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क्या खुद उद्धव ने ही लिखी एकनाथ शिंदे के बगावत की स्क्रिप्ट, फिलहाल तो फिल्म ऐसी ही है?
शिवसेना में बगावत के पीछे तमाम वजहें सामने आ रही हैं. एक चर्चा यह भी है कि सारी उथल पुथल के पीछे खुद उद्धव ठाकरे हैं. चर्चा को बल देने वाले कई पॉइंट्स हैं. आइए जानते हैं.
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शिवसेना विधायकों की बगावत से मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में महाराष्ट्र विकास आघाड़ी (एमवीए) की सरकार लगभग ध्वस्त होने के मुहाने पर खड़ी है. एमवीए में एनसीपी, कांग्रेस और शिवसेना शामिल हैं. कुछ निर्दलीय विधायक भी इसका हिस्सा हैं. विधायक एनसीपी और शिवसेना- दोनों के पाले से हैं. विधानपरिषद चुनाव के साथ ही राज्य की सियासत में जो उथल-पुथल मची है, वह फिलहाल किसी मंजिल पर ठहरती नहीं दिख रही. तमाम तस्वीरों का अभी भी साफ होना बाकी है. शिवसेना की बगावत के पीछे कौन सी वजह अहम रही, अब तक कई कारण गिनाए जा चुके हैं.
इनमें कुछ नई दिलचस्प वजहें भी सामने आ रही हैं. कहा जा रहा कि ठाकरे कैबिनेट में नगर विकास मंत्री एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में जो कुछ हो रहा है, उसके पीछे की स्क्रिप्ट किसी और ने नहीं बल्कि खुद मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने ही लिखी है. पूरी योजना को उनकी मौन सहमति हासिल है. ऐसा नहीं होता तो करीब करीब 50 विधायक शिंदे के साथ कभी नहीं जाते. इनमें से शिंदे समेत तमाम विधायक हमेशा से शिवसेना के लिए अपनी निष्ठा को लेकर याद किए जाते हैं.
राज्य के सबसे बड़े मराठी दैनिक ने अपनी एक रिपोर्ट में लिखा- "यह सच है कि शिवसेना के कुछ विधायक शुरू से ही कांग्रेस और एनसीपी के साथ गठबंधन का विरोध कर रहे थे. वहीं कई विधायक ऐसे भी थे जिन्हें लगा कि भाजपा ने (पिछली सरकार में) उन्हें पांच साल परेशान किया, उनका शोषण किया. पिछले ढाई साल में जब भाजपा नेताओं ने ठाकरे पर तीखे आरोप लगाए तो शिवसेना के कई विधायकों ने भाजपा नेताओं पर उतना ही कड़वा पलटवार किया. भाजपा की तीखी आलोचना करने वाले कई विधायक फिलहाल शिंदे के साथ हैं."
एकनाथ शिंदे और उद्धव ठाकरे. विधायक राज्य से बाहर चले गए और सरकार को पता भी ना चला, यह असंभव
शिवसेना के बागी विधायकों की संख्या स्पष्ट नहीं है. अलग-अलग रिपोर्ट्स में अलग-अलग आंकड़े सामने आ रहे हैं. हालांकि यह साफ दिख रहा है कि शिंदे के पास सेना के कम से कम 35 से 42 विधायक हैं. संख्या लगातार बढ़ती भी दिख रही है. सोशल मीडिया चर्चाओं को असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी के सांसद इम्तियाज जलील का बयान भी शिंदे के पीछे ठाकरे की स्क्रिप्ट होने की बात को कुछ-कुछ पुष्ट कर रहा है. इम्तियाज ने आरोप लगाया कि बड़े पैमाने पर सेना विधायकों को जबरदस्ती राज्य के बाहर ले जाना संभव ही नहीं है.
उन्होंने कहा- "इतने सारे विधायकों को महाराष्ट्र से गुजरात कैसे ले जाया जा सकता है? और सरकार को कोई भनक ही नहीं लगी. सभी विधायकों को पुलिस संरक्षण मिला हुआ है. नियम है कि जिला छोड़ते वक्त पुलिस को अपने कार्यालय में सूचना भी देनी होती है." अब सवाल है कि क्या वाकई उद्धव ठाकरे या महाराष्ट्र सरकार को विधायकों के बाहर जाने की सूचना पहले से नहीं थी. अगर सूचना नहीं थी तो इसे सरकार की नाकामी माना जाएगा. हालांकि ऐसा संभव नहीं है.
एनसीपी के दबाव से खुद उद्धव ठाकरे परेशान
चर्चाओं में कहा जा रहा कि शिवसेना के बागी विधायक सालों से पार्टी के प्रति वफादार रहे हैं. वे जिन निर्वाचन क्षेत्रों से जीत कर आए हैं वहां शिवसेना या फिर हिंदुत्व को छोड़ना उनके लिए राजनीतिक आत्महत्या करने जैसा है. भला अनिश्चित भविष्य के लिए कोई विधायक जोखिम क्यों उठाएगा? दावा किया जा रहा कि असल में राज्य में सरकार पर एनसीपी के बढ़ते दबदबे की वजह से खुद मुख्यमंत्री उद्धव भी परेशान हैं. हाल के दिनों में हिंदुत्व के मुद्दों पर एनसीपी/कांग्रेस के गठबंधन में उन्हें कई ऐसे फैसले लेने पड़े जो उनकी पार्टी की मूल विचारधारा से मेल नहीं खाटी है. राज ठाकरे ने मिली-जुली और बेमेल गठबंधन से उपजी खामियों की वजह से ही बहुत आक्रामकता और तेजी के साथ शिवसेना की विरासत पर पलटवार किया.
शरद पवार, गठबंधन की मजबूरियों में शिवसेना के चुनावी गढ़ों को भी दरकाने की कोशिश में लगे हुए हैं. बहुत पहले से. मराठा मतों को लेकर लंबे वक्त से एनसीपी और शिवसेना के बीच खींचतान है. गठबंधन में सहयोगी होने के बावजूद शरद पवार ने पिछले कुछ महीनों में सेना के कई कार्यकर्ताओं को तोड़कर अपने पाले में मिला लिया. इसके अलावा चाहे पालघर में साधुओं की लिंचिंग का मुद्दा हो, मस्जिदों से लाउडस्पीकर हटाना या फिर औरंगजेब की कब्र पर ओवैसी के फूल चढ़ाने के बाद विवाद का मुद्दा- गठबंधन की मजबूरी में सेना मुख्यमंत्री पद के बावजूद अपने कोर एजेंडा से लगातार पीछे हटती दिखी. उसपर कहीं ना कहीं गठबंधन सहयोगियों का दबाव भी दिखा. कई घटनाओं ने पार्टी के कोर वोटबैंक को भी नकारात्मक संदेश दिया. एनसीपी-कांग्रेस के साथ गठबंधन में सेना को फिलहाल तिहरे दबाव का सामना करना पड़ रहा है.
चौतरफा घिरी सेना के सामने अपनी राजनीति बचाने की चुनौती
आने वाले महीनों में मुंबई महानगर पालिका के चुनाव भी हैं. राजनीतिक विश्लेषक मानकर चल रहे कि मौजूदा सियासी माहौल में मुंबई महानगर पालिका में सेना का वर्चस्व बच पाना मुश्किल है. सेना की राजनीति को नजदीक से देखने वालों को पता है कि मुंबई महानगर पालिका उद्धव की अपनी राजनीति के लिए कितना अहम है. अब सवाल है कि अगर शिंदे के पीछे उद्धव की ही स्क्रिप्ट है तो वे खुद भी बेमेल गठबंधन से बाहर आकर बीजेपी के साथ जा सकते थे? उसमें विधायकों की बगावत का स्वांग रचने का क्या मतलब था? इससे तो पार्टी कार्यकर्ताओं में गलत संदेश ही जा रहा है.
इस एंगल पर भी तर्क सामने आ रहे. सरकार बनाने के बाद सेना को महसूस होने लगा कि आघाड़ी सरकार से सिर्फ और सिर्फ शिवसेना की राजनीति पर असर पड़ रहा है. सरकार में अहम घटक होने के बावजूद हर तरफ एनसीपी का दबदबा साफ़ नजर आ रहा है. ठाकरे और उनके करीबियों के हाल फिलहाल के बयानों को देखें तो उन्होंने हमेशा बीजेपी के साथ जाने के लिए एक खिड़की खोले रखी है. संघ की आलोचना से भी परहेज किया है. उद्धव एमवीए की सरकार छोड़कर भाजपा के साथ जा सकते थे. लेकिन ऐसा फैसला लेने से एक आशंका यह थी कि उनके नेतृत्व को निशाना बनाया जाता. खासकर मुंबई महानगर पालिका में एनसीपी ने जिस तरह से सेना के सामने परंपरागत प्रतिद्वंद्वी के रूप में चुनौती पेश की थी अब तक, एमवीए गठबंधन में रहकर चुनाव लड़ना पार्टी को नुकसान पहुंचता और विपक्ष के चौतरफा बंटवारे में निश्चित ही सीधा फायदा बीजेपी को मिलता. राज ठाकरे तो उसके साथ दिख ही रहे थे.
हो सकता है कि डैमेज कंट्रोल की वजह से उद्धव ने शिंदे एपिसोड के जरिए फ्रेश स्क्रिप्ट लिखी हो. इससे पार्टी हिंदुत्व की कोर लाइन पर लौटते भी दिख रही है. विधायकों को पुचकारने के लिए उद्धव का मुख्यमंत्री समेत पार्टी के बड़े पद को छोड़ने का भावुक बयान योजना का हिस्सा बताया जा रहा है. बागी विधायकों के कुछ बयानों पर भी गौर करें तो उन्हें उद्धव की बजाए सरकार में एनसीपी और कांग्रेस के दबाव और हिंदुत्व के मुद्दे पर पार्टी के पीछे हटने से ज्यादा तकलीफ है. एनसीपी-कांग्रेस के गठबंधन तोड़ने भर से सभी विधायक पार्टी में वापसी की घोषणा पहले दिन से करते आ रहे हैं.
बहरहाल, चर्चाओं में कितनी सच्चाई है- वक्त के साथ एक दो दिन में साफ़ हो जाएगा. लेकिन जब तक संकट बना रहेगा, अलग-अलग कयास सामने आते रहेंगे.