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Updated: 03 जुलाई, 2021 11:15 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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तीरथ सिंह रावत (Tirath Singh Rawat) तीन दिनों तक दिल्ली में डेरा डाले रहे. बीजेपी नेतृत्व के तलब किये जाने पर अमित शाह और जेपी नड्डा के दरबार में हाजिरी भी लगायी. 24 घंटे मे दो बार बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा से मिले. दूसरी मुलाकात करीब आधे घंटे चली होगी. अभी मुलाकात चल ही रही थी कि तीरथ सिंह रावत के जाने की खबरें भी आनी शुरू हो गयी थीं.

रात के 10 बजे से पहले वो मीडिया के सामने आये और अपनी छोटी सी सरकार की उपलब्धियां गिनायी - और 11 बजे के बाद राज्यपाल से मिल कर मुख्यमंत्री (Uttarakhand CM) पद से इस्तीफा भी दे दिया. दिल का दर्द जबान पर आ चुका था. गला रुंध गया था. इससे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बनारस में कोविड 19 को लेकर बातचीत के दौरान देखने सुनने को मिला था. ये जरूर रहा कि दोनों के दुख अलग अलग थे. एक की अपनी पीड़ा रही, दूसरे की दूसरों का दुख रहा. हालांकि, प्रधानमंत्री मोदी वाले वाकये को राजनीतिक बयान के तौर पर ही लिया गया.

115 दिन की सरकार होती ही कितनी है, अगर बीएस येदियुरप्पा और देवेंद्र फडणवीस की तरह मुख्यमंत्री पद पर शपथग्रहण न हुआ हो, लेकिन तीरथ सिंह रावत के इस्तीफे ने उद्धव ठाकरे की ही तरफ ममता बनर्जी के सामने आने वाली भविष्य की चुनौतियों की तरफ इशारा कर दिया है.

तीरथ सिंह रावत ने मुख्यमंत्री बनते ही सुर्खियां बटोरना शुरू कर दिया था. अपने बयानों के चलते खूब विवाद भी कराये और बीजेपी की फजीहत भी. तीरथ सिंह रावत के कार्यकाल का एक हिस्सा कोविड 19 का भी शिकार रहा, जब वो खुद भी संक्रमित हो गये थे.

तीरथ सिंह रावत कुंभ की वजह से कोविड 19 फैलने को लेकर भी जिम्मेदारी से नहीं बच पाये. नौबत यहां तक आ गयी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कुंभ जल्दी समेटने के लिए अपील करनी पड़ी. बताते हैं कि पहले त्रिवेंद्र सिंह रावत ने कुंभ में एंट्री के लिए कोविड 19 नेगेटिव रिपोर्ट की अनिवार्य शर्त रखी थी, लेकिन कुर्सी पर बैठते ही तीरथ सिंह रावत ने ये अनिवार्यता खत्म कर दी.

तीरथ सिंह रावत ने 10 मार्च, 2021 को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी. नियमों के तहत 10 सितंबर से पहले उनके लिए विधायक बनना जरूरी था - और इसे ही तीरथ सिंह रावत के इस्तीफे के मूल कारण के तौर पर पेश किया जा रहा है, लेकिन बात इतनी ही नहीं लगती.

तीरथ सिंह रावत के इस्तीफे को लेकर बीजेपी की तरफ से उपचुनाव न होने की संभावना को देखते हुए एकमात्र विकल्प के तौर पर पेश किया जा रहा है. खुद तीरथ सिंह रावत ने कहा भी कि जनप्रतिधि कानून की धारा 191 ए के तहत छह माह की तय अवधि में वो चुनकर नहीं आ सकते, इसीलिए, 'मैंने अपने पद से इस्तीफा दिया.'

एक छोटा सा कार्यकाल और ढेर सारी फजीहत

तीरथ सिंह रावत ने इस्तीफे से ठीक पहले जहां अपने कार्यकाल की उपलब्धियां गिनाईं, उससे पहले 22 हजार नौकरियों की घोषणा करके भी चौंकाया. साथ में 22 हजार करोड़ के कोविड 19 पैकेज के ऐलान ने भी हर किसी का ध्यान खींचा.

उत्तराखंड का ये प्रयोग बीजेपी का बनाया हुआ संयोग ही लगता है. त्रिवेंद्र सिंह रावत ग्रह नक्षत्रों के तात्कालिक संयोग का नतीजा थे तो तीरथ सिंह रावत शुरू से अब तक प्रयोग ही नजर आये - लेकिन अब स्थिति ये है कि बीजेपी के सामने चारों धाम पूरे करने की चुनौती आ खड़ी हुई है.

हफ्ता भर पहले से ही तीरथ सिंह रावत की कुर्सी पर खतरा महसूस किया जाने लगा था. छह महीने के भीतर विधायक न बन पाने की सूरत में तीरथ सिंह रावत के सामने कोई सीधा रास्ता भी नहीं बचा था. तीरथ सिंह रावत की भी बिलकुल वैसी ही स्थिति हो गयी थी, जैसी पिछले साल महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की हो गयी थी - और आने वाले दिनों में वैसा ही चैलेंज पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के सामने आना तय है.

tirath singh rawatप्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में राम और कृष्ण के भाव देखने के बावजूद बच नहीं पाये तीरथ सिंह रावत

तीरथ सिंह रावत ने अपने इस्तीफे में लिखा भी है, संवैधानिक बाध्यता के कारण मैं छह महीने में विधानसभा सदस्य नहीं बन सकता. ऐसे में मैं नहीं चाहता कि पार्टी के सामने कोई संकट उत्पन्न हो - इसलिए मैं मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे रहा हूं.

बोले भी कि कुंभ में मां गंगा की कृपा से कोरोना नहीं फैल सकता. कुंभ और मरकज की तुलना को गलत बताते हुए कहा कि मरकज से जो कोरोना फैला वो एक बंद कमरे से फैला - क्योंकि वे सभी लोग एक बंद कमरे में रहे, जबकि हरिद्वार में हो रहा कुंभ का दायरा नीलकंठ और देवप्रयाग तक फैला हुआ है.

बयानबाजी के मामले में तो तीरथ सिंह रावत एक दौर में सबको पीछे छोड़ रहे थे. फटे जींस वाले उनके बयान पर उनकी पत्नी को भी आगे आकर सफाई देनी पड़ी थी. एक किस्सा सुनाते हुए रावत ने कह डाला था, 'यूनिवर्सिटी में पढ़ने आई हो और अपना बदन दिखा रही हो, क्या होगा इस देश का!'

एक मीडिया रिपोर्ट में बताया गया है कि बीजेपी ने त्रिवेंद्र सिंह रावत को मुख्यमंत्री पद से हटाये जाने के बाद एक आंतरिक सर्वे कराया था, लेकिन नतीजे बड़े डरावने मिले - सर्वे में मालूम हुआ कि तीरथ सिंह रावत के नेतृत्व में बीजेपी के लिए उत्तराखंड विधानसभा का चुनाव जीतना मुश्किल है.

और तो और तीरथ सिंह रावत ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ में जो कसीदे पढ़े थे वे भी बेकार गये. तीरथ सिंह रावत का कहना था कि जैसे त्रेता और द्वापर युग में राम और कृष्ण को पूजा जाता था, आने वाले समय में नरेंद्र मोदी को भी भविष्य में वैसे ही पूजा जाएगा. जैसे भगवान राम और भगवान श्रीकृष्ण नेसमाज के उत्थान के लिए काम किया था और उनको हम भगवान मानने लगे थे - नरेंद्र मोदी भी वैसे ही काम कर रहे हैं.

ये तो बताने की जरूरत नहीं कि पश्चिम बंगाल के नतीजों के बाद बीजेपी नेतृत्व अंदर से हिला हुआ है. कम से कम चुनावी राजनीति को लेकर तो हाल ऐसा ही लगता है. जाहिर है फिक्र तो इस बात को लेकर भी रही ही होगी कि उपचुनाव हुए और रावत अपनी सीट नहीं निकाल पाये तो क्या होगा? और अगर रावत के इस्तीफे के बाद उनकी लोक सभा सीट पौड़ी गढ़वाल के नतीजे भी मनमाफिक नहीं आये तो क्या होगा? पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों से पहले ये सब काफी चिंताजनक बातें हैं, समझा जा सकता है.

हिन्दी के अख़बार, अमर उजाला ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि त्रिवेंद्र सिंह रावत को मुख्यमंत्री पद से हटाये जाने के बाद हुए आंतरिक सर्वे में पाया गया कि तीरथ सिंह रावत के चेहरे के सहारे चुनाव जीतना मुश्किल है. फिर पार्टी नेतृत्व को यह डर भी था कि अगर रावत उपचुनाव में हार गये या उनकी तरफ से खाली की गई लोकसभा की पौड़ी गढ़वाल सीट पर हुए उपचुनाव में पार्टी हार गई तो इसका बड़ा सियासी नुक़सान होगा.

पहले तीरथ सिंह रावत के गंगोत्री से उपचुनाव लड़ने की संभावना जतायी जा रही थी. बताते हैं कि तीरथ सिंह रावत गंगोत्री से चुनाव लड़ने के पक्ष में नहीं थे. ये भी खबर आयी थी कि तीरथ सिंह रावत के चुनाव क्षेत्रों की अदला बदली हो सकती है. मतलब ये कि तीरथ सिंह रावत की लोक सभा सीट पौड़ी गढ़वाल से पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के लिए दिल्ली का रास्ता बनाया जा सकता था - और उनकी डोइवाला विधानसभा सीट पर उपचुनाव में तीरथ सिंह रावत उम्मीदवार होते.

ऐसा कम ही होता है कि कोई मुख्यमंत्री उपचुनाव ही हार जाये, चूंकि उत्तराखंड विधानसभा का कार्यकाल एक साल से कम बचा है, ऐसे में उपचुनाव के लिए चुनाव आयोग तैयार हो पाता, इसकी भी कम संभावना लग रही थी.

पश्चिम बंगाल चुनाव को लेकर बार बार कठघरे में खड़ा किये जाने के बाद चुनाव आयोग ने स्थिति में सुधार होने तक हर तरह के चुनाव कराये जाने की प्रक्रिया होल्ड कर डाली है. बिहार में पंचायत चुनाव रद्द होने की वजह भी यही है.

पश्चिम बंगाल सहित दूसरे राज्यों में भी कई सीटों पर उपचुनाव कराये जाने थे, लेकिन चुनाव आयोग ने एक बार फिर चुनाव प्रक्रिया वैसे ही होल्ड कर लिया है, जैसे कोरोना वायरस के चलते लॉकडाउन के बाद किया था.

अब तो मान कर चलना होगा कि पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के सामने भी ऐसी ही मुश्किल आने वाली है - लेकिन क्या ममता बनर्जी के मामले से तीरथ सिंह रावत का भी कोई कनेक्शन हो सकता है? राजनीति में कुछ भी हो सकता है तो ऐसा क्यों नहीं हो सकता?

तीरथ रावत का इस्तीफा और ममता कनेक्शन?

ये तो साफ है कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के सामने भी तीरथ सिंह रावत जैसी ही परिस्थिति दस्तक देने वाली है - लेकिन ये साफ नहीं है कि ममता बनर्जी की किस्मत उद्धव ठाकरे की तरह उनको उबार लेगी या फिर तीरथ सिंह रावत की तरह डुबो देगी?

मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने के छह महीने के भीतर विधायक बनने की जो चुनौती उद्धव ठाकरे के सामने रही, वही तीरथ सिंह रावत के सामने भी थी - और बिलकुल वही मुसीबत आगे चल कर ममता बनर्जी को घेरने वाली है.

2 मई को पश्चिम बंगाल के नतीजे आने के दो दिन बाद ममता बनर्जी का शपथग्रहण 4 मई को हुआ था - और उसी हिसाब से 4 नवंबर से पहले ममता बनर्जी को विधानसभा पहुंचना ही होगा. नंदीग्राम विधानसभा सीट पर बीजेपी उम्मीदवार शुभेंदु अधिकारी से हार जाने के बाद ममता बनर्जी ने भवानीपुर की अपनी सीट खाली करा ली है, लेकिन निश्चित समय सीमा के भीतर चुनाव आयोग उपचुनाव कराएगा ही, ये निश्चित कतई नहीं है.

कोरोना वायरस से पैदा हुई स्थिति के चलते एक बार फिर चुनाव आयोग ने चुनावी गतिविधियों पर अस्थायी तौर पर रोक लगा रखी है. पश्चिम बंगाल में तो पहले से ही दो सीटें खाली पड़ी थीं, भवानीपुर के तृणमूल कांग्रेस विधायक ने तो ममता बनर्जी के लिए रास्ता साफ किया है. अब अगर चुनाव आयोग नवंबर से पहले पश्चिम बंगाल में उपचुनाव कराने को तैयार नहीं होता तो ममता बनर्जी के सामने भी रावत और ठाकरे जैसी चुनौती खड़ी हो जाएगी.

उद्धव ठाकरे के केस को याद करें तो वो 28 नवंबर, 2019 को मुख्यमंत्री बने और 28 मई, 2020 से पहले उनको महाराष्ट्र के किसी भी सदन का सदस्य बन जाना था. उद्धव ठाकरे मान कर चल रहे थे कि अप्रैल, 2020 में विधान परिषद के चुनाव होंगे और उनका काम हो जाएगा. वैसे भी कई सारे मुख्यमंत्री विधानसभा की जगह, जहां विधान परिषद हैं, उच्च सदन का रास्ता ही अख्तियार करते हैं.

जब कोरोना वायरस के चलते देश में संपूर्ण लॉकडाउन लगा तो चुनाव आयोग ने महाराष्ट्र विधानसभा की 7 सीटों के लिए चुनाव कराये जाने का मामला भी अनिश्चितकाल के लिए टाल दिया था. उद्धव ठाकरे ने एक से ज्यादा बार कैबिनेट से प्रस्ताव पास करा कर भेजा जरूर, लेकिन राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी उनको विधान परिषद के लिए मनोनीत करने को राजी ही नहीं हुए.

आखिर में थक हार कर उद्धव ठाकरे ने प्रधानमंत्री मोदी को फोन मिलाया - और काम बन गया. तो क्या ममता बनर्जी भी प्रधानमंत्री मोदी को इसके लिए फोन करना पड़ेगा?

और क्या ममता बनर्जी के फोन करने पर भी प्रधानमंत्री मोदी का रिस्पॉन्स उद्धव ठाकरे केस जैसा ही रहेगा - 'देखते हैं... '

क्या ममता बनर्जी के कोलकाता से दिल्ली भेजे गये मालदा आम का असर नवंबर तक कायम रह सकेगा? अगर आम की मिठास अभी कड़वाहट खत्म नहीं कर सकी तो बाद में भला क्या उम्मीद की जाये - भले ही आम पाने वाला उसे चूस कर खाये या फिर काट कर, फर्क ही क्या पड़ता है?

उद्धव ठाकरे और ममता बनर्जी बीजेपी नेतृत्व के नजरिये से देखें तो दोनों ही अलग अलग छोर पर खड़े हैं - भले ही वो तय कर चुके हों कि मिल कर लड़ना ही है. गठबंधन तो ममता बनर्जी का पहले बीजेपी से भी रहा है, लेकिन अभी की स्थिति में तो बीजेपी उद्धव ठाकरे में नीतीश कुमार का तो अक्स देख सकती है, लेकिन ममता बनर्जी का तो कतई नहीं.

ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में विधान परिषद के गठन की तरफ भी कदम बढ़ाया है. विधानसभा से प्रस्ताव पास भी करा लिया है, लेकिन लोक सभा की मंजूरी के बगैर ऐसा होगा नहीं - और मोदी-शाह ये सब मंजूर करें ये मुमकिन नहीं है. भला केंद्र सरकार ममता बनर्जी की ऐसी मदद क्यों करे कि विधान परिषद बन जाने पर वो अपने उन नेताओं को एडजस्ट कर सकें जिनसे टिकट न देने के बदले वादा कर रखा है.

सवाल ये उठता है कि क्या ममता बनर्जी को मुसीबत में डालने के लिए बीजेपी नेतृत्व ने तीरथ सिंह रावत की कुर्बानी देने का फैसला लिया होगा?

बिलकुल ऐसा ही तो नहीं लगता, लेकिन ये जरूर है कि ममता बनर्जी की तरफ से उपचुनाव की रिक्वेस्ट मिलने पर ये केस रेडीमेड जवाब निश्चित तौर पर हो सकता है.

ममता बनर्जी के फोन करने पर प्रधानमंत्री मोदी अब तो बड़े आराम से कह सकते हैं कि बीजेपी जब अपने मुख्यमंत्री को संवैधानिक नियमों के चलते कुर्बान कर सकती है, तो दूसरों के लिए ऐसी उम्मीद करनी ही नहीं चाहिये. वैसे बीजेपी चाहती तो तीरथ सिंह रावत को चुनावों तक मुख्यमंत्री बनाये रखने का रास्ता खोजा जा सकता था.

उद्धव ठाकरे के मामले में मुश्किलें जरूर थीं, लेकिन तीरथ सिंह रावत को बीजेपी नेतृत्व चाहता तो कुर्सी पर बिठाये रख सकता था. छह महीने पूरे होने पर तो अपनेआप वो पद से हट जाते, लेकिन उससे ठीक पहले वो इस्तीफा देकर नये सिरे से शपथ लेकर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे रहते और तब तक तो चुनाव का टाइम भी आ जाता, लेकिन असल बात तो और ही थी तीरथ सिंह रावत को हटाने की - बीजेपी नेतृत्व को अभी चार धाम यात्रा जैसे और प्रयोग भी तो करने थे.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

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