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Updated: 07 जून, 2021 06:58 PM
देवेश त्रिपाठी
देवेश त्रिपाठी
  @devesh.r.tripathi
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पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव के नतीजे (Assembly Election Result) आने के एक महीने के भीतर ही कई भाजपा नेताओं (दलबदलुओं) का 'दिल' एकबार फिर से ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) के लिए धड़कने लगा था. कयास लगाए जा रहे हैं कि जिस तरह विधानसभा चुनाव से पहले तृणमूल कांग्रेस में भगदड़ मची थी, अब वैसी हा भगदड़ का शिकार भाजपा को होना पड़ सकता है. दरअसल, विधानसभा चुनाव से पहले तृणमूल कांग्रेस को छोड़कर भाजपा में शामिल हुए कई नेताओं का 'ममता प्रेम' खुलकर सामने आ चुका है. सोनाली गुहा, सरला मुर्मू, अमोल आचार्य, दीपेंदू बिश्वास जैसे नेताओं के बाद अब पूर्व विधायक प्रबीर घोषाल का नाम भी इस लिस्ट में जुड़ गया है.

चुनाव नतीजों से पहले भाजपा का दामन थामने के बाद तृणमूल कांग्रेस को कोसने वाले इन नेताओं में अचानक से 'ममता प्रेम' जाग गया है. अगर भविष्य में इस लिस्ट में और नाम भी बढ़ जाएं, तो यह शायद ही चौंकाने वाला होगा. पश्चिम बंगाल में भाजपा की बड़ी एसेट कहे जाने वाले मुकुल रॉय के बेटे शुभ्रांशु रॉय ने तो अपनी पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है. ऐसा लग रहा है कि मुकुल रॉय भले भाजपा का दामन थामे रहें, लेकिन शुभ्रांशु का मन डोलने लगा है. इस स्थिति में सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर वो क्या वजह है कि पूर्व तृणमूल कांग्रेस के नेताओं का हृदय परिवर्तन हो रहा है?

पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद शुरू हुई राजनीतिक हिंसा अभी भी बदस्तूर जारी है.पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद शुरू हुई राजनीतिक हिंसा अभी भी बदस्तूर जारी है.

पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा

पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद शुरू हुई राजनीतिक हिंसा अभी भी बदस्तूर जारी है. पश्चिम बंगाल का 'रक्तचरित्र' इसके आने वाले समय में भी होते रहने की गवाही देने के लिए एक पर्याप्त कारण कहा जा सकता है. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस ने 213 विधानसभा सीटों पर जीत दर्ज की है. अगर पश्चिम बंगाल में 'राष्ट्रपति शासन' (वैसे यह काफी मुश्किल है, लेकिन राजनीति में कब-क्या हो जाए, कुछ नहीं कहा जा सकता) न लगे, तो आने वाले 5 सालों तक राज्य में ममता बनर्जी का ही सिक्का चलना है. ममता बनर्जी के एकछत्र राज्य में विरोधियों के लिए मुश्किलों की एक लंबी फेहरिस्त है. इनके सामने अपनी राजनीति बचाने के साथ ही जिंदगी बचाने का भी सवाल खड़ा होने लगा है. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि चुनावों के बाद जारी राजनीतिक हिंसा ने इन नेताओं का हृदय परिवर्तन करने में बड़ी भूमिका निभाई है.

'दीदी' की शरण में जाने के लिए सोनाली गुहा ने तो ममता बनर्जी के लिए 'जल बिन मछली' वाली छटपटाहट जाहिर कर दी थी. अन्य नेताओं ने भी 'खेद' जता दिया है. कई दलबदलुओं का अब भाजपा में दम घुटने लगा है. ऐसा लग रहा है कि ममता बनर्जी ही अब उनके लिए वेंटिलेटर सपोर्ट का काम करेंगी. वहीं, भाजपा की ओर से इस पर मामले पर कोई खास प्रतिक्रिया नहीं दी गई है. भाजपा की बंगाल इकाई के अध्यक्ष दिलपी घोष का कहना है कि लोकतंत्र में लोगों का आना-जाना चलता रहता है. भाजपा प्रवक्ता शौमिक भट्टाचार्य भी कहते दिखे हैं कि अगर कोई अपनी पुरानी पार्टी में लौट कर शांति पाता है, तो हमें कोई समस्या नहीं है. लेकिन, यह असल में भाजपा के लिए समस्या की शुरुआत कहा जा सकता है.

राजनीतिक हिंसा ने भाजपा में शामिल हुए तृणमूल कांग्रेस के बागियों में भी कहीं न कहीं दहशत का माहौल बनाया ही है.राजनीतिक हिंसा ने भाजपा में शामिल हुए तृणमूल कांग्रेस के बागियों में भी कहीं न कहीं दहशत का माहौल बनाया ही है.

प्रतिशोध का डर सबसे बड़ी वजह

पश्चिम बंगाल में जारी राजनीतिक हिंसा ने भाजपा में शामिल हुए तृणमूल कांग्रेस के बागियों में भी कहीं न कहीं दहशत का माहौल बनाया ही है. ममता बनर्जी को नंदीग्राम विधानसभा सीट पर चुनावी पटखनी देने वाले शुभेंदु अधिकारी और उनके भाई सौमेंदु अधिकारी के खिलाफ हाल ही में एक केस दर्ज हुआ है. दोनों नेताओं पर नगरपालिका से राहत सामग्री (तिरपाल) चोरी करने का आरोप लगाया गया. कुछ ही समय पहले सिंचाई विभाग में नौकरी दिलाने के नाम पर लोगों को ठगने के आरोप में शुभेंदु अधिकारी के करीबी कहे जाने वाले एक शख्स को भी गिरफ्तार किया गया है. राज्य में भाजपा के विधायक दल का नेता जब प्रतिशोध की भावना से नहीं बच पा रहा है, तो अन्य नेताओं की हैसियत क्या है? पश्चिम बंगाल में इस तरह की कार्रवाई हमेशा से ही होती रही है. ममता बनर्जी के सत्ता में आने के बाद कांग्रेस और लेफ्ट के कई बड़े नेताओं ने तृणमूल कांग्रेस का दामन थामा. इसके लिए ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने तमाम हथकंडे अपनाए थे. विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा में शामिल हुए नेताओं को भी इन हथकंडों का डर सताने लगा है. सीधी सी बात है कि जान रहेगी, तो राजनीति आगे भी की जा सकती है.

राजनीतिक हिंसा का इतिहास

पश्चिम बंगाल में आधिकारिक आंकड़ों की बात करें, तो 1977 से लेकर 2007 तक 28000 राजनीतिक हत्याएं हुई हैं. 2007 के बाद भी यह सिलसिला लगातार चलता आ रहा है. ममता बनर्जी के शासनकाल में भी राजनीतिक हिंसा पर रोक नहीं लगी. विधानसभा चुनाव हो या लोकसभा चुनाव या फिर पंचायत चुनाव, पश्चिम बंगाल में आज तक का इतिहास है कि एक भी चुनाव बिना राजनीतिक हिंसा या हत्याओं के पूरा नहीं हो पाया है. बंगाल की हिंसात्मक राजनीति पर दर्जनों किताबें लिखी जा चुकी हैं. 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान क्रमश: 15 और 12 राजनीतिक हत्याएं हुई थीं. 2018 के पंचायत चुनाव में भी 60 लोगों की राजनीतिक हत्या होने के आरोप लगाए जाते हैं. पश्चिम बंगाल में सत्ता पर काबिज दल का कानून व्यवस्था पर वर्चस्व राजनीतिक हिंसा को कई दशकों से बढ़ावा देता रहा है. राजनीतिक दल के इस कदर हस्तक्षेप से राज्य में कानून का शासन नाम की कोई चीज नहीं रह नहीं पाती है.

ऑपरेशन ग्रास फ्लावर से भाजपा को खत्म करने की इच्छा

2024 के लोकसभा चुनाव में अभी काफी समय है, लेकिन ऐसा लगता है कि ममता बनर्जी इस बार भाजपा को कोई मौका देने के मूड में नजर नहीं आ रही हैं. तृणमूल कांग्रेस का चुनावी निशान ग्रास फ्लावर यानी घास पर खिले फूल, भाजपा के लिए एक नई परेशानी बनने जा रहे है. भाजपा विधायकों पर ऑपरेशन ग्रास फ्लावर का खतरा मंडराने लगा है. 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के बेहतरीन प्रदर्शन का श्रेय मुकुल रॉय को दिया जाता है. अगर इसे आधार माना जाए, तो हालिया विधानसभा चुनाव में टीएमसी के बागी नेताओं की वजह से ही भाजपा को 77 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. ऑपरेशन ग्रास फ्लावर के जरिये ममता बनर्जी भाजपा के विधायकों के साथ ही कार्यकर्ताओं को भी अपनी ओर खींचने का प्रयास करेंगी. भाजपा को कमजोर करने का एक भी मौका शायद ही ममता बनर्जी छोड़ें. पश्चिम बंगाल से कांग्रेस और लेफ्ट की राजनीति का पटाक्षेप हो चुका है. इस स्थिति में ममता ऑपरेशन ग्रास फ्लावर के जरिये जनता को ये संदेश जरूर देना चाहेंगी कि राज्य में तृणमूल कांग्रेस के अलावा लोगों के पास और कोई ठिकाना नहीं है.

चुनाव नतीजों वाले दिन ही शुभेंदु अधिकारी पर हमला हुआ. भाजपा के कई कार्यालयों में तोड़-फोड़ और आगजनी की गई. 2 मई के बाद से अब तक बड़ी संख्या में लोग जान गंवा चुके हैं. हाल ही में एक और भाजपा कार्यकर्ता की बम मारकर हत्या कर दी गई है. ये सब देखकर भाजपा में शामिल हुए टीएमसी नेताओं में डर फैलने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है. इसे देखकर कहना गलत नहीं होगा कि बंगाल में बागियों के हृदय परिवर्तन की वजह 'ममता प्रेम' से ज्यादा 'प्रतिशोध का डर' है.

लेखक

देवेश त्रिपाठी देवेश त्रिपाठी @devesh.r.tripathi

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं. राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

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