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Updated: 08 अक्टूबर, 2021 07:02 PM
देवेश त्रिपाठी
देवेश त्रिपाठी
  @devesh.r.tripathi
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90 के दशक में कश्मीर घाटी से रातोंरात कश्मीरी पंडित परिवारों के पलायन की भयावहता का दौर शायद ही कोई भूला होगा. लेकिन, सेक्युलरिज्म में आकंठ डूबी भारत सरकार की ओर से उस दौरान इस क्रूरता से भरे पलायन पर केवल अपने कंधे उचका दिये गए थे. 1947 में कश्मीर समस्या का पूर्ण समाधान न करने की वजह से आज ये नासूर बन चुकी है. इतना ही नहीं, बीते एक हफ्ते में कश्मीर घाटी में 90 के दशक की वापसी के संकेत मिलने लगे हैं. आतंकवादियों द्वारा चुन-चुनकर कश्मीरी पंडितों के साथ ही बाहर से आकर बसे लोगों को निशाना बनाकर मौत के घाट उतारा जा रहा है. और, इसके लिए 90 के दशक का ही आतंकी मॉडल फिर से दोहराया जा रहा है. जिस तरह से 14 सितंबर 1989 को भाजपा के नेता पंडित टीका लाल टपलू को सरेआम मारकर कश्मीरी पंडितों को खौफ का पैगाम भेजा गया था. ठीक उसी तरह श्रीनगर के जाने-माने कश्मीरी पंडित माखन लाल बिंद्रू की सरेआम हत्या कर आतंकियों ने उस क्रूर और भयावह दौर की वापसी का पैगाम दे दिया.

भाजपा नेताओं की हत्या से शुरू हुआ ये सिलसिला अब फिर से कश्मीरी पंडितों तक आ गया है.भाजपा नेताओं की हत्या से शुरू हुआ ये सिलसिला अब फिर से कश्मीरी पंडितों तक आ गया है.

माखन लाल बिंद्रू की हत्या के कुछ ही घंटों के अंदर दो अन्य लोगों की हत्या हुई. जिनमें से एक बिहार के भागलपुर के रहने वाले वीरेंद्र पासवान थे. दूसरे स्थानीय निवासी मोहम्मद शफी थे. ये मामला अभी ठंडा भी नहीं हुआ था कि आतंकियों ने श्रीनगर में स्कूल के अंदर घुसकर दो शिक्षकों सतिंदर कौर और दीपक चंद की गोली मारकर हत्या कर दी. इन सभी हत्याओं पर नजर डालें, तो वजह साफ हो जाती है कि इनकी हत्याओं के जरिये आतंकी हिंदुओं, सिखों के साथ ही बाहर से आकर बसे लोगों के बीच दहशत फैलाकर उन्हें घाटी छोड़ने का इशारा दे रहे हैं. बीते एक हफ्ते में आतंकियों द्वारा 7 नागरिकों की हत्या को अंजाम दिया जा चुका है. इन हत्याओं की जिम्मेदारी द रेजिस्टेंस फ्रंट यानी टीआरएफ नाम के आतंकी संगठन ने ली है. जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटने के बाद सेना पर होने वाले हमलों में कमी आई है. लेकिन, अब कश्मीर में चुन-चुनकर नागरिकों को निशाना बनाया जा रहा है.

भाजपा नेताओं की हत्या से शुरू हुआ ये सिलसिला अब फिर से कश्मीरी पंडितों तक आ गया है. आसान शब्दों में कहें, तो कश्मीर में जो शख्स भाजपा या संघ से जुड़ा होगा, आतंकियों की हिट लिस्ट में वो सबसे अव्वल नंबर पर होंगे. इतना ही नहीं आतंकियों द्वारा किसी की भी हत्या के लिए केवल इतना ही काफी होगा कि उसका नाम हिंदुओं वाला हो. फिर चाहे वो कश्मीर में मेडिकल स्टोर चलाने वाले माखन लाल बिंद्रू हों या फिर एक छोटी सी रेहड़ी लगाने वाला वीरेंद्र पासवान. आजादी के बाद जम्मू कश्मीर को समस्या बनाने वालों पर बात करना अब बेमानी है. हर बात के लिए प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को कोसने से मारे गए लोग वापस नहीं आएंगे. जम्मू-कश्मीर की समस्या के लिए कांग्रेस को दोष नहीं दिया जा सकता है. वो भी ऐसे समय में जब केंद्र में भाजपा की सरकार हो और धारा 370 हटाई जा चुकी हो. कश्मीर में 'कत्लेआम' को जड़ से खात्मे के लिए आखिर केंद्र की भाजपा सरकार किस बात का इंतजार कर रही है?

अलगाववादियों पर हर तरह से शिकंजा कसा जा रहा है, आतंकियों को सहायता पहुंचाने वाले सरकारी कर्मचारियों को बर्खास्त किया जा रहा है, आतंकवादियों के खिलाफ भारतीय सेना 'ऑपरेशन क्लीन' चला रही है. इसके साथ ही जम्मू-कश्मीर में विकास की नई इबारत भी लिखी जाने लगी है. उद्योग लगाए जा रहे हैं, इंफ्रास्ट्रक्चर मजबूत किया जा रहा है, कश्मीरी युवाओं को मुख्यधारा में लाने की अपार कोशिशें की जा रही हैं. कश्मीरी पंडितों की घर वापसी के लिए पैकेज घोषित होने के साथ ही जमीन पर भी कुछ काम होता दिख ही रहा है. लेकिन, इसके बाद भी आतंकी घटनाओं पर नकेल नहीं लग पा रही है. केंद्र की भाजपा सरकार वो सबकुछ कर रही है, जो एक आम नागरिक के आगे बढ़ने और उसके परिवार के सुखमय जीवन के लिए जरूरी होता है. लेकिन, फिर भी समस्या जस की तस ही नजर आती है. इस साल आतंकी हमलों में 25 आम नागरिकों ने अपनी जान गंवाई है. और, आतंकियों का अटैक मॉडल 90 के दशक वाला ही है. चुन-चुनकर मौत बांटना.

दशकों से चली आ रही बीमारी का इलाज एक कड़वी दवाई से ही हो सकती है. समय आ गया है कि आतंकी बुरहान वानी के जनाजे में दिखने वाली हजारों की भीड़ को भारत के नागरिक नहीं बल्कि संभावित आतंकियों की तरह देखा जाए. भारत सरकार को मद्रास हाई कोर्ट के उस फैसले पर ध्यान देना चाहिए, जब पेरंबलूर जिले के कड़तूर गांव के हिंदू पक्ष को वर्षों से निकाली जा रही रथ यात्राओं के मार्ग को मुस्लिम पक्ष के दबाव में सत्र न्यायालय द्वारा सीमित कर दिया गया था. कड़तूर गांव की मुस्लिम जमात का साफ कहना था कि गांव में मुस्लिम आबादी ज्यादा है, तो यहां शिर्क यानी मूर्ति पूजा के लिए कोई जगह नहीं है. भला हो मद्रास हाई कोर्ट का जो उसने मुस्लिम जमात को फटकार लगाते हुए कहा कि इस तर्क के हिसाब से तो हिंदू बहुल भारत में कोई मुस्लिम आयोजन नहीं हो सकेगा. यह असहिष्णुता की पराकाष्ठा है और इसकी नींव कश्मीर में बहुत पहले ही रखी जा चुकी है. सबसे बड़ी बात ये है कि ऐसे सैकड़ों उदाहरणों से लिस्ट भरी हुई है. ये घटनाएं आइडिया ऑफ इंडिया के खिलाफ हैं.

सेक्युलर होने के नाम पर लोगों की मौत को जस्टिफाई नहीं किया जा सकता है. केंद्र की भाजपा सरकार को समझना पड़ेगा कि डेमोग्राफिक चेंज ने कश्मीर घाटी को पूरी तरह से बदल दिया है. आज उत्तराखंड की चीन से लगी सीमाओं पर चीनी सेना के सैनिक घुसकर तोड़-फोड़ कर आसानी से वापस हो जाते हैं. इसकी वजह है पलायन. देश की सीमा से सटे राज्यों में ऐसी स्थितियां होंगी, तो कभी न कभी भारत के सामने ये समस्याएं सुरसा का मुंह खोले खड़ी होंगी और वो कुछ भी नहीं कर पाएगा. हाल ही में जम्मू-कश्मीर में परिसीमन की तैयारियां जोर-शोर से की जा रही हैं. लद्दाख के अलग केंद्र शासित प्रदेश बन जाने के बाद जम्मू-कश्मीर में फिर से परिसीमन होना है. भारत सरकार को इस परिसीमन को तमाम आपत्तियों के बावजूद एक मौके के तौर पर देखना चाहिए. और, डंके की चोट पर कश्मीर से ज्यादा सीटें जम्मू की खाते में डालकर डेमोग्राफिक चेंज को बराबर करने की ओर कदम बढ़ाना चाहिए. साथ ही बिना किसी लाग-लपेट के इस बदलाव का विरोध करने वालों को भी संभावित आतंकियों की श्रेणी में रखना चाहिए.

कहना गलवत नहीं होगा कि केंद्र की भाजपा सरकार को जम्मू-कश्मीर के डेमोग्राफिक बदलाव के लिए कड़े और बड़े कदम उठाने होंगे. वरना जो समस्या दशकों से चली आ रही है, आगे भी चलती रहेगी. क्योंकि, मुस्लिम बहुल इलाकों में कड़तूर गांव जैसी घटनाएं आम हैं. कट्टर और मजहबी दुराग्रहों से भरी हुई घाटी की उस आबादी पर चोट करने का समय आ गया है, जो कश्मीर में निजाम-ए-मुस्तफा और अहकाम-ए-इलाही का सपना देख रही हैं. उनके सपनों को केंद्र सरकार अपने फैसलों से कुचलकर देशभर में एक बड़ा संदेश दे सकती है कि ये भारत संविधान के आधार पर चलते हुए ही लोगों के लोकतांत्रिक हितों की रक्षा कर सकता है. अगर भारत सरकार आज से ही कड़े कदम उठाना शुरू नहीं करेगी, तो नासूर बन चुकी जम्मू-कश्मीर की समस्या देश के लिए घातक हो जाएगी. आतंकवाद पर पाकिस्तान का रोना रोने से कुछ नहीं होगा. क्योंकि, सीमा पार से केवल आदेश आते हैं, आतंकी यहां के लोग ही बनते हैं.

लेखक

देवेश त्रिपाठी देवेश त्रिपाठी @devesh.r.tripathi

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं. राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

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