह महीने से चुनावों की तैयारी कर रहे थे और महीने भर से अखिलेश यादव के साथ गठबंधन को लेकर बातचीत कर रहे थे. भीम आर्मी नेता ने अखिलेश यादव पर अपना कीमती वक्त बर्बाद करने का आरोप भी लगाया. बाद में जब अखिलेश यादव ने प्रेस कांफ्रेंस की तो भीम आर्मी नेता को जवाब भी दिया. अखिलेश यादव ने कहा, 'लखनऊ में किसी को रहने की जरूरत नहीं...' असल में चंद्रशेखर आजाद बार बार दोहरा रहे थे कि वो गठबंधन के लिए ही दो दिन से लखनऊ में डेरा डाले हुए थे.
पहले तो लगा चंद्रशेखर आजाद का भी यूपी चुनाव में AIMIM नेता असदुद्दीन ओवैसी की तरह ही कोई और मकसद है. बातें कुछ और हो रही हैं, निशाने पर कुछ और है. चंद्रशेखर आजाद सामाजिक न्याय की राजनीति का दावा करने वाले अखिलेश यादव पर दलितों को अलग रखने का इल्जाम लगा रहे थे.
चंद्रशेखर आजाद के हमले में मायावती का भी हित समझ में आ रहा था और गैर-यादव ओबीसी नेताओं के पार्टी छोड़ने से परेशान बीजेपी का भी. निशाने पर सीधे सीधे अखिलेश यादव रहे, लेकिन तस्वीर साफ होते देर भी नहीं लगी.
बड़ी हिस्सेदारी क्यों मिले: चंद्रशेखर आजाद की बातों से ही लगता है कि अखिलेश यादव आजाद समाज पार्टी के साथ गठबंधन को क्यों नहीं तैयार हुए होंगे. चंद्रशेखर आजाद बार बार एक बात दोहरा रहे थे - 'जिसकी जितनी संख्या, उसकी उतनी हिस्सेदारी.'
साफ है अखिलेश यादव के लिए तो समाजवादी पार्टी के नेताओं के लिए टिकट देना चैलेंज बना हुआ है, भला चंद्रशेखर आजाद को आबादी के हिसाब से टिकटों में हिस्सेदारी क्यों देने लगे. अखिलेश यादव के पास भी चंद्रशेखर आजाद के लिए ज्यादा से ज्यादा दो तरह के ऑफर रहे होंगे - या तो वो स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे नेताओं की तरह समाजवादी पार्टी ज्वाइन कर लें या फिर अपने चुनाव लड़ने के लिए एक सीट लेलें.
थक हार कर चंद्रशेखर आजाद विपक्षी पार्टियों के साथ मिल कर चुनाव लड़ने और ऐसा नहीं हो पाया तो अकेले मैदान में उतरने की बात करने लगे हैं. वो बिहार चुनाव कैसे लड़े ये भी याद दिला रहे हैं. नतीजे तो सबको मालूम हैं ही.
चंद्रशेखर आजाद का बीजेपी विरोध भी मायावती जैसा ही लगता है. वो बीजेपी के खिलाफ एकजुटता की बात तो कर रहे हैं, लेकिन अब तक न तो वो किसी के साथ हैं न कोई और उनके साथ खड़े होने को तैयार है. मायावती की तरह ही अखिलेश यादव भी चंद्रशेखर आजाद से दूरी बना कर चल दिये.
बीच में एक दौर ऐसा भी आया जब लगा कि चंद्रशेखर आजाद कांग्रेस के साथ होंगे. चाहे गठबंधन करके या पार्टी ज्वाइन करके. बात तो तब बने जब आबादी के हिसाब से दावेदारी की जिद को समझने की कोशिश करें. सत्ता की राजनीति के लिए चुनाव लड़ना और जीतना भी जरूरी होता है.
अगर चंद्रशेखर आजाद अपनी तुलना मायावती से कर रहे हैं या फिर स्वामी प्रसाद मौर्य से बढ़ कर समाजवादी गठबंधन में हिस्सेदारी चाहते हैं तो कहीं से भी एक चुनाव जीत कर शुरुआत करनी होगी.
हालात देख कर तो यही लग रहा है कि दलितों की फिक्र न तो चंद्रशेखर आजाद को है, न मायावती को रह गयी है. अब तो ऐसा लगता है जैसे मायावती को यूपी की सत्ता में वापसी से भी कहीं ज्यादा अपनी विरासत और बीएसपी के भविष्य आकाश आनंद की फिक्र होने लगी है!
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