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Updated: 25 जून, 2021 07:39 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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जम्मू-कश्मीर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) की सर्वदलीय बैठक (Jammu-Kashmir Talks) की पहल देश की राजनीति में एक महत्वपूर्ण घटना है - जाहिर है होने वाले असर की संभावना को भी व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिये.

जम्मू-कश्मीर से धारा 370 खत्म किया जाना बीजेपी का चुनावी वादा रहा. चुनाव जीतकर 2019 में मोदी सरकार ने कामकाज संभालते ही संसद के रास्ते चुनावी वादे को हकीकत के में बदल दिया - और अब ये बैठक उससे आगे की शुरुआत है.

बैठक की अहमियत सिर्फ केंद्र और कश्मीर तक ही सीमित नहीं है, बल्कि ये भविष्य की घरेलू राजनीति, चुनावी राजनीति और अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति के हिसाब से भी काफी महत्वपूर्ण हो जाती है. मोदी के खिलाफ मोर्चेबंदी में जुटे विपक्ष के नेता भी ये सब अंदर तक महसूस कर रहे होंगे, इस बात से वे भी शायद ही इनकार करें.

जब दिल्ली में बैठक को लेकर काफी हलचल रही, कोलकाता में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने पत्रकारों से बातचीत में धारा 370 हटाये जाने को लेकर कहा कि उस एक घटना से दुनिया भर में भारत की छवि धूमिल हुई - बातचीत के बाद बाहर आये नेताओं के चेहरे देखने के बाद तो विचार बदल ही गये होंगे, राजनीतिक मजबूरी मन की बात साझा करने से भले ही रोक ले.

समझने वाली बात ये है कि जम्मू-कश्मीर के मुख्यधारा के किसी भी नेता ने बातचीत से दूरी नहीं बनायी है - और खुले मन से मीटिंग में हिस्सा लिया है. स्टैंड अलग अलग हो सकते हैं, लेकिन ये भी कम है क्या कि केंद्र सरकार को हद से बढ़ कर चेतावनी देने वाले अब्दुल्ला और मुफ्ती दोनों ही बातचीत की मेज पर बैठे भी और अपनी ख्वाहिशें भी शेयर की.

बातचीत भले ही पहले चुनाव या स्टेटहुड के बीच अभी थोड़ी उलझी हुई लगती हो, लेकिन अहम बात तो संवाद की शुरुआत है. मोदी सरकार का कहना है कि पहले चुनाव कराने की कोशिश होगी, फिर जम्मू-कश्मीर के राज्य का दर्जा बहाल करने पर विचार किया जाएगा. कश्मीरी नेता पहले स्टेटहुड और उसके बाद चुनाव चाहते हैं. हो सकता है ऐसा कश्मीरी नेताओं के विश्वास में आई कमी की वजह से भी हो, लेकिन ऑप्शन तो उनके पास है नहीं.

आगे की राह जैसे भी तय की जाने वाली हो, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी की ये पहल अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक सकारात्मक छाप छोड़ेगी ही. साथ ही, पाकिस्तान की भारत विरोधी कोशिशों को भी अपनेआप न्यूट्रलाइज भी करेगी.

बाकी चीजों के अलावा, ब्रांड मोदी पर भी असर तो होगा ही. दिल्ली चुनाव में बीजेपी के दोबारा फिसड्डी साबित होने पर सवाल खड़े होने लगे तो संघ के मुखपत्र के जरिये सलाहियत आयी कि स्थानीय स्तर पर नेताओें की पौध खड़ी की जानी चाहिये, न कि हर चुनाव में जीत के लिए मोदी-शाह के भरोसे रहना ठीक है. बिहार चुनाव से पहले जब नीतीश कुमार की लोकप्रियता घटने लगी थी और कोविड 19 के चलते अमित शाह को भी आइसोलेट होना पड़ा तो प्रधानमंत्री मोदी अकेले ही मोर्चे पर डटे रहे. नतीजा भी सामने आया, लेकिन बिहार से बंगाल पहुंचते पहुंचते फिर सब चौपट हो गया.

अब अगले साल होने वाले यूपी और अन्य विधानसभाओं के चुनाव (Assembly Elections 2022) को लेकर देखें तो बंगाल में बीजेपी की हार के बाद बीजेपी के लिए अकेले ब्रांड मोदी के भरोसे रहना मुश्किल हो रहा था - जम्मू-कश्मीर पर प्रधानमंत्री मोदी और कश्मीरी नेताओं की बैठक के बाद बीजेपी चुनावी मैदान में उतरने से पहले काफी राहत महसूस कर ही रही होगी.

ब्रांड मोदी की वैल्यू पर कितना फर्क संभव

जम्मू-कश्मीर पर 8 क्षेत्रीय दलों के 14 नेताओं के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और सूबे के लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा की साढ़े तीन घंटे चली मीटिंग से माहौल थोड़ा खुशनुमा तो हुआ ही है - वैसे भी कश्मीरी नेताओं के लिए ये खुश होने के गालिब ख्याल से ज्यादा तो कुछ है भी नहीं.

narendra modi, manoj sinha, kashmiri leadersकश्मीर वार्ता के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता जानने के लिए बीजेपी को किसी नये सर्वे का इंतजार जरूर रहेगा

यूपी विधानसभा चुनाव से पहले ब्रांड मोदी की वैल्यू बढ़ाना बीजेपी के लिए बहुत जरूर हो गया था - खासकर बंगाल चुनाव की शिकस्त के बाद और उत्तर प्रदेश में अगले साल होने जा रहे विधानसभा चुनावों से पहले - जम्मू-कश्मीर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ताजा पहल के बाद ये काम काफी आसान हुआ लगता है.

आने वाले चुनावों में जम्मू-कश्मीर की चर्चा तो होनी ही थी, लेकिन अब कई तरीके से हो सकेगी. ये तो पक्का सुनने को मिलेगा कि बीजेपी को लोगों ने वोट नहीं दिये तो यूपी में भी कश्मीर जैसी हालत हो जाएगी. ये लाइन बड़ी ही अजीब है, लेकिन राजनीति में कई बार कहा कुछ और जाता है और उसके मतलब बड़े ही अलग निकाले जाते हैं.

ये कोई थोड़े ही पूछ पाता है कि क्या मौजूदा कश्मीर जैसी हालत हो जाएगी या फिर अगस्त, 2019 से पहले वाली, लेकिन संदेश यही जाता है कि पाकिस्तान परस्त आतंकवाद फैलने लगेगा. जैसे कहा तो सिर्फ यही जाता है कि अगर 'कब्रिस्तान बनता है तो श्मशान' भी बनना चाहिये या 'ईद पर बिजली रहती है तो दिवाली पर भी रहनी चाहिये', लेकिन ऐसी बातें बड़े आराम से मंजिल तक का सफर तय कर लेती हैं.

अब तो चुनावों में जम्मू-कश्मीर से धारा 370 खत्म करने के चुनावी वादे पूरे करने के जिक्र के साथ कश्मीरी नेताओं से प्रधानमंत्री मोदी की बातचीत के बाद दुनिया में भारती की सकारात्मक छवि निखरने की भी चर्चा होगी - और लगे हाथ इसे पाकिस्तान को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कूटनीतिक पटखनी देने के तौर पर भी प्रोजेक्ट किया ही जाएगा. हुआ भी तो ऐसा ही है.

बीजेपी के लिए विरोधियों को घेरना आसान होगा

जम्मू-कश्मीर पर बातचीत क्या आगे पीछे भी हो सकती थी? अगर ऐसा हो सकता था तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अचानक सर्वदलीय बैठक बुलाने की वजह क्या रही होगी?

कश्मीरी नेताओं और प्रधानमंत्री मोदी के बीच ये बैठक 24 जून, 2021 को हुई है - ध्यान दें तो मालूम होता है कि देश कांग्रेस सरकार के दौरान लागू हुई इमरजेंसी की पूर्व संध्या पर. देश में आपातकाल 25 जून, 1975 को लागू किया गया था - और उसकी अपनी अलग कहानी है.

इमरजेंसी लागू करने से चार महीने पहले ही तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने शेख अब्दुल्ला के साथ कश्मीर समझौता किया था - 24 फरवरी, 1975 को. शेख अब्दुल्ला, नेशनल कांफ्रेंस और गुपकार गठबंधन के नेता फारूक अब्दुल्ला के पिता थे. तब शेख अब्दुल्ला केंद्र में सत्ताधारी कांग्रेस की बदौलत मुख्यमंत्री बने थे और राजनीति भी उसी के भरोसे चलती रही.

अब भी हालत यही है कि फारूक अब्दुल्ला या महबूबा मुफ्ती की बची खुची राजनीति के जिंदा रखने के लिए केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी के ही सपोर्ट की जरूरत आ पड़ी है. प्रधानमंत्री मोदी और कश्मीरी नेताओं के साथ मीटिंग के बाद चर्चा तो इंदिरा गांधी की भी हो रही है, लेकिन कश्मीर को लेकर नहीं बल्कि इमरजेंसी को लेकर. चाहें तो इसे भी आप एक तरीके से कांग्रेस मुक्त अभियान का हिस्सा ही समझ सकते हैं.

कश्मीरी नेताओं के साथ बातचीत के बीच प्रधानमंत्री मोदी के मन की बात भी सामने आयी है. नया कश्मीर बनाने की बात करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा है - "दिल्ली की दूरी के साथ-साथ दिल की दूरी को भी हटाना चाहते हैं."

मोदी का बयान भी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की ही लाइन पर है, लेकिन उसका रुख दिल्ली से कश्मीर की तरफ है, न कि कश्मीर से दिल्ली की तरफ. अटल बिहारी वाजपेयी ने कश्मीर समस्या के हल के लिए 'इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत' का मंत्र दिया था - और अगस्त, 2019 से पहले तक कश्मीरी नेता वाजपेयी की बातों को बराबर ही याद करते देखे जाते रहे.

प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की ही तरफ जनवरी, 2004 में कश्मीरी नेताओं के साथ भी मीटिंग हुई थी और तब उनमें कई अलगाववादी नेता भी शामिल थे - ये नये मिजाज की कश्मीर पॉलिटिक्स है, इसलिए थोड़ा फासले के साथ चल रही है.

मुश्किल तो ये है कि विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने आने वाले चुनावों से पहले से ही पैर कुल्हाड़ी पर मारने शुरू कर दिये हैं. कांग्रेस नेतृत्व जहां दिग्विजय सिंह की लाइन पर कायम नजर आ रहा है, वहीं सीनियर नेता पी. चिदंबरम सरकार को घेरने के लिए अपनी अलग ही थ्योरी दे रहे हैं. चिदंबरम भी जम्मू-कश्मीर के नेताओं की पहले पूर्ण राज्य का दर्जा और बाद में चुनाव की पैरवी कर रहे हैं.

ट्विटर पर पी. चिदंबरम लिखते हैं - घोड़ा ही गाड़ी को खींचता है. राज्य को ही चुनाव करवाने चाहिये, तभी निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव हो पाएंगे. केंद्र सरकार गाड़ी को आगे रखकर घोड़ा पीछे क्यों रखना चाहती है - ये विचित्र है!

हैरानी की बात तो ये है कि सुप्रीम कोर्ट के सीनियर वकील और केंद्रीय मंत्री रहे चिदंबरम पूर्ण राज्य के दर्जे की मांग के चक्कर में चुनाव आयोग की भूमिका ही भूल जा रहे हैं. भला राज्य कब से चुनाव कराने लगा? क्या बाकी केंद्र शासित क्षेत्रों में केंद्र सरकार चुनाव कराती है? अभी अभी हुए पुडुचेरी चुनाव में आखिर किसकी भूमिका रही - चिदंबरम के नजरिये से सोचें तो चुनाव आयोग या केंद्र सरकार की?

जम्मू कश्मीर में भी चुनाव तो इलेक्शन कमीशन को कराना है. अभी परिसीमन आयोग का काम पूरा नहीं हुआ है, लेकिन उसके लिए राज्य के अस्तित्व में होने की दलील हजम नहीं होती. दिल्ली को भी तो पूर्ण राज्य का दर्जा दिये जाने की मांग होती रही है, लेकिन जब तक ऐसा नहीं हो रहा तब तक क्या चुनाव प्रक्रिया रोक दी गयी है - अगर कोई दिक्कत है तो कांग्रेस की तरफ से अब तक ऐसी कोई मांग क्यों नहीं हुई?

जम्मू-कश्मीर के नेताओं के लिए रोजी रोटी का संकट जरूर पैदा हो गया है - और अलगाववादी नेताओं का हाल तो राजनीतिक भूखमरी जैसा हो चुका है - लेकिन इंटरनेट सेवा बंद होने के पीरियड को छोड़ दें तो जम्मू-कश्मीर के लोगों की जिंदगी पर अलग से क्या फर्क पड़ा है? पहले की सरकारों को छोड़ भी दें तो महबूबा मुफ्ती की गठबंधन सरकार में ही पत्थरबाजी और एनकाउंटर के अलावा ऐसे कौन से उल्लेखनीय काम हो पाये जिनको लंबे समय तक लोग याद रख पाते हों.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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